सुनो सखी , उठो
बिखरे सपनों से बाहर
एक नयी शुरुआत करो
किस बात का खामियाजा भर रही हो
शायद …
मन ही मन सुबक रही हो
कालिख भरी रात तो बीत ही चुकी
नयी धूप , नया सवेरा
पेंड़ों पर चहकते पंछियों का डेरा
उमंग से भरे फूल देख रहे हैं तुम्हें
फिर तुम क्यों न भूली अपनी भूल
प्रेम ही तो किया था
ऐतबार के फूल अंजुली में भरकर आगे बढ़ी थीं
टुकड़े हुए अरमानों के महल
पर यही तो अंत नहीं है
इस विशालकाय भुवन में
एक कोना तुम्हारा है
जहाँ सतरंगी रंगों को
उमंग की पिचकारी में भरकर
दोनों बाहें फैलाकर
कोई बना सहारा है
आओ सखी आओ
अपने मन की होलिका जलाओ
दर्द तड़फ के मटमैले आंसू
धो डालो इस होली में
फिर इन्द्रधनुष के सारे रंग
भरो अपनी झोली में
सरबानी सेनगुप्ता
सरबानी सेनगुप्ता
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आदरणीय सरबानी जी ——— एक सखी की दुसरी या फिर अनेक सखियों को रंगों से सजाने और नयी
अभिलाषाओं की होली का आह्वान करती रचना का अंतर्निहित भाव बहुत प्रेरक है |
'' प्रेम ही तो किया था '' —– बहुत ही सशक्त स्नेह भरा उद्बोधन है | मुझे बहुत ही प्रेरणा भरी लगी ये रचना | सादर सस्नेह शुभकामना आपको |
धन्यवाद रेनू जी