मन का अँधेरा

मन का अँधेरा
बस खड़ी थी और उसमें कुछ
सवारियाँ बैठी भी हुई थीं
, कण्डक्टर उसके पास ही खड़ा होकर लख़नऊ लख़नऊ की आवाज़ लगा रहा था। मैंने
किनारे कार खड़ी की और नीचे उतर गया
, दूसरी तरफ से मुकुल भी उतर गया था। उसका झोला पिछली सीट पर ही पड़ा था
जिसे मैंने उठाने का अभिनय किया
, मुझे पता था वो उठाने नहीं देगा। झोला उठाकर वो बस की तरफ चलने को
हुआ तभी मैंने उसके कन्धे पर हाथ रखा और उसे धीरे से दबा दिया
, मुकुल ने
पलटकर देखा और उसकी आँखे भीग गयीं।

कुछ दिन रुके होते तो अच्छा
लगता”
, मैं अपनी
आवाज़ को ही पहचान नहीं पा रहा था।
इच्छा तो मेरी भी थी लेकिन
कल कोर्ट में केस है
,
तुम तो जानते ही हो। पिताजी लड़ते लड़ते भगवान को प्यारे हो गए और मुझे
विरासत में थोड़े खेतों के साथ ये बड़ा मुक़दमा भी दे गए। अगली बार जरूर कुछ दिन
रुकने के लिए आऊँगा
,
आखिर तुम कोई गैर तो हो नही।”

बस अब तक हिलने लगी थी और
मैंने मुकुल का हाथ पकड़ा और बस के दरवाज़े तक ले गया। मुकुल ने एक बार और मेरा हाथ
पकड़ा और बस में चढ़ गया। जब तक बस आँखों से ओझल नहीं हो गयी
, मुकुल
अपना हाथ खिड़की से निकालकर हिलाता रहा।
वापस आते समय जैसे एक बोझ
उतरा महसूस कर रहा था मैं
, हालाँकि कल मुझे भी लख़नऊ जाना था और अपनी सरकारी कार से ही जाना था
लेकिन मैंने जाहिर नहीं होने दिया मुकुल को। एक और दिन उसे रोकने की हिम्मत नहीं
थी मुझमे
, हालाँकि
मैंने अपने आप को दिलासा देने लिए पत्नी का कारण ढूँढ लिया था। आज रविवार के दिन
सुबह सुबह उसका आना और उसपर पत्नी की प्रतिक्रिया
, जिसे सिर्फ मैंने देखा था, के बाद
किसी भी हालत में उसे रोकने की हिम्मत नहीं थी मुझमे।

दिन का खाना तो खिला दूँगी
मैं लेकिन रात में रोका तो खुद ही बनाकर खिलाना अपने गँवार दोस्त को”
, पत्नी ने
बिना किसी शिकन के स्थिति स्पष्ट कर दी थी। मैंने भी हाँ में सर हिलाते हुए बस
इतना ही कहा था ” थोड़ा धीरे बोलो
, सुनाई पड़ता है बाहर”। अपना पैर पटकते हुए और
मुझे मेरी स्थिति का एहसास दिलाती हुई वो बाथरूम में घुस गयी।
पिछले महीने जब मैं गाँव
पिताजी के श्राद्ध के लिए गया था
, तब मुकुल ने पूरे पाँच दिन तक दिन रात मेरे हर काम को अपना समझ कर
किया था। रोज़ उसके घर से ही नाश्ता और खाना आता था
, दिन में कई बार चाय भी। जो
संतुष्टि उसे मुझे आराम से रहते हुए देख कर होती थी
, शायद वो ख़ुशी मैंने माँ के
बाद किसी की भी आँखों में देखी थी। उसकी पत्नी का घूँघट डाल के मेरे सामने आना
लेकिन पूरे अधिकार से मुझे खाने इत्यादि के लिए पूछना मुझे अंदर तक सुकून दे जाता
था। उसके दोनों बच्चे भी खूब घुल मिल गए थे और चलते समय मैंने उन सब को जौनपुर आने
का निमन्त्रण दे दिया था। उस समय मेरे अंदर कोई भी अलग भावना नहीं थी
, लेकिन
जैसे जैसे मैं जौनपुर पहुँचता गया
, वो भावना धीरे धीरे ख़त्म होती गयी।


ये सब क्या उठा लाये हो
गाँव से
, हमें भी
गँवार समझ रखा है क्या”
, और कुछ बोलूँ उससे पहले ही बाई को उठाकर सारी चीजें पकड़ा दी जो मुकुल
की बीबी ने बच्चों के लिए बनाकर दी थी। वो आखिरी प्रहार था मेरे दिमाग पर और मैं
सब कुछ भूल जाने की दिशा में बढ़ चुका था।

लेकिन दिन में पत्नी के
द्वारा कहे गए इस वाक़्य ने तो मुझे जैसे हजारों वाट का झटका दे दिया “कितना
अच्छा खाना बनाती हैं आपकी पत्नी
, बच्चे तो आजतक याद करते हैं आपके द्वारा भेजे गए सारे सामान
को”। मुकुल की आँखों से आंसू निकल पड़े थे और उसने बीबी की कुटिल मुस्कान नहीं
देखी।

अचानक दसवीं की परीक्षा
मुझे याद आ गयी
, अपने
गाँव से तीस किलोमीटर दूर था परीक्षा केंद्र। हम दोनों ही परीक्षा केंद्र से थोड़ी
दूर एक और गाँव
, जिसमे
उसकी बहन थी
, में रुके
हुए थे। उसकी बहन उससे ज्यादा मेरा ख्याल रखती थी और आखिरी दो परीक्षा देने के लिए
तो वो ही मुझे अपनी साइकिल पर बिठा कर ले जाता था। पता नहीं मेरे पैरों में क्या
हो गया था कि मुझसे चलते भी नहीं बन रहा था और उसने बिना चेहरे पर शिकन लाये अपनी
परीक्षा ख़त्म होने के बाद मुझे भी परीक्षा केंद्र पहुँचाया था। बस एक ही बात कहता
था मुकुल
, तुमको
बहुत आगे तक पढ़ना है और बड़ा अफ़सर बनना है
, मैं तो बस इस परीक्षा के
बाद खेती बाड़ी में लग जाऊँगा।

भावप्रवण कहानी –माँ तुझे दिल से सलाम

सचमुच वो खेती बाड़ी में लग
गया और मैं पढ़ता गया। कुछ ही साल बाद शहर में आकर धीरे धीरे मैं अपनी अलग दुनियाँ
में मशगूल होता गया और वो गाँव में रहकर मेरे लिए दुआएँ माँगता रहा। अपनी शादी में
भी उसने मुझे बुलाया था लेकिन मैं परीक्षा के चलते नहीं जा पाया
, उसने इस
बात का बुरा भी  नहीं माना। नौकरी मिल जाने के बाद मैं गाँव चला गया
, पिताजी
का आग्रह था कि जब तक ज्वाइन नहीं करना है तब तक गाँव रह लो। कभी कभी तो मुझे ऐसा
लगता जैसे नौकरी मेरी नहीं मुकुल की लगी हो
, इतना खुश और इतनी सारी
कल्पनाएँ करता था वो जैसे सब उसे ही करना हो।

मेरी शादी में वो पूरे जोश
से शामिल हुआ था और अपनी भाभी के लिए उसने बहुत कीमती तोहफ़ा ख़रीदा था। मुझे
आश्चर्य भी हुआ था ख़ुशी के साथ साथ
, दरअसल मैंने सोचा भी नहीं था कि मुकुल इतना पैसा खर्च कर सकता है।
तोहफ़ा तो मैंने भी दिया था उसकी पत्नी को लेकिन उसकी हैसियत के हिसाब से दिया था
, न कि
मेरे हैसियत के हिसाब से। शादी के बाद भी एकाध बार वो आया था और तब सब ठीक ही बीता
था। लेकिन जैसे जैसे मैं तरक्की की सीढियाँ चढ़ता गया
, मुझसे ज्यादा मेरी पत्नी को
पुराने लोग खटकने लगे। पिताजी का भी देहान्त हो गया और कोई वज़ह नहीं बची थी गाँव
जुड़े रहने की
, तो मैंने
गाँव की अधिकांश खेती बाड़ी बेच दी थी। थोड़े से खेत जो बहुत दूर थे गाँव से और
जिनको बेचने पर बहुत मुश्किल से कुछ मिलता
, वो खेत मैंने बटाई पर दे
दिए। चाहता तो उस खेतों को मुकुल को दे सकता था
, मन में आया भी था लेकिन
पत्नी ने कड़ाई से मना कर दिया।

मुकुल को देने मतलब समझते
हो
, कुछ भी
नहीं मिलेगा और खेत भी जायेंगे हाथ से “
, लेकिन उस समय तक थोड़ी सी
लिहाज़ बची हुई थी मुझमे। पर मैंने कुछ इस तरह से पूछा उससे कि उसने मना कर दिया और
मेरे मन से भी बोझ उतर गया।  
साल में एक बार मेरी सरकारी
कार गाँव चली जाती थी और जो कुछ भी मिलता उसे लेकर आ जाती। लगभग हर बार मुकुल के
घर से कुछ न कुछ आता था और अधिकतर वो बाई के हिस्से चला जाता। रिश्ते को
निःस्वार्थ निभाने का जो ज़ज्बा उसमे था वो कभी कम नहीं हुआ
, हाँ मैं
जरूर महंगाई से सिकुड़ते वेतन की तरह अपनी खोल में सिकुड़ता चला गया।


एक बार मुझे पता चला था कि
उसका खेत का मुक़दमा लखनऊ चल रहा है और मेरा एक दोस्त उस समय वहाँ जिला जज था। उस
रात को खाने के समय मैंने पत्नी से कहा ” मुकुल के मुक़दमे का पता लगाकर लखनऊ
वाले दोस्त को बोल देता हूँ
, शायद कुछ मदद ही कर दे “।

मुझे पता था कि वो क्यों हर
बार कुछ न कुछ भेज देता है
, आखिर काम जो निकलवाना था। आज तो मुक़दमे के लिए कहा है, कल बच्चे
की पढ़ाई के लिए और आगे चलकर पत्नी की बीमारी का भी बहाना होगा। कोई जरुरत नहीं है
ये सब करने की
, जितना हो
सके दूर ही रहो उससे।”

अब आगे और कुछ कहने की
हिम्मत नहीं बची थी मुझमे
, हाँ एक डर जरूर बैठ गया था मन में कि कहीं वो कुछ कह न दे। खैर समय
बीतता गया
, मैं अपने
आप को एक अच्छा पति साबित करता गया और अंदर ही अंदर अपने इंसान को मारता गया।
लेकिन आज सुबह उसके फोन ने बहुत मुश्किल में डाल दिया था जब उसने कहा कि वो मिलने
आ रहा है। फोन आने के बाद पत्नी की घूरती निगाह जिसमे चेतावनी स्पष्ट नज़र आ रही थी
, और मेरे
मन में भी घूमता प्रश्न कि आखिर किस काम से आ रहा है। जब तक वो घर पर रहा
, मैंने
कोई भी मौका नहीं दिया मुकुल को कि वह कुछ कह सके।
घर पहुँच कर जैसे ही मैं
कार से निकला
, पत्नी ने
गौर से देखा और जब मुझे अकेले उतरते देखा तो राहत की साँस लेते हुए अन्दर चली गयी।
मैं भी अखबार लेकर ड्राइंग रूम में बैठने आया
, तभी मेरी निगाह मेज पर रखे
कागज़ के टुकड़े पर पड़ी। उसे खोल कर देखा तो ५०० के दो नोट उसमे रखे थे और एक पंक्ति
लिखी हुई थी ” बच्चों के लिए कुछ खरीद देना।”

मेरी आँखों में आंसू आ गए, मैंने
अख़बार को थोड़ा ऊपर उठा लिया। धीरे धीरे अँधेरा बढ़ने लगा था।
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परिचय-

विनय कुमार सिंह

वर्तमान में बैंक ऑफ़ इंडिया, जोहानसबर्ग, दक्षिण
अफ्रीका में कार्यरत

             
लेखक

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2 thoughts on “मन का अँधेरा”

  1. बहुत मार्मिक कहानी…आज के भौतिकता वादी युग मे रिश्तो की गर्माहट कहीं खो सी गई है

    Reply
  2. आदरणीय विनय जी—बहुत ही मर्मस्पर्शी कहानी है | बढ़ती शिक्षा और उन्छा आर्थिक स्तर स्नेह के बीच बहुत बड़ी बढ़ा पैदा क्र देता है | ज्यादा ऊँचाई पर जाकर शायद इन्सान को नीचे का दिखना बंद हो जाता है | शहर में रहते गाँव वालों के प्रति ऐसी सोच के लोग बहुत देखे मैंने | पर गाँव वालों के स्नेहासिक्त संस्कारों से बखूबी वाकिफ हूँ इस लिए ये कथा मुझे अंदर तक भिगो गयी | सादर मेरी शुभकामना —

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