मनीषा जैन की कवितायें आम बात कहती हुई भी खास हो जाती हैं क्योंकि वो हर संवेदना की गहराई तक जा कर वो निकाल लाती हैं जो सतह पर तैरते कवि अक्सर देख ही नहीं पाते| शायद यही कारण है कि मनीषा जी की कवितायें बहुत पसंद करी जा रही हैं | आज हम आपके लिए लायें हैं मनीषा जी की कुछ चुनिन्दा कवितायें …
मनीषा जैन की नौ कवितायें
1.
मैनें देखा
रात के अंधेरे में
मैनें देखा सड़क पर
मिट्टी बिछाती स्त्री
मैनें देखा उसे
सड़क बनाते
दिल्ली की सड़कों पर
नवजात दुधमुंहे बच्चे को
लिटा कर टोकरे के भीतर
फिर फिर तोड़ती रही मिट्टी के ढ़ेले
एक शिकन तक नही उसके मुख पर
मैनें देखा उसे सड़कों पर अकेले।
2.
भूखा बच्चा
चाँद को देख
भूखा बच्चा बोल पड़ा
कब आओगे रोटी बनकर
चांद से देखी न गई
बच्चे की भूख
वह दूध बनकर
मां के स्तनों से
अमृत सा बह निकला
फिर भी कई चांद से सरे आसमां
एक भी भूख मिटाने के काबिल न था
बहुत से रंग थे जीवन में उसके
एक भी तो उसकी भूख मिटाने के काबिल न था।
करवटें मौसम की – कुछ लघु कवितायें
3.
सिर्फ देह
एक दिन सिर्फ देह होने से
मना करने पर उसने माना
स्त्री की देह मानो कूड़ाघर
उठा कर अंगुली एक
सुना दिया फ़रमान
मैं डरी सहमी सी
दे ही न सकी कोई जबाब
तुम्हारे प्रश्नों में कहीं कोई शर्म लिहाज भी नहीं थी।
4.
रगो में लहू
पिता आप उस दिन
देख रहे थे मेरी ओर
बुझती सांझ की तरह
मेरी आंखों में भर रही थी
तुम्हारी आंखों की सतरंगी रोशनी
पिता उस दिन जब हाथ तुम्हारे
उठ रहे थे मेरी तरफ कुछ कहने
वो शाख में उगती पत्तियों की तरह
दे रहे थे अटूट विश्वास मेरी बाहों को
पिता उस दिन तुम्हारे वो कदम
जो जा रहे थे मृत्यु की ओर
मेरे पैरों में भर रहे थे गति
मेरे जीवन में आ रही थी सुबह
पिता मैं कहां भूल पाउंगा
तुम्हारा देना
जो अदृश्य हो कर दिया तुमने
जो बहता है आज भी मेरी रगो में लहू बनकर
क्या मैं अपने बेटे को दे पाउंगा ये सब कुछ।
5.
साल के अंत में
साल के नए दिन
वह स्त्री
धो रही है बर्तन
बुहार रही है फर्श
इस साल होली पर
वह स्त्री
रसोई में खेल रही है
मसालों से होली
बना रही है रंगबिरंगी सब्जियां
गूंथ रही है परात भर चून
थपक रही है सैंकड़ो पूरियां
पकायेगी उन्हें
पसीने के घी में
सूरज की कढ़ाही में
इस वर्ष तीज पर
वह स्त्री
ढ़ो रही है गारा, मिट्टी, ईंट
घिस रही है एड़ियां
सजा रही है जीवन की महावर
अपने पैरो पर
चमका रही है
जीवन के आईने में अपना चेहरा
इस वर्ष राखी पर
वह स्त्री
बांध रही है पेड़ को राखी
नाप रही है संघर्ष की लम्बाई
इस वर्ष दिवाली पर
उस स्त्री का घर
बह गया बाढ़ में
बैठी है सड़क मुहाने पर
कैसे जला पायेगी घर में दिया
साल के अंत में
वह स्त्री
पूछ रही है माचिस का पता।
अंतर -अभिव्यक्ति का या भावनाओं का
6.
अपने बाल बांध लो
द्रोपदी ने जब पूछा था प्रश्न
भरी सभा में
जुए में हारे हुए व्यक्ति को
मुझे दाव पर लगाने का क्या हक है ?
तब पूरे सभागार में मौन पसर गया था ना
तब कृष्ण ने उठाया था बीड़ा
द्रोपदी की लाज बचाने का
तो इसलिए ओ मेरी संघर्षरत बहनों
देखो अभी हारना मत
चाहे वो तुम्हें घसीटें
चांटे मारे या कि मुक्के
या धक्का ही दे दे
कभी कभी बातों से घायल करें
लेकिन अभी घुटनों के बल मत बैठना
देखो अभी अभी खोंसी है मैनें
जीवन की कुछ इच्छायें
अपने ब्लाउज के भीतर
बिलकुल अभी अभी अपनी
पूरी न होती आंकाक्षाओं को चढ़ाया है मैनें पानी
जैसे सूरज को चढ़ाते है जल
बिलकुल अभी अभी पिया है मैनें
तोहमत का जल
कब तक कहेंगे हम उनसे ?
हमें स्वीकार कर लो
हमें स्वीकार कर लो
कब तक आचमन करेगें
बासी पड़े पूजा के फूलों का
अब कोई कृष्ण नहीं आयेगा
द्रोपदी, तुम्हें बचाने के लिए
उठो, अपने बाल बांध लो
अकेले जीने के लिए तैयार रहो
क्यों कि वो तुम्हें अपने रंग में नहीं मिलायेगें
तुम स्वयं अपनी धोती को इतना लम्बा कर लो
कि किसी कृष्ण की जरूरत ही न पड़े।
7.
गहरी नींद में सो सकूं
यही तो है जीवन उसका
वह फटे पुराने वस्त्र पहने
छुपाता है शरीर
निकलता है हर रोज काम पर
सूखी रोटी खा कर
हाथ में खुरपी
हाथ में करणी
या हाथ में रंग रोगन का डिब्बा
और ब्रश लिए
सारे दिन जुता रहता है
एक बैल की तरह काम पर
मैं देख देख कर उसके काम को
हैरान हूं उसके श्रम पर
यही तो है असली जीवन
स्ंाघर्ष से भरा
जाड़े की ठिठुरती रात में
वह दो रोटी खा सो रहेगा
खोड़ी खाट पर ही
और गहरी नींद उसे ले लेगी
जल्द ही अपने आगोश में
और हमें मुलायम बिस्तर पर भी
नींद नहीं आती
पलक भी नहीं झपकती
पता नहीं कैसा संघर्ष है ये हमारा
अगले जन्म में हमें भी दिहाड़ी मजदूर बनाना
जिससे गहरी नींद में तो सो सकूं।
8.
नियत तोड़े है मैंने
वजु करने को रखे पानी से
मैंने धो ली हैं
अपने दिल में धंसी
कांच की किरचें और अपमान में जलती आंखें
अजान की आवाज पर
अब मैं सिर नहीं ढ़कता
अब पांचों वक्त की नमाज का नियम भी
तोड़ दिया है मैनें
क्या मैं अब इंसान नहीं रहा
या कि अभी इंसानियत नहीं छोड़ी है मैनें।
9.
अनार के फूल
सड़क से गुजरते हुए
अपलक देख रही हूं
निमार्णाधीन मकान के बाहर
उन मजूर स्त्रियों के मुख पर
श्रम के पसीने की बूदें
झिलमिलाती हुई
सतरंगी इन्द्रधनुष के रंग भी
फीके हो गए थे उस वक्त
जब मिटटी् भरा तसला उठाती हुई
करती हैं बीच-बीच में
एक दूसरे से
चुहल, हंसी मज़ाक
तब सारे फूलों के
रंग उतर आए थे
गालों पर उनके
लगता था जैसे
वे दुनिया की सबसे
खूबसूरत औरतें हैं
और अनार के फूलों सी हंसी
दबा लेती हैं होठों में अपने।
परिचयः-
मनीषा जैन
जन्म- 24 सितम्बर 1963 मेरठ
शिक्षा- बी. ए दिल्ली विश्वविद्यालय, एम. ए हिन्दी साहित्य
प्रकाशन- एक काव्य संग्रह ‘रोज गंूथती हूं पहाड़’ प्रकाशित।
कविताओं का प्रकाशन- नया पथ, अलाव, वर्तमान साहित्य, मुक्तिबोध, कृति ओर, साहित्य भारती, जनसत्ता, अभिनव इमरा़ेज, रचनाक्रम, बयान, आकंठ, विपाशा, परिकथा, कर्नाटक हिन्दी अकादमी की पत्रिका ‘भाषा स्पंदन’ आदि में कविताएं प्रकाशित। कुछ बाल कविताएं भी प्रकाशित।
कविता कोश में कविताएं संकलित।
कुछ पत्रिकाओं में रेखाचित्र प्रकाशित
आलेख- साहित्यकार नागार्जुन पर अलाव पत्रिका में
गीतकार नईम पर अलाव पत्रिका में
अज्ञेय और शमशेर पर -साहित्य भारती लखनऊ
मीरा- युद्धरत आम आदमी
लोकधर्मी कविता- कृति ओर जयपुर
-कवि विजेन्द्र केन्द्रित पुस्तक ‘बूंद तुम ठहरी रहो’ में काव्य संग्रह ‘‘आंच में तपा कुंदन’’ पर
-एकान्त श्रीवास्तव के काव्य संग्रह ‘धरती अधखिला फूल है’ का समीक्षात्मक आलेख पत्रिका अनभै सांचा से शीघ्र प्रकाश्य।
समीक्षायें- डा. सुनीता जैन- ओक भर जल- साहित्य भारती लखनऊ
डा0 सुनीता जैन- टेशन सारे- अभिनव इमरोज दिल्ली
डा0 जितेन्द्र श्रीवास्तव- बिलकुल तुम्हारी तरह- नई दुनिया
डा0 जितेन्द्र श्रीवास्तव- कायातरंण- चैराहा पत्रिका
आनंद स्वरूप श्रीवास्तव – नीम की दुनिया में हम-अलाव
आदि काव्य संग्रहों की समीक्षायें प्रकाशित।
कुछ कविताएं ब्लागो पर भी प्रकाशित।
यह भी पढ़ें ….
आपको “मनीषा जैन की कवितायें “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें
बहुत सुंदर यथार्थ कविताएँ।