बेटा हो या बेटी, माता -पिता की संतान के रूप में दोनों ही प्यारी होती हैं| होनी भी चाहिए| लेकिन प्यार और सम्मान में अंतर है| हमारे समाज में मान्यता रही है कि बेटे मनौती का फल है है और बेटियाँ कोख में आई अनचाहा मेहमान | बेटे गेंहूँ की फसल है जिन्हें खाद पानी की जरूरत है तो बेटियाँ खर- पतवार , जिन्हें काट कर फेंक देना है|
स्त्री विमर्श की नीव में वो पितृसत्ता की भावना है जो बेटी जन्म लेने का अधिकार भी नहीं देना चाहती , शिक्षा और भोजन की बात कौन कहे? बेटी को पराया धन माना जाता हो , वंश चलाने की बात हो या विदेशी आक्रांताओं से बचाने के लिए स्त्री को उसके अपने ही घर में अधिकारों से वंचित करने की परंपरा बनी|
जानिये “मुझे अपनी बेटी पर गर्व है “अभियान बेटों के विरुद्ध नहीं
दुखद सत्य ये है की ये लिंग भेद विकसित देशों में भी रहा है | ब्रिटिश महिलाओं ने भी लम्बे समय तक वोट देने के अधिकार के लिए संघर्ष किया है , उन्हें तो नागरिक होने का दर्जा भिप्राप्त नहीं था | विकसित देशों में भी ऐसे अभियान चले हैं| और उन्होंने महिलाओं का रास्ता सुगम किया है| भारत में भी बेटियों को कोख में मार देने , बेटा -बेटी में भेद भाव करने , बहुओं को जला देने के खिलाफ अनेक अभियान चलाये जाते रहे हैं| बेटी बचाओ, बेटी पढाओ अभियान भी इन्हीं में शामिल है| अभी हाल में ऐसा ही एक अभियान सोशल मीडिया पर चला ” मुझे अपनी बेटी पर गर्व है” जिसमें माता -पिता ने अपनी बेटी के साथ अपने फोटो शेयर किये| अभियान का उद्देश्य था कि बेटियाँ , बेटों से कमतर नहीं हैं उन पर भी गर्व करिए | ये अभियान समाज को एक सार्थक सन्देश देने के लिए था |
परन्तु बेटियों के पक्ष में चलाये जा रहे आंदोलन की मूल भावना को समझे बिना उसके खिलाफ ये कह कर विरोध करना शुरू कर दिया कि हमें अपने बेटों पर गर्व क्यों न हो ? उनका कहना था बेटा हो या बेटी जब हमारे हाथ में है ही नहीं तो हम अपने बेटों पर गर्व करेंगे | अब लोगों ने अपने बेटों के साथ फोटो डालने शुरू कर दिए | एक तरह से प्रतिस्पर्द्धा सी शुरू हो गयी | और निजी भावना से ऊपर समाज को एक सार्थक सन्देश देता अभियान कमजोर पड़ने लगा |
बहुत
समय पहले अमेरिका में रंग भेद नीति जोरो पर थी| अश्वेत लोगों की हत्याएं आम बात
थी| तब
वहां एक आन्दोलन चला था ,” अश्वेतों की जिंदगी महत्वपूर्ण है ” | जाहिर है बात – बेबात
पर पुलिस की गोली या जनता द्वारा अश्वेतों के मारे जाने के विरोध में था | जो कट्टर श्वेत थे
उन्हें ये बात बहुत बुरी लगी वो तुरंत बोलने लगे कि ये नारा तो गलत है , इसकी जगह ये नारा होना
चाहिए था ” हर जिंदगी महत्वपूर्ण है ” | हालाँकि इन आंदोलनों की
वजह से ही अश्वेतों को अमेरिका में सम्मान हासिल हुआ |
यहाँ लोगों को समझना होगा की की हम सब को अपने बेटों पर गर्व है , और बिलकुल होना चाहिए |पर यकीन मानिए ये आन्दोलन हमारे-आपके बेटों के खिलाफ है ही नहीं |
बेटी को मान दिलाने को न समझें बेटों का अपमान
सामाजिक सच्चाई है कि बेटों पर सदा से गर्व होता रहा है , ये
माना जाता रहा है कि बेटों से वंश चलता है | उनके बेहतर खान-पान , शिक्षा
की व्यवस्था होती रही है | शादीके बाद भी वही घर के मुखिया भी बनते हैं |
पर क्या ऐसा बेटियों के साथ होता
रहा है ?
हम आप इस सच्चाई से अनभिज्ञ हैं |
ये होता रहा है कि बेटों को
घी दूध खिलाओ, उन्हें कमाना है और बेटियों को दाल-
भात उन्हें दूसरे के घर जाना है|
बेटियों की शिक्षा छुड़ाई
जाती रही है क्योंकि माना जाता है उनकी पढाई में पैसे क्यों खर्च करें , उन्हें
तो दहेज़ देना है |
जल्दी शादी करो, बोझ
उतरे , गंगा नहायें|
…
आज
भी थालियाँ बेटों के जन्म पर ही बजती हैं बेटियों की नहीं |
गर्भ
में बेटियाँ ही मारी जाती है, बेटे नहीं |
बड़े शहरों की बात छोड़ दें तो आज भी बेटा -बेटी में खाने -पीने और शिक्षा , सुविधा आदि के नाम पर भेदभाव जारी है |
बेटी
पैदा करने पर ही माँ ताने सुनने व् सामाजिक अपमान की शिकार होती है , जैसे
उसने कोई अपराध किया हो|
आज
भी दहेज़ और उसके ताने हैं|
यहाँ
बात इक्का -दुक्का अपवाद की नहीं हो रही है |
“मुझे अपनी बेटी पर गर्व है”
सच है कि आज समाज बदल रहा है , पर क्या ये अपने आप हुआ है
या इन आन्दोलनों का असर है | ये आन्दोलन समाज में कमजोर को
सम्मान दिलाने के लिए होते हैं |
अपने बेटों पर गर्व है , पर बेटियों के साथ खड़े होने का अर्थ
बस इतना है कि उन्हें भी समान समझा जाए |
आइये समाज परिवर्तन के इस अभियान में शामिल हो कर कहें हमें अपनी और अपने देश की बेटियों पर गर्व है |
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