हमारा देश उत्सवों का देश है। इसी कारण पूरे वर्ष भर किसी न किसी उत्सव- त्योहार को मनाने का अनुपम प्रवाह चलता रहता है। हर माह, हर ऋतु किसी न किसी त्योहार के आने का संदेसा लेकर आती है और आए भी क्यों न, हमारे ये त्योहार हमें जीवंत बनाते हैं, ऊर्जा का संचार करते हैं, उदास मनों में आशा जागृत करते हैं, अकेलेपन के बोझ को थोड़ी देर के लिए ही सही, कम करके साथ के सलोने अहसास से परिपूर्ण करते हैं। यह उत्सवधर्मिता ही तो है जो हमारे देश को अन्य की तुलना में एक अलग पहचान, अस्मिता प्रदान करती है।
व्रत -अनुष्ठान भी त्यौहार समान
हमारे यहाँ तो व्रत भी किसी त्योहार से काम नहीं होते। उनके लिए सुबह से तैयारी करना, घर की साफ़-सफ़ाई, व्रत के अनुसार व्यंजनों को बनाने की तैयारी, फिर सबका साथ मिल कर पूजा करना, प्रसाद ग्रहण कर भोजन करना… क्या किसी त्योहार से काम है? संकट चौथ, पूर्णमासी, महाशिवरात्रि, अप्रैल और अक्टूबर में आने वाले नवरात्र, कृष्णजनमाष्टमी, अहोई अष्टमी, करवाचौथ, होली एक दिन पूर्व का व्रत, बड़मावस आदि कई व्रत हैं… जो करने पर त्योहार से कम नहीं लगते।
होली, रक्षाबंधन, दिवाली, भैयादूज… इनकी रौनक़ तो देखते ही बनती थी। इनको मनाने के पुराने स्वरूप पर विचार करें तो त्योहारों की तैयारी कई दिनों पहले से ही हो जाती थी। गुझिया , मठरी, नमकपारे, मीठे पारे आदि बनाने के लिए सब मिल कर एक- एक दिन एक घर में जाकर बनवाते थे। रक्षाबंधन में सिवईं (हाथ से बनाए हुओं को जवें कहते हैं) भी इसी तरह सब मिल कर बनवाते थे। सुविधाओं की कमी थी, पर आपसी खुलापन, मेल-मिलाप अधिक था तो सब काम इसी तरह किए जाते। एक का मेहमान सबका होता, बेटियाँ सबकी होती, मायके आती तो सब मिलने आते, सब कुछ कुछ न कुछ उसे अवश्य देते। यह उस समय की आवश्यकता भी थी। आज वो आत्मीयता भरा समय याद तो बहुत आता है, उस आत्मीयता की कमी भी अनुभव होती है
बदलने लगा है त्योहारों का स्वरुप
पर अब समय बदल गया है। परिस्थितियाँ बदल गई हैं, आर्थिक स्थिति भी सबकी अच्छी ही नहीं, काफ़ी अच्छी है, सुविधाएँ भी सभी के पास हैं… तो रहन-सहन भी बदला है, तौर-तरीक़े भी बदले हैं, महत्वाकांक्षाओं के चलते सब काम कर रहे हैं, दिन-रात भाग रहें हैं, समय की कमी है। तकनीकी विकास ने भी हमें आती व्यस्त बनाया है। तो जब सब कुछ बदल रहा है तो त्योहारों को मनाने का पुराना स्वरूप भी बदलेगा ही। इसे हमें स्वीकार भी करना चाहिए।
टी वी और फ़िल्मों ने हमारे त्योहारों को बहुत ग्लैमरस रूप दे दिया है। कुछ-कुछ उसी तरह नई पीढ़ी उन्हें मनाने की कोशिश भी करती दिखाई देती है। इसका एक सकारात्मक पक्ष जो मुझे दिखता है वो ये कि काम से काम इस भागती-दौड़ती व्यस्त ज़िंदगी में वे अपने त्योहारों से परिचित तो हो रहें हैं। हम पुराने स्वरूप को याद तो अवश्य करें, कुछ पुराना साथ लेकर चलें और कुछ नया स्वरूप अपनाएँ…ये आज की बहुत बड़ी आवश्यकता भी है क्योंकि आज की पीढ़ी को अपने मूल्यों, संस्कारों, रीति-रिवाजों से परिचित भी तो करवाना है जो उनके साथ मिलकर चलने से ही ही संभव होगा।
पहले जन्मदिन पर हलवा बना कर, भगवान को भोग लगाने के बाद खिलाने-बाँटने का रिवाज था, अब उसकी जगह केक ने ले ली।तो क्या हुआ… सुबह हलवा बना कर पहले की तरह अपनी उस परंपरा को भी जी लें और बच्चों की ख़ुशी भी जी लें उनके साथ।
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पहले दीवाली पर मिठाई बाँटने का चलन था, तब घर की स्त्रियाँ घर में ही रहती थीं, उनके पास बनाने -करने का अधिक समय होता था। आज महिलाएँ बाहर काम करती हैं, समय काम होता है, फिर आज ड्राई फ़्रूट्स और मिठाई के डिब्बों का चलन हो गया है तो क्या किया जाए? हमारे अपने मोहल्ले में ही मैंने देखा कि दीवाली की पूजा करते ही लोग प्लेट्स लेकर निकल पड़ते, जिसके घर जाते वो उसी समय प्लेट की बस मिठाई बदल कर उसी खील- बताशे के साथ वापस दे देता। लोगों को ये बुरा लगता, मुझे भी लगता। पर मैं तो थाली रख लेती और अगले दिन देने जाती। तब लोगों ने ये देने का चलन ही समाप्त कर दिया। अब किसी के घर में कोई मृत्यु हो जाती है तो उसके घर में त्योहार न होने की स्थिति में मिठाई देने जाते हैं बस।
इसी तरह अब होली, दिवाली, करवाचौथ, तीज संस्थाओं के माध्यम से, किटी पार्टी में मिल कर लोग मनाने लगे हैं।इस बदलते स्वरूप में भी त्योहार आकर्षित तो करते ही हैं। अपनी परंपराओं, जड़ों से जुड़ाव को भी नई पीढ़ी को बताने के लिए उन्हें भी अपने साथ जोड़े और उनके साथ जुड़ें भी। नए और पुराने का सामंजस्य ही तो सुंदरता को बढ़ाता है।
परिवर्तन को खुले दिल से स्वीकार करें
परिवर्तन शाश्वत है। प्रकृति के उसी नियमके अनुसार सभी त्योहारों में भी परिवर्तन आया है। इस बदले हुए रूप में भी त्योहार आकर्षित तो करते ही हैं,आनंद और उल्लास भी मन को प्रसन्नता देते हैं। फ़िट रहने की प्रतिबद्धता में गुलगुले, मठरी, पूरी,हलवा आदि शगुन के रूप में ही बनते और कम ही खाए जाते हैं। शारीरिक श्रम कम होने के चलते यह प्रतिबद्धता भी आवश्यक लगती है।
पहले फ़ोटो का इतना चलन नहीं था। फ़ोटोग्राफ़रों के यहाँ विचार बना कर जाते और एक- दो फ़ोटो खिंचवा कर आ जाते थे और यह भी बहुत महँगा सौदा लगता था। आज मोबाइल के कैमरों ने फ़ोटो खिंचना इतना सरल बना दिया है कि हम जीवन के मूल्यवान क्षणों को आसानी से सहेज कर रख सकते हैं। फ़ेसबुक पर लिख कर जब साथ में हम फ़ोटो भी पोस्ट करते हैं, व्हाट्सअप पर अपने मित्रों से शेयर करते हैं तो भी बहुत प्रसन्नता होती है।
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इस बदले हुए रूप में भी हमारे इन त्योहारों की अस्मिता बनी हुई है और बच्चे प्रयत्न करके जब किसी भी त्योहार पर आते हैं तो उस समय प्रसन्नता के रंग और गहरे हो जाते हैं। यही हमारे इन त्योहारों की सार्थकता है।
अपने त्योहारों के बदलते हुए स्वरूप को पुराने स्वरूप के साथ मिला कर नया रूप देकर अपनायेंगे तो जीवन में ख़ुशियों के रंग प्रेम के साथ और गहरे होते जाएँगे।
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डा०भारती वर्मा बौड़ाई
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नए के साथ पुराना मिला कर चलने का मजा ही कुछ और हैं। बहुत सुंदर प्रस्तुति।
धन्यवाद ज्योति जी
Bahut bdhiya h