अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष
मैं
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अपने
पराये रिश्तों में
इतना विष मिला
पीकर नीलकंठ
हो गई मैं
अब
विष भी
अमृत सा लगता हैं
नहीं लगता
अब कुछ बुरा
अच्छे-बुरे की
सीमाओं से
ऊपर उठ गई हूँ मैं
बहुत कुछ है
इस संसार में
जो अभी तक
देखा नहीं
जो अभी तक
किया नहीं
हरी मखमली दूब पर
लेट कर
दिन में सूरज से
आँख मिला कर
तो रात में
चाँद की
चाँदनी में नहा कर
उलझाना है उन्हें
नदी के संग
नदी बन कर
बहते जाना है मुझे
हवा के संग
दूर -दूर तक की
यात्राएँ करनी है मुझे
तितलियों के संग उड़ना
जुगनुओं के संग
गाहे-बगाहे
चमकना है मुझे
जिन गौरैयों को
पापा के संग मिल
क्षण भर के लिए भी
पकड़ा था उन्हें
मनाना है मुझे
श्यामा और सुंदरी
मेरी जिन गायों ने
दूध देकर दोस्ती का
रिश्ता निभाया था मुझसे
कहाँ हैं वे अब
उन्हें ढूँढना है मुझे
और वो जूली बिल्ली
जिसे थैले में रख
घंटाघर छोड़ कर
आए थे हम
क्योंकि अपने ही
बच्चों को काटने लगी थी वो
कहाँ होगी वो
और उसकी बेटी स्वीटी
सोचती हूँ
उन्हें भी तो ढूँढ कर
कुछ समझाना-दुलराना होगा
और वो मिट्ठू
जो एक दिन
भूल से बरामदे में
रह गया था
उसी दिन किसी
दूसरी बिल्ली ने पंजे मार
घायल कर डाला था उसे
कि फिर वो जी ही नहीं पाया था
उसके दुःख में माँ ने
तीन दिन तक खाना ही नहीं
खाया था
कहाँ होगा वो
किस रूप में फिर
जन्मा होगा वो
ये भी तो पता लगाना है
कितने ही काम हैं ऐसे
जो करने है मुझे
तो भला कैसे मैं
उलझी रह सकती हूँ मैं इसमें
कि किसने मुझे
कब, क्या कह कर
दुखी किया
मैं सही हूँ या गलत
यह सिर्फ और सिर्फ
मैं जानती हूँ
किस राह चलना है ये भी
मैं जानती हूँ
क्या करना है मुझे
ये भी मैं ही जानती हूँ
तो जिन रिश्तों ने दर्द दिया
उन्हें वैसा ही छोड़
अपने लक्ष्य के लिए
आगे बढ़ना भी मैं ही
जानती हूँ, इसलिए चल पड़ी हूँ
अब नहीं रुकूँगी मैं
पीछे मुड़ कर
देखूँगी नहीं मैं।
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२—स्त्री—१
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स्त्री
माँ बहन बेटी
भाभी चाची मौसी
नानी दादी किसी भी
रूप में हो
वह एक स्त्री है
इससे ज़्यादा और कुछ नहीं
दूसरों के लिए
स्त्री
पूछना चाहती है
बहुत कुछ
ग़ुस्से में
घर के अंदर या बाहर
तेज़ आवाज़ में
बोलता पुरुष सही
और घर के अंदर भी
बोलती हुई स्त्री
ग़लत क्यों?
शराब के नशे में
सिर से पाँव तक डूबे
गालियाँ देते
मारते-पीटते
पुरुष को सहती
विज्ञान द्वारा
प्रमाणित होने पर भी
बेटा न उत्पन्न कर पाने का ठीकरा
उसी के माथे पर
क्यों फोड़ दिया जाता है
ज़िम्मेदार पुरुष
अपने पुरुषत्व को सहेजते
सबके सामने मूँछों पर ताव देते
पुरुष को
स्वयं योग्य होते हुए भी
विवश हो
उसे स्वीकारती,
सफलता की ओर बढ़ती स्त्री
‘चालू है’ की सोच रखते पुरुष
और यहाँ तक की
स्त्री की भी
मानसिकता से लड़ती
घर में
चकरघिन्नी सी घूमती
अपने को भूल
घर, सारे रिश्ते सहेजती- समेटती
कुछ क्षण
अपने को महसूस करती स्त्री
असहनीय क्यों होती है?
ऐसे कितने ही प्रश्न
उमड़ते हैं उसके अंदर
वह जानती है
अगर वह पूछेगी तो
प्रताड़ना के सिवा
कुछ नहीं पाएगी
इसी से खुली आँखों में
उन्हें लिए
स्वयं से पूछती है प्रश्न
सही होते हुए भी
ग़लत क्यों है वह
ग़लत नहीं तो
सहती क्यों है वह
सहती है तो
दुखी क्यों होती है वह
यह सब सोचती
खड़ी क्यों है वह
जब रहते हैं
अनुत्तरित प्रश्न
उन्हें सहेज कर
आँखों में
कर लेती है
पलकें बंद
और चलती रहती है उसकी
अनवरत यात्रा इसी तरह
मैं कहना चाहती हूँ
हर स्त्री से
रुको वहीं
जहाँ तुम्हें रुकना हो
मौन रहो वहीं
जहाँ तुम्हें मौन रहना हो
मन की सुनो
यदि पथ है सही
लक्ष्य स्वयं गढ़ो
अपनी राह पर आगे
बेधड़क बढ़ो।
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३—स्त्री-२
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सारे
रिश्तों से लदी
उन्हें अपने में समेटे
घर की मालकिन
होने के बोझ से
दबी सी
भरे-पूरे घर में भी
अकेली होती है स्त्री
लिखती है
रेशम के धागों से
भविष्य का महाकाव्य
निबटा कर
घर के काम-काज
ऊन और सलाइयाँ लिए
बैठती है धूप में
बुनती है वर्तमान के
सुंदर डिज़ाइन
रसोई में
मसालों की सुगंध में
रची-बसी
रचती है रोज
एक नई कविता
जीवन की
अपने नए
सपनों के साथ।
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४—सुनो
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सुख
मिले तो
उसे जीने को
शामिल करो सबको
पर दुःख में
बहते आँसुओं को
थामने-पोंछने
अपना हाथ
अपना रुमाल
स्वयं बनो
पर
इत्तनी भी
उन्मुक्त
दर्पयुक्त न बनो
कि अपनों,
आस-पास गुजरने वालों की
पदचाप सुन कर
उन्हें पहचान ही न सको
अस्तित्व
बराबरी की
प्रतियोगिता से संपृक्त हो
बाज़ारवाद की
चपेट से बचते हुए सोचो
तुम अर्थ हो
घर-संसार का
सफलता में कहीं
तुम पीछे हो किसी के
तो कहीं
कोई पीछे है तुम्हारे
सबके साथ
मिल कर लिखती हो
जीवन के अध्याय
तो फिर
अपने लिए
किसी एक दिवस की
आवश्यकता क्यों अनुभव करें
हर दिवस तुम्हारा
हम सबका है
वो जो
लोहे के बंद दरवाज़े है
उन्हें खोल कर
लिखो नई इबारत
जो कल
नया इतिहास रचेंगी
अपने
रंगों को समेट
उठो, चलो, दौड़ो मिल कर
देखो……
दूर-दूर तक
सारा आकाश तुम्हारा है
सारा आकाश हमारा है।
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डा० भारती वर्मा बौड़ाई
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