लफ्जों को समझदारी में लपेट कर निगल जाती हूँ
जाने कितनी सारी बातें मैं कहते कहते रह जाती हूँ ।
और तुम ये समझते हो ,मै कुछ समझ नही पाती हूँ
है प्यार तुमको जितना मुझसे , मै समझ जाती हँ ।
बड़ी मुश्किल से मुहाने पर रोकती हूँ …बेचैनी को
और इस तरह अपना सब्र….मै रोज़ आजमाती हूँ ।
आरजू हो , किसी मन्नत के मुरादो में मिले हो तुम
सलामत रहों सदा…. दुआ मैं दिन भर गुनगुनाती हूँ ।
चाहे तुम रहो जहां कहीं ….तुम मुझसे दूर नही हो
आखें मैं बंद करू और अपने मन में तुम्हें पाती है ।
अब कहीं कहां मेरा…… कोई ठौर या ठिकाना
एक कड़ी हर रोज़ तुम्हारे और करीब आती हूँ ||
_________ साधना सिंह
गोरखपुर
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