मैं माँ की गुडिया , दादी की परी नहीं…बस एक खबर थी

मैं माँ की गुडिया , दादी की परी नहीं...बस एक  खबर थी

वो मेरा चौथा जन्मदिन था
माँ ने खुद अपने हाथों से सी कर दी थी
गुलाबी फ्रॉक
खूब घेर वाली
जिसमें टंके  हुए थे छोटे -छोटे मोती
माँ ने ही बाँध दिया था
बड़ा सा फीता मेरे बालों पर
और बोली थी मुस्कुरा कर
अब लग रही है बोलती सी गुडिया

तभी दादी ने बुलाया
खोंस दिया मेरे बालों पर गुलाब का फूल
खुशबू बिखेरता
फिर लेती हुई
बलैया
कहने लगी
अब लग रही है हूर

बुआ ने पहना दी थी
छम -छम करती  पायल
पांवों में
चूम कर मेरा माथा कहने लगी मुझे परी
पापा  ने किया था वादा
शाम को ढेर से खिलौने लाने का

मैं इठलाती सी चल पड़ी बाहर
सब दोस्तों को दिखाने
अपनी , पायल अपना फूल , और गुलाबी फ्रॉक
तभी नुक्कड़ की  दूकान वाले चाचा ने
चॉकलेट दिखाते बुलाया अपने पास
और मैं चली गयी दौड़ते -इठलाते
मेरा जन्मदिन जो था
कैसे इनकार करती चाचा के  तोहफे का

बड़ी चॉकलेट दिलाने की कह कर
चाचा ले चले मुझे अंगुली थाम कर
दूर … झाड़ियों के पीछे
और चाचा के निकल आये सींग
उफ़ कितना दर्द था
मैं चिल्लाती रही , पापा बचाओ , मम्मी बचाओ
कोई तो बचाओ
आ दर्द हो रहा है
लग रही है
कोई तो बचाओ

झाड़ियों से टकराकर मेरे आवाज़  आती रही वापस
टूट गए मेरी फ्रॉक के मोती
बिखर गयी गुलाब की पंखुड़ियां
टूटते रहे पायल के रौने मेरी हर चीख के साथ
मेरी गुलाबी फ्रॉक हो गयी लाल

हां वो मेरा चौथा  जन्मदिन था
जब मैं माँ की गुडिया नहीं , दादी की परी नहीं , बुआ की हूर नहीं
बस एक खबर थी …
एक दर्दनाक  खबर
जिसका  अस्तित्व
अगली दर्दनाक खबर आने तक था

मालिनी वर्मा

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1 thought on “मैं माँ की गुडिया , दादी की परी नहीं…बस एक खबर थी”

  1. मुझे लगता है कि इस रचना के अंतस में उफनाती वेदना की ऐसी गाढ़ी अनुभूति को बर्दाश्त करने के लिए भी अतिरिक्त शक्ति चाहिए.

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