एक पाती नेह भरी -बहुत याद आ रही हो माँ!


एक पाती नेह भरी -बहुत याद आ रही हो माँ!



आज तुम बहुत याद आ रही हो माँ! पर आज ही क्यों… तुम तो मुझे सदा ही इसी तरह याद आती हो। या यूँ कहूँ तुम मेरी यादों से कभी गई ही नहीं।आज न जाने क्यों मन में स्वयं से ही यह जानने की जिज्ञासा जगी है कि चौवन वर्ष के अपने और तुम्हारे इस अनमोल रिश्ते में मैंने तुमसे क्या-क्या पाया? 

एक पाती नेह भरी -बहुत याद आ रही हो माँ!

              जिस समय तुमने मुझे जन्म दिया उस समय तो बेटों की चाह बलवती रही होगी। तब अगर तुम मुझे जन्म न देती तो, मैं तो इस संसार में आती ही नहीं। इस रंग भरे संसार में मुझे लाकर तुमने मुझे सबसे पहला अनुपम उपहार दिया। इसका मूल्य और भी अधिक अच्छी तरह मैंने तब जाना, जब स्वयं अपनी बेटी को जन्म दिया। माँ बनने से बड़ा सुख कोई नहीं इस संसार में और माँ से बढ़कर प्यारा, निश्चल कोई दूसरा नहीं इस संसार में। पापा कहा करते थे कि इस संसार में सब कुछ दोबारा मिल सकता है पर अपने माँ-पिता दोबारा नहीं मिलते। सच ही तो कहते थे। सब कुछ है मेरे पास पर तुम और पापा नहीं हो। सिवाय यादों की पूँजी के मेरे पास और क्या है अब?
            तुम्हारी वो लोरियाँ आज भी मुझे सुनाई देती हैं। अब, जब मुझे घंटों नींद नहीं आती, आँखे बंद कर चुपचाप लेटी रहती हूँ तब-तब ऐसा लगता है जैसे तुम सिर पर हाथ फेरते हुए तो कभी थपकते हुए, धीमे-धीमे गुनगुना कर मुझे सुला रही हो।
          जब बीमार पड़ती तो तुम और पापा बेचैन रहते थे। मैं तुम दोनों को परेशान कर डालती थी।जब ठीक हो जाती तभी तुम दोनों चैन की साँस लेते थे। धीरे-धीरे माँ-बेटी होने के साथ-साथ हम कब सहेलियाँ बन गई…यह तो शायद हम दोनों को भी पता नहीं चला होगा। साथ बाजार जाना, खरीददारी करना, फ़िल्में देखना, टीवी देखना सब एक साथ होता। तुम्हें याद है… जब टीवी में कोई अच्छी फ़िल्म आने वाली होती थी तो हम जल्दी ही खाना बना लेते थे, ताकि आराम से फ़िल्म देख सकें। जब क्रिकेट मैच आता तो पापा के साथ टीवी के सामने जमे रहते। उन दिनों का जो आनंद था वो तो अब बीते दिनों की बात हो गई। मेरे विवाह के बाद भी इसमें व्यवधान नहीं आया। तुम और मैं अपने कामों की सूची बना कर जो रखते थे। जब मैं छुट्टियों में आती तब अपनी सूची देख-देख कर रोज इधर-उधर जाने में लगे रहते थे।
          मैं देखती हूँ आज आधुनिकता की दौड़ में उलझे लोगों के रिश्ते भी उलझ से गए हैं। अब सब अपने हमउम्रों में अधिक उठना-बैठना, घूमना-बात करना पसंद करते हैं। मैं तो ईश्वर का धन्यवाद करती हूँ कि हमने अपने जीवन के अपने सबसे प्यारे रिश्ते का स्वर्णिम काल एक-दूसरे को भरपूर प्यार-मान देते हुए सुंदर और मोहक रूप में जिया कि वो आज भी मेरी स्मृतियों में चंदन की तरह समा कर अपनी सुगंध से मुझे सुवासित करते हुए जीवन की संजीवनी प्रदान कर रहा है। एक बात बताऊँ तुम्हें…तुम्हारी शैतान, नटखट नातिन भी मेरे साथ जीवन के इस अनमोल रिश्ते का वही रूप जी रही है जो हमने जिया। तुम्हारा नाती भी अब अपनी सारी शैतानियाँ छोड़ कर बहुत समझदार हो गया है। बहुत छोटी उम्र में बड़े काम करने में लगा है और साथ तुम्हारे और पापा के जाने के बाद आए मेरे दुःख, खालीपन को अपने साथ से बाँटने-भरने का पूरा प्रयास करता है।
विवाह के बाद तुम्हारी नातिन भी वैसे ही भागते-दौड़ते हमसे मिलने, सुख-दुःख जानने आती है जैसे मैं तुम्हारे पास आया करती थी। बस चेहरे बदल गए हैं,पर चरित्र और परिस्थितियाँ वही हैं। तुम्हारे और पापा के स्थान पर मैं और तुम्हारे दामाद हैं और मेरी जगह तुम्हारे नाती-नातिन आ गए हैं। उनके आने पर मैं तुम्हारी तरह ही खुश होती हूँ और जाने के समय दुखी होकर पूछती हूँ….अब फिर कब मिलने आओगे?
            अचार डालना तो मैंने तुम्हारे जाने के बाद सीखा, पर मसालों का नपा-तुला डालने का अनुपात तो तब भी नहीं आया। गुझिया बनाना तो सीख ही नहीं पाई। स्पष्टवादिता का जो गुण तुमने मुझमें विकसित किया वो आज मेरे चरित्र की शान है। तुम्हारा मितव्ययिता का गुण मेरी सुचारू रूप से चलने वाली गृहस्थी का सुदृढ़ आधार है।

             स्मृतियों के नगर में भ्रमण करना भी तुम्हीं ने सिखाया। जब इस नगर के गलियारों में कहीं-कहीं रूकती हूँ तो पाती हूँ कि मैंने तुम पर जब-तब गुस्सा भी किया….जब तुम अपनी अच्छी और नई साड़ियों को स्वयं न पहन कर मुझे देने की बात करती थी, कहीं जाने के लिए पुरानी साड़ियों को ही पहन कर तैयार हो जाती थी, कोई अच्छी चीज बनाने पर खुद कम लेकर मेरी ही कटोरी में डालती जाती थी। तब बहुत गुस्सा आता… क्यों तुम अपने लिए नहीं सोचती, हम बच्चों के लिए ही सब लुटाने में क्यों लगी रहती हो। 
          बीमार होने पर जब तुम खा नहीं पाती थी तब भी मुझे गुस्सा आता था यह सोच कर कि बिना खाए कैसे तुम में शक्ति आएगी? जब खाओगी नहीं तो बीमारी से लड़ोगी कैसे?  उस समय तुम्हारी चिंता में कहाँ यह समझ आता था कि बीमार व्यक्ति चाह कर भी नहीं खा पाता। तब तो मृत्यु की ओर बढ़ती अपनी माँ के जीवन का एक पल भी किसी तरह बढ़ा सकूँ…इसी सोच में घुली जाती थी और अपना आपा खो बैठती थी। बाद में हम एक-दूसरे के गले लग कर आँसू बहाते और मनाते।
          आज मैं तुम्हारे गले लग कर वो सब कहना चाहती हूँ जो अनकहा रह गया। इसी कारण आज तुम बहुत याद आ रही हो माँ! इसके लिए तुम्हें मेरी माँ बन कर फिर से आना होगा। जो छूट गया करने, कहने, सुनने के लिए… उसे फिर से जीना होगा। और हाँ… यह बात तुम पापा को भी बता देना। यह बात उनके लिए भी है। वे तुम्हारी बात मानते हैं न। 
           तुम्हें और पापा को इतनी बेचैनी से याद कर रही हूँ न, तो देखो… कोई दरवाजा खटखटा रहा है और फोन भी आ रहा है। लगता है मिलने आ गई तुम्हारी नातिन और नाती का फोन!
             तो अब और बातें अगली नेह-पाती में।

           हैपी मदर्स डे माँ और पा!

                    तुम्हारी……
—————————————
डा० भारती वर्मा बौड़ाई
लेखिका
यह भी पढ़ें …

आपको  लेख  एक पाती नेह भरी -बहुत याद आ रही हो माँ! कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |   
filed under- , mothers day , memoirs , mother

Leave a Comment