एक पुराना बहुत प्रसिद्द गीत था , ” गुड़िया कब तक न हँसोगी.. आई रे आई रे हँसी आई, ये वो जमाना था जब हँसी बात बेबात पर होठों पर थिरक जाया करती थी | हँसी को रोकना मुश्किल होता था | जब लोगों के पास सुख -दुःख बाँटने का समय होता था | लोग खुल कर हँसते थे , पर उसके लिए उन्हें द्विअर्थी संवादों या कॉमेडी के नाम पर अश्लीलता परोसते टी वी शो कीजरूरत नहीं थी | सहज हास्य जीवन में बिखरा हुआ था | लोकगीतों में था | ननद -भाभी की छेड़ -छाड में था | पर हम विकास के नाम पर जिन चीजों का विनाश करते गए उनमें से एक थी सहज हँसी | बच्चों की मुस्कान से निर्मल व् कोमल | आदमी का कद जितना बड़ा हुआ उसकी हँसी उतनी ही कम होती गयी | जेठ की तपती दोपहर में एक ठेले वाला भले ही कुछ पल हँस लेता हो पर एक ऑफिस बड़ी पोस्ट पर काम करने वाला हँसना भूल चुका है |
एक बार ओशो ने कहा था , ” सच्ची हँसी ‘ध्यान’ की तरह है | जिस तरह से ध्यान में कोई विचार नहीं टिकता उसी तरह सहज हँसी में कोई अन्य विचार नहीं टिकता | वो हँसी जो आत्मा से आ रही हो , जिसमें एक -एक कोशिका हँसती हो , क्या हम वो बचपन की हँसी सहेज पाए हैं ?
कल विश्व हास्य दिवस था | घर के पास वाले पार्क में स्त्री और पुरुष दो अलग -अलग घेरों में बैठे हँसने की कोशिश कर रहे थे | 1, 2,3… और हाथ उठा के जोर से हाहा हा हा | इसमें एक लय थी जो साथ -साथ उठती , साथ साथ बंद हो जाती … इसे क्या कहा जा सकता है हँसने का अभिनय या हँसने का व्यायाम | जो भी हो यह हँसी तो बिलकुल नहीं थी | क्योंकि इसमें कोई हँसते -हँसते गिर नहीं रहा था , कोई पेट पकड कर नहीं कह रहा था , ” अब बस करो , पेट दर्द करने लगा , न ही किसी की आँखों से हँसते -हँसते आँसू टपक रहे थे | जैसे -जैसे सहज हास्य हमारे जीवन से दूर होता जा रहा है , निश्छल हँसी दुर्लभ होती जा रही है , अब हम बनावटी हँसी हँसते है | हँसी अंदर से किसी धारा की तरह नहीं फूट रही बस ऊपर ऊपर है तो अभिनय ही तो है कभी किसी का स्वागत करने को , कभी किसी को खुश करने को , कभी अपनत्व दिखाने को किया गया हँसने का अभिनय वास्तविक हँसी नहीं है |
ऐसे ही एक किस्सा याद आ रहा है , एक ऑफिस में बॉस रोज अपने कर्मचारियों को चुटकुले सुनाता था | सभी कर्मचारी पेट पकड़ कर हँसते थे | बॉस को लगा कि वो बहुत अच्छे चुटकुले बनाता है जिस कारण सब इतना हँसते हैं | एक दिन उसके चुटकुलों पर सब तो हँस रहे थे पर एक लड़की नहीं हँस रही थी | बॉस ने पूंछा , ” तुम क्यों नहीं हँस रही हो ?” लड़की ने उत्तर दिया , ” मैं इस महीने इस्तीफ़ा दे रही हूँ ,|” अब उसके हँसने का कोई मतलब नहीं था | बाकी सब को उसी नौकरी में रहना था इसलिए उन्हें उन चुटकुलों में हँसना था |
हँसी को दुर्लभ बनाने में पूरे समाज की भूमिका है | यहाँ न हँसों , वहाँ न हँसों , ऐसे न हँसों , वैसे न हँसों में हंसी सिमटती गयी , कैद होती गयी | फिर भी कभी कभी पारिवारिक समारोहों में उसे कैद से निकाल कर खुल कर खिलने की इजाज़त होती थी पर आज सोशल मीडिया के ज़माने में हँसी और दूर हो गयी | हम एक विचार पर टिक नहीं पाते | शोक यो या ख़ुशी बस इमोजी से व्यक्त कर आगे बढ़ जाते हैं | अगर थोडा बहुत हँसते भी हैं तो वही टीवी के फूहड़ हास्य पर जो हँसी की निर्मल धरा को जीवित करने के स्थान पर उसे प्रदूषित कर रहा है | हँसी के टॉनिक की कमी के कारण कई मानसिक , शारीरिक रोग उत्पन्न हुए तो हँसने के लाफ्टर क्लब खुल गए … जहाँ हँसी व्यायाम में बदल गयी |
विश्व हास्य दिवस मनाने के स्थान पर हमें उस हँसी की खोयी हुई प्रजाति को पुनर्जीवित करना होगा | समझना होगा सहज हास्य छोटी -छोटी खुशियों को पकड़ने में होता है | जीवन की रेस में आगे भागते हुए अगर सफलता हँसने की कीमत पर मिलती है तो यह कहना अतिश्योक्ति न होगी की हम बहुत कुछ खो कर थोडा सा पा रहे हैं |
तो आइये एक बार खिलखिला कर हँसे , जहाँ हँसना न कोई काम हो न व्यायाम बस वो हो … बिना किसी कारण के , बिना किसी विवशता के |
वंदना बाजपेयी
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वंदना जी, सचमुच आज सबसे ज्यादा दुर्लभ कोई चीज हो गई हैं तो वह हैं निश्चल हंसी। बहुत विचारणीय आलेख।
धन्यवाद ज्योति जी