ये दुनिया कितनी सुंदर है … नीला आकाश , हरी घास , रंग बिरंगे फूल , बड़े -बड़े पर्वत , कल -कल करी नदिया और अनंत महासागर | कितना कुछ है जिसके सौन्दर्य की हम प्रशंसा करते रहते हैं और जिसको देख कर हम आश्चर्यचकित होते रहते हैं | परन्तु कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनकी दुनिया अँधेरी है … जहाँ हर समय रात है | वो इस दुनिया को देख तो नहीं सकते पर समझना चाहे तो कैसे समझें क्योंकि काले अक्षरों को पढने के लिए भी रोशिनी का होना बहुत जरूरी है | दृष्टि हीनों की इस अँधेरी दुनिया में ज्ञान की क्रांति लाने वाले मसीहा लुईस ब्रेल स्वयं दृष्टि हीन थे | उन्होंने उस पीड़ा को समझा और दृष्टिहीनों के लिए एक लिपि बनायीं जिसे उनके नाम पर ब्रेल लिपि कहते हैं | आइये जानते हैं लुईस ब्रेल के बारे में …
ब्रेल लिपि के जनक लुई ब्रेल
लुईस ब्रेल का जन्म फ़्रांस केव एक छोटे से गाँव कुप्रे में ४ फरवरी सन १८०९ में हुआ था | उनके पिता साइमन रेले ब्रेल शाही घोड़ों के लिए जीन और काठी बनाने का कार्य करते थे | उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी | लुई ब्रेल की बचपन में आँखे बिलकुल ठीक थीं | नन्हें लुई पिता के साथ उनकी कार्यशाला में जाते और वहीँ खेलते | तीन साल के लुईस के खिलौने जीन सिलने वाला सूजा , हथौड़ा और कैंची होते | किसी भी बच्चे का उन चीजों के प्रति आकर्षण जिससे उसके पिता काम करते हो सहज ही है | एक दिन खेलते -खेलते एक सूजा लुई की आँख में घुस गया | उनकी आँखों में तेज दर्द होने लगा व् खून निकलने लगा |
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उनके पिता उन्हें घर ले आये | धन के आभाव व् चिकित्सालय से दूरी के कारण उन लोगों डॉक्टर को न दिखा कर घर पर ही औषधि का लेप कर के उनकी आँखों पर पट्टी बाँध दी | उन्होंने सोचा कि बच्चा छोटा है उसका घाव स्वयं ही भर जाएगा | परन्तु ऐसा हुआ नहीं | लुई की एक आँख की रोशिनी जा चुकी थी | दूसरी आँख की रोशिनी भी धीरे -धीरे कमजोर होती जा रही थी | फिर भी उनके घर वाले उन्हें धन के आभाव में चिकित्सालय ले कर नहीं गए | आठ साल की आयु में उनकी दूसरी आँख की रोशिनी भी चली गयी | नन्हें लुई की दुनिया में पूरी तरह से अँधेरा छा गया |
ब्रेल लिपि का आविष्कार
लुईस ब्रेल बहुत ही हिम्मती बालक थे | वो इस तरह अपनी शिक्षा को रोक कर परिस्थितियों के आगे हार मान कर नहीं बैठना चाहते थे | इसके लिए उन्हने पादरी बैलेंटाइन से संपर्क किया | उन्होंने प्रयास करके उनका दाखिला ” ब्लाइंड स्कूल ‘में करवा दिया | तब नेत्रहीनों को सारी शिक्षा बोल-बोल कर ही दी जाती थी | १० साल के लुई ने पढाई शुरू कर दी पर उनका जन्म कुछ ख़ास करने के लिए हुआ था | शायद भगवान् को जब किसी से बहुत कुछ कराना होता है तो उससे कुछ ऐसा छीन लेता है जो उसके बहुत प्रिय हो | नेत्रों को खोकर ही लुई के मन में अदम्य इच्छा उत्पन्न हुई कि कुछ ऐसा किया जाए कि नेत्रहीन भी पढ़ सकें | वो निरंतर इसी दिशा में सोचते | ऐसे में उन्हें पता चला कि सेना में सैनिको के लिए कूट लिपि का इस्तेमाल होता है | जिसमें सैनिक अँधेरे में शब्दों को टटोल कर पढ़ लेते हैं | इस लिपि का विकास कैप्टेन चार्ल्स बर्बर ने किया था | ये जानकार लुईस की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा , वो इसी पर तो काम कर रहे थे कि नेत्रहीन टटोल कर पढ़ सकें | वे कैप्टन से मिले उन्होंने अपने प्रयोग दिखाए | उनमें से कुछ कैप्टन ने सेना के लिए ले लिए | वो उनके साहस को देखकर आश्चर्यचकित थे क्योंकि उस समय लुईस की उम्र मात्र १६ साल थी |
मर कर भी नहीं मरा हौसला
लुइ ब्रेल पढने में बहुत होशियार थे | उन्होंने आठ वर्ष तक कठिन परिश्रम करके १८२९ में ६ पॉइंट वाली ब्रेल लिपि का विकास किया | इसी बीच उनकी नियुक्ति एक शिक्षक के रूपमें हुई | विद्यार्थियों के बीच लोकप्रिय ब्रेल की ब्रेल लिपि को तत्कालीन शिक्षा विदों ने नकार दिया | कुछ का कहना था की ये कैप्टन चार्ल्स बर्बर से प्रेरित है इसलिए इसे लुई का नाम नहीं दिया जा सकता तो कुछ बस इसे सैनिकों द्वारा प्रयोग में लायी जाने वाली लिपि ही बताते रहे |
लुई निराश तो हुए पर उन्होंने हार नहीं मानी | उन्होंने जगह -जगह स्वयं इसका प्रचार किया | लोगों ने इसकी खुले दिल से सराहना की पर शिक्षाविदों का समर्थन न मिल पाने के कारण इसे मान्यता नहीं मिल सकी | अपनी लिपि को मान्यता दिलाने की लम्बी लड़ाई के बीच वो क्षय रोग ग्रसित हो गए और ६जन्वरी १८५२ को जीवन की लड़ाई हार गए | पर उनका हौसला मरने के बाद भी नहीं मरा वो टकराता रहा शिक्षाविदो से , और , अन्तत : जनता के बीच अति लोकप्रिय उनकी लिपि को शिक्षाविदों ने गंभीरता से आंकलन करना शुरू किया | अब उन्हें उसकी खास बातें समझ आने लगीं | पूरे विश्व में उसका प्रचार होने लगा और उस लिपि को आखिरकार मान्यता मिल गयी |
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क्या है ब्रेल लिपि
ब्रेल लिपि जो नेत्रहीनों के लिए प्रयोग में लायी जाती है उसमें प्रत्येक आयताकार में ६ उभरे हुए बिंदु यानी कि डॉट्स होते हैं | यह दो पक्तियों में बनी होती है इस आकर में अलग -अलग 64 अक्षरों को बनाया जा सकता है | एक डॉट की उंचाई अमूमन ०.०२ इंच होती है और इसे पढने की विशेष विधि होती है | इस लिपि को स्लेट पर व् ब्रेल टाइप राइटर पर भी इस्तेमाल किया जा सकता है | आधुनिक ब्रेल लिपि में ६ की जगह ८ डॉट्स का प्रयोग होने लगा है , जिससे 256 अक्षर संख्या और विराम चिन्हों को पढ़ा जा सकता है |
मरने के बाद मिला सम्मान
लुइ ब्रेल की मृत्यु के लगभग १०० वर्ष पश्चात् फ़्रांस में २० जून १९५२ को उन्हें समान देते हुए फ़्रांस में उनका सम्मान दिवस घोषित किया गया |उस दिन उनके गाँव कुप्रे में सेना के अधिकारियों , शिक्षाविदों व् आम लोगों ने उनके प्रयोग को उनकी जिन्दगी में उपेक्षित रखने की अपने पूर्वजों द्वारा हुई भारी भूल की माफ़ी मांगी | वो सब उनकी कब्र के पास इकट्ठे हुए | जहाँ उनका शव फिर से निकाला गया | जिसे क्षमा मांग कर पूरे राजकीय सम्मान के साथ फिर से दफनाया गया |
भारत में सम्मान
महान लोग किसी एक देश की जागीर नहीं होते , न ही उनके द्वारा किया गया काम किसी एक देख तक सीमित रहता है | दृष्टिहीनों के लिए उनके अप्रतिम योगदान की महानता स्वीकार करते हुए भारत सरकार ने उन्हें सम्मान देते हुए ४ जनवरी २००९ को उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया |
आज लुईस ब्रेल नहीं हैं पर आज भी उनके द्वारा तैयार की गयी ब्रेल लिपि न जाने कितनी अँधेरी जिंदगियों में ज्ञान की रोशिनी भर रही है |
लुईस ब्रेल पर अधिक जानकारी के लिए विकिपीडीया पर जाएँ |
नीलम गुप्ता
लुइ ब्रेल फोटो क्रेडिट – shutterstock.com
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वंदना जी सकारात्मक ऊर्जा से ओत प्रोत बेहद सुंदर और सार्थक लेख है।
आभार आपका बहुत सारा।
धन्यवाद श्वेता जी
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