कई दिनों से मन में स्मृतियों के बादल उमड़-घुमड़ रहे थे, गरज रहे थे पर बरसने का नाम नहीं ले रहे थे। बहुत बेचैन था मन बरसने को आतुर, पर बरसे कहाँ जाकर? माँ-पापा के कंधे तो कब के छूट चुके.. जहाँ मौसम-बेमौसम कभी भी सुख-दुःख में जाकर सिर रख बरस सकते थे।
ऐसे में आज”बचपन की छुट्टियाँ:नानी का घर” शीर्षक ने तो जैसे मन को बरसने का अवसर प्रदान कर दिया और मैं चल दी स्मृतियों के नगर के गलियारों में इधर-उधर धींगामस्ती करने के लिए के लिए। आप सब भी तो चल रहें हैं न साथ!
ऐसे में आज”बचपन की छुट्टियाँ:नानी का घर” शीर्षक ने तो जैसे मन को बरसने का अवसर प्रदान कर दिया और मैं चल दी स्मृतियों के नगर के गलियारों में इधर-उधर धींगामस्ती करने के लिए के लिए। आप सब भी तो चल रहें हैं न साथ!
संस्मरण -बचपन की छुट्टियाँ: नानी का घर
बचपन में जैसे ही छुट्टियाँ होती तो नानी का घर ही सर्वाधिक आकर्षण का केंद्र होता था। नानी और मामा के निश्चल प्रेम की गंगा में जी भर गोते लगाने को जो मिलता था। माँ जब जाने की तैयारी में कपड़े रखने को तैयार होती तो मैं अपने कपड़ों को समेट उनके सामने ढेर लगा कर रख देती थी इस हिदायत के साथ… कि पहले मेरे कपड़े रखना ताकि कोई छूट न जाए।
पापा हमें नानी के घर छोड़ने जाते। उसी दिन शाम को और बहुत कहने पर रात को रुक सुबह देहरादून लौट आते। नानी का घर चोहड़पुर( पहले यही नाम था,पर अब विकासनगर है) की पहाड़ी गली में था। एक बड़ी सी हवेली थी, जिसमें चार परिवार नीचे और पाँच परिवार ऊपर रहा करते थे। नानी का घर हवेली की दूसरी वाली मंजिल पर था। तीसरी मंजिल पर कभी तीन तो कभी दो परिवार रहते ही थे। बाक़ी खुली छत थी, जिसका गर्मी-सर्दी में लोग भरपूर उपयोग किया करते थे। छुट्टियों में ऊपर वाले परिवारों में कम ही जाना होता क्योंकि वे अधिकतर व्यापारियों के ही घर होते थे। हाँ, दूसरी और नीचे वाली मंजिल के सभी परिवार आते-जाते बात किए बिना नहीं रहते थे।
शौचालय ऊपरी मंजिल पर था। बस यही मेरी एक समस्या का कारण था। सीढ़ियाँ चढ़ कर शौचके लिए या छत पर चली तो जाती, पर उतरते समय नीचे देखते ही सिर चकराने लगता। इसलिए ऐसे समय किसी का साथ पकड़ना मेरे लिए बहुत ही जरुरी होता था।
जब पापा हमें छोड़ कर लौट जाते तो उस हवेली को, जिसे सब बगड़ कहते थे, उस पूरे बगड़ में खबर हो जाती कमला ( मेरी माँ ) अपनी बेटी के साथ आ गई है। एक-एक कर सब मिलने आते, गले मिलते, मेरे सिर पर हाथ फेर कर,अपने सीने से लगा कर प्यार करते। शकुंतला मौसी, मैना मौसी, नन्हे की बीबी, सुलोचना मौसी की माँ सब मिलने आते। दो-चार दिन बीतते-बीतते सुलोचना मौसी और बिमला मौसी भी छुट्टियों में अपने बच्चों को लेकर आ जाती। शकुंतला मौसी नानी की सखी थी। पर सब उन्हें मौसी कह कर ही बुलाते थे।वे जैसे सबकी मौसी थी।
नीचे की मंजिल में एक सहजो मौसी थी। उनके सहजो नाम पड़ने के पीछे भी एक मनोरंजक कहानी थी। वे कोई भी काम बहुत ही सहज-सहज करती थी। चाहे जल्दी भी हो, उनके काम करने की गति वही सहज-सहज ही रहती। तो धीरे-धीरे उनका नाम ही सहजो पड़ गया। उनका वास्तविक नाम सब भूल गए। जीवन भर वे सबको नाम से ही जानी गई।
नीचे ही मैना मौसी का बेटा प्रवेश उन्हें भाभी कह कर बुलाता था। मेरे लिए यह आश्चर्य का विषय होता था। वो तो उसकी माँ हैं, तो वो भाभी क्यों कहता है? तब तो मैं भी माँ को भाभी कह सकती हूँ। उसकी देखा-देखी मैंने अपनी माँ को एक-दो बार भाभी भी कह दिया। तब नानी और माँ ने बताया था कि प्रवेश के चाचा उन्हें भाभी कह कह कर बुलाते थे इसलिए प्रवेश भी उन्हें भाभी कहने लगा, पर वो उनकी माँ ही है।
नानी के घर छुट्टियों का एक-एक दिन मूल्यवान होता था। अपने नाना की मैं बहुत लाड़ली थी। वे आर्य समाज से जुड़े थे। रविवार को हवन के लिए और जब भी वे आर्यसमाज भवन जाते तो उनके साथ मैं अवश्य जाती थी। उनसे पहले मैं तैयार हो जाती थी। आते-जाते पाँच पैसे की ( उस समय पाँच पैसे में बहुत सारी नमकीन आती थी ) मूँग की दाल वाली नमकीन लेना मैं कभी नहीं भूलती थी। आज इतनी हल्दीराम, बिकानो आदि न जाने कितने नामों वाली नमकीन बाजार में मिलती है, पर जो स्वाद उस पाँच पैसे में मिलने वाली मूँग की दाल वाली नमकीन में था, वो कहीं भी ढूँढे नहीं मिलता।
नानी के घर में एक आकर्षण वहाँ का आढ़त बाजार था। उसमें खूब सब्जियाँ, फल और भी बहुत सी चीजें आती।नाना कभी तरबूज, कभी खरबूजे,लीची, आड़ू, पुलुम (plum), आम, गन्ने,नाशपाती,कठहल,सिंबल डोडे( सेमल की कलियाँ) रोज कुछ न कुछ लेकर आते थे। गुड़ की भेलियाँ आती, बूरा, घी लाया जाता था।खूब मौज रहती।
रोज या तो माँ से कोई मिलने आता या हम नानी के साथ उनकी किसी सखी के यहाँ कभी नारायण गढ़, तो कभी बाबूगढ़ जाते। नानी की कोई न कोई सखी हमें हर दूसरे-तीसरे दिन खाने पर बुलाते। मक्की, बाजरे की रोटी खूब घी लगाई हुई, साग में घी तैरता हुआ तो खिलाते ही, साथ में पूछ-पूछ कर मनपसंद सब्जी, दाल, खीर,चावल,घी- बूरा भी खिलाते थे। चलते समय माँ को और मुझे रुपए भी देते थे। नानी की एक सखी मुझे कुंता की दादी के नाम से ही याद हैं।वो नानी बिलकुल अपनी नानी की तरह मुझे प्यार करती थी। मैं तो दिन में उनके पास एक चक्कर तो लगा ही आती थी।
नानी के बगड़ के सब लोग ही मुझे अच्छे लगते। किसके यहाँ आज क्या पका है सबको मालूम रहता। जिस घर के बच्चे को अपने घर में बनी दाल-सब्जी पसंद नहीं आती तो वो अपनी कटोरी लेकर आता और जहाँ मनपसंद बना होता वो कटोरी में भर कर ले जाता।
बहुत सी ऐसी चीजें हैं जो नानी के घर खाते थे, पर आज अगर उन्हें खाओ तो वो स्वाद आता ही नहीं और नानी के घर वाला स्वाद भूलता नहीं।जब चावल बनते तो उनका माँड निकाला जाता था। वो मुझे और मामा के बच्चों को पीने को देते थे। गिलास में थोड़े से चावल के पके दाने और थोड़ा सा नमक मिला कर जब हम पीते तो अहा! क्या स्वाद आता था। अब तो सब स्मृतियों की कोठरी में रखा हुआ है।
नानी का घर दूसरी मंजिल पर था। वहाँ घर को सब चौबारा कहते थे। कमरे सब रेल के डिब्बों की तरह एक के बाद एक थे।सबसे पहले कमरे को बैठक, दूसरे को सोने का कमरा और तीसरा रसोई था। बैठक वाले कमरे की खिड़की से आते-जाते लोगों को देखना बहुत अच्छा लगता था। नीचे बैजनाथ की मिठाई की दुकान थी। सब उसे बैजू कहते थे। जब उसके यहाँ गर्म जलेबी, इमरती और समोसे बनते तो जब तक हम रहते, नाना जब-तब लाते थे।
गर्मियाँ तो होती ही थी, तो छत पर भी सोते। बगड़ के बच्चे धमाचौकड़ियों में लगे रहते, बड़े गप्पें मारते रहते। प्यास लगने पर कौन किसकी सुराही से पानी पी रहा रहा है पता ही न चलता। बड़े तो सूर्योदय के बाद उठ कर चले जाते, पर बच्चे तो तभी उठते जब सूर्य की किरणें उनके चेहरों को गर्म करने लगती।
नाना- नानी के साथ बड़े मामा भी बहुत प्यार करते थे। नाना-नानी के चले जाने के बाद बड़े होने पर भी बड़े मामा से वैसा ही प्यार मिलता रहा।
फिर एक दिन पता चलता कि पापा हमें लेने आ रहें हैं।पापा आते। पूरे घर में चहल-पहल रहती कि पाहुना आया है। नाना- नानी, मामा पापा की खातिरदारी में लगे रहते। सुबह से ही माहौल दुःख भरा हो जाता । जैसे आने के समय सब मिलने आते थे उसी तरह बगड़ के सब जाने के समय भी मिलने आते। माँ को और मुझे शगुन स्वरूप पैसे देते। नाना तो एक दिन पहले ही हमारे लिए रामजी लाल की दुकान से कपड़े और मिठाई,फल, घर की बनी अनगिन चीजें रख देते। नानी उन्हें बाँध कर तैयार करती। चलने वाले दिन रोने का जो दौर चलता रुकने में ही न आता। वहाँ जिसकी भी बेटी मायके आकर वापस जाती तो सारे के सारे रोते। यह दिखावा नहीं होता था। आपस में सब इतने घुले-मिले थे कि ख़ुशियाँ और दुःख भी सबके एक थे। सबको रोते देख मैं भी रोती। नाना-नानी और बड़े मामा से बिछड़ने का दुःख मुझे भी लगता था।
पर मायके से बेटी की विदाई का नानी के बगड़ का मार्मिक दृश्य तो ज्यों का त्यों आज भी मेरी आँखों में बसा है।
आज नाना-नानी, बड़े मामा-मामी, छोटे मामा, मेरी माँ, मेरे पापा सब उस पार के संसार में हैं, पर मेरी स्मृतियों में शाश्वत रूप से सजीव हैं।
अभी कुछ दिन पहले विकासनगर किसी काम से जाना हुआ,तो देखा न वो पुरानी पहाड़ी गली है, न वो पुराना बगड़ है, न बैजू की मिठाई की वो दुकान है। जब वो पुराने लोग ही नहीं हैं तो वो पुराना रूप भी कहाँ होगा? प्यार का वो निश्चल अजस्र स्रोत भी सूख गया है। सब कुछ बदल गया है मेरे नाना-नानी के चोहड़पुर में। विकासनगर बनने के साथ बहुत कुछ खो गया। जो है वो अपना कम, परायेपन का अहसास अधिक कराता है।
नहीं बदला तो वो है स्मृतियों में बसा नाना-नानी का घर, उनका प्यार, बगड़, उनकी सखियाँ,
उनका प्यार-दुलार और कभी समाप्त न होने वाली उनकी स्मृतियाँ।
अब भी जब-तब स्मृतियों के गलियारों में माँ के साथ नाना-नानी के घर हो ही आती हूँ।
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डा० भारती वर्मा बौड़ाई
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बहुत सुन्दर हृदयस्पर्शी संस्मरण…