सुकून
फरवरी माह की हल्की हल्की ठंड थी। ऐसे मे धूप का मजा सबको भाता है एक सुकून सा देता है। सीलन व अंधेरे कमरे मे बैढना जहां बुरा लगता है वही सरदी मे उजाले भरी धूप जैसै आकाश मे सोना सा चमक रहा हो ऐसा महसुस होता है। मीठी मीठी धूप बडी अच्छी लगती है। ऐसी गरमाहट मे बिस्तर पर नीदं सोने पे सुहागे जैसी लगती है।
आज रविवार था छुट्टी का दिन! साथ मे कपडो की धुलाई का दिन। कामकाजी महिला के लिये यही एक स्पेशल दिन होता है जब वह फुर्सत मे होकर धूप का आनंद ले पाती है। दोपहर का खाना खाकर मै भी ज्यो लेटी गहरी नींद मे सो गयी। तभी डांइगरूम मे बैठे पतिदेव ने जो फिल्म का आनंद ले रहे थे,, अकेले पन से उकता कर मुझे फोन पर मिस काल दी और नीचे आने को कहा।
हडबडा कर मै उठी और सूख चुके कपडो को समेटने लगी। आज का दिन मेरा बडा बदला बदला सा था,,, कारण मेरी बेटी की अच्छे से शादी का हो जाना।
उसका कल घर पग फैरा था मै फिर फिर उसे याद कर अतीत मे लौट गयी थी।
शादी के 15 दिन हो गये थे। और वो अपने हनीमून से भी लौट आयी थी। और अब ससुराल वालो के संग अपने मायके पहला फैरा डालने आयी थी। अपने पति के संग हंसती खिलखिलाती बडी सुंदर लग रही थी। उसके चेहरे की चमक से पता चल रहा था कि वह बडी खुश थी। बडी चहक रही थी। दूर का सफर करके लौटे थे खाना खाकर सब लेट चुके थे पर बेटी काम मे लगी थी। मेने कहा :_”बेटीतू भी आराम कर ले थोडी देर”।
बेटी :- “नही मम्मी ,, मै कुछ सामान समेट लूं। कुछ रह ना जाये”आपने जो इतने गिफ्ट दिये है इन्हे सम्भाल कर गाडी मे रख लूं, कुछ छूट ना जाएं।
मंमी:- “बेटी शाम का खाना भी पैक करना है क्या? “
बेटी:- हां हां मम्मी जरुर! अब इतनी दूर थके हुऐ घर पहुंचेगे तो खाना कैसे बना पायेगे? यही से पैक करके रख लेती हूं।
बडी लगन व फुरती से वो सब सामान समेट रही थी,,, इन सब को देख मुझे हंसी भी आ रही थी और प्यार भी आ रहा था।
मुझे याद है शादी से पहले वो कितनी लापरवाह थी,,, सामान फैला रहता दूध पडा रह जाता वो ना पीती । मै चिल्लाती—अपना सामान तो समेट लोपर वो हंस देती और सोफे पर लेट टी वी देखने लग जाती। पर आज सबकुछ बदला हुआ था,,,,,
दोपहर के खाने के बाद वो सारे जूठे बरतन बडे करीने से एक मे एक डाल कर समेटते हुऐ किचन मे रख आयी थी। मै हंस पडी सोच रही थी ये वही लडकी है जो खाकर अपने बरतन वही बैठक मे छोड देती थी। आज इतना बदलाव? 15 दिन मे ही बेटी ससुराल के तौर तरीके सीख गयी। पढाई लिखाई मे तो मेधावी थी ही, गृहस्थिन भी पक्की बन गयी थी। उसके जाते ही मेरी चिन्ता मिट गयी थी। मुझे डर लगता था की नये घर मे एडजेस्ट होने मे पता नही कितना समय लगे,,, पर मेरी संस्कारी बेटी ने मेरा मान बढा दिया।
सीडियो से नीचे उतरते उतरते मै वर्तमान मे लौट आयी पर मुझे मुस्कुराते देख पतिदेव पूछ ही बैठे :-“अपनी बेटी के बारे मे सोच रही हो?
मैनै हंसकर कहा :- “हां चलो बेटी अपने घर खुश है हमे और क्या चाहिये। “
तभी पतिदेव हंसकर बोले :- सही कहा। “जहां का पौधा जहां लगना है वही लग जाएं और वही फूले फले” हमे और क्या चाहिये?
शायद वो भी अपनी बेटीपर गर्व महसूस कर रहे थे। बेटी अपने घर खुश रहे इससे बडा “सुकून” और कया हो सकता है।
रीतू गुलाटी
बदलाव
अंकल आंटी की पार्टी
वो पहला खत
सीख
Nice story