इतिहास गवाह है कि कालिदास हो, अल्वा एडिसन या आइन्स्टाइन सबने शुरुआत में बहुत मूर्खताएं की हैं, मने मेरी मुर्खताको बुद्धिमानी की और बढ़ता कदम ही समझना चाहिए |
झाड़ू वाले की नकली बीबी और 500 रुपये
दरवाज़ा खोलते ही एक औरत रोते हुए दिखी| मुझे देखकर बोली ,”कल रात मेरा आदमी मर गया, यही आप के मुहल्ले की सड़क पर झाड़ू लगाता था “| ओह, वो सफाई वाला, अभी परसों तो देखा था,अच्छा भला था | मेरा दिल धक् से रह गया| मन में ख्याल आने लगे इंसान का क्या भरोसा ,आज है , कल नहीं है |
मुझे द्रवित देख वो बोली,” कफ़न के पैसे भी नहीं है, कुछ मदद कर दीजिये | बचपन से पढ़े पाठ दिमाग में कौंध गए, पैसा क्या है हाथ का मैल है | मैंने, 200 का नोट दिया |पैसे देख कर उसका रुदन गेय हो गया, ,” इत्ते में क्या होगा, लाश घर पर पड़ी है … हाय माईईई , मैंने उसे दोबारा अपने हाथों की तरफ देखा, अब इतना मैल तो मेरे हाथ में भी नहीं था, इसलिए अलमारी से निकाल 300 और दिए |
वो रोती हुई चली गयी और मैं पूरा दिन शमशान वैराग्य में डूबी बिस्तर पर पड़ी रही, तारीख गवाह है कि उस दिन मैंने fb भी नहीं खोली |
ठीक दो दिन बाद, चार मार्च की सुबह फिर दरवाजा खटका| खोलने पर सामने सडक पर झाड़ू लगाने वाला खड़ा था| मुझे देख कर दांत दिखाते हुए बोला ,” होली की त्यौहारी | मुझे माजरा समझते देर न लगी , कोई अजनबी औरत इसकी पत्नी बन मुझे मूर्ख बना गयी थी |
पछतावा तो बहुत हुआ पर मैं उस झाड़ू वाले से ये तो नहीं कह सकती थी कि ,” अभी तो तुम्हारे कफ़न के पैसे दिए हैं , त्यौहारी किस मुँह से मांग रहे हो ?
उसे पैसे दे , सोफे पर पसर ,सोंचने लगी … सच , आदमी का कोई भरोसा नहीं, आज है , कल नहीं है … परसों फिर है
वंदना बाजपेयी
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(ये रचना प्रभात खबर में प्रकाशित है )
बहुत बढ़िया लेख वंदना जी, हमारे साथ ऐसा बहुत बार होता हैं.