बेटा हो या बेटी, संतान के आने से घर -आँगन चहक उठता है | फिर भी बेटे सम्मानित विशिष्ट अतिथि और बेटियाँ बिन बुलाई मेहमान ही रही हैं | कितना कुछ दबाये हुए बढती हैं उम्र की पायदानों पर और अनकही ही रह जाती हैं “बस एक बार ” की कितनी सारी तमन्नाएं | पढ़िए सुनीता त्यागी की लघु कथा …
बस एक बार
मंझली बेटी भीषण दर्द से तड़प रही थी। आज डाक्टर ने सर्जरी के लिए बोल दिया था।हस्पताल में उसे यूं दर्द से
छटपटाता देख रमेसर के भीतर का वो पिता जो पांचवी बार भी बेटी पैदा
होने पर कहीं खो गया था, जिसके बाद कभी उसने मां
-बेटियों की सुध नहीं ली थी, आज उस पिता में कुछ
छटपटाहट होने लगी थी।
” रो मत, सब ठीक हो जायेगा “, उसने बेटी के सिर पर हाथ
फिराते हुए कहा।
पिता के स्पर्श को महसूस कर मंझली सुखद आश्चर्य में डूब गयी। पिता ने प्यार से
हाथ फिराना तो दूर,कभी प्यार भरी नजरों से देखा भी नहीं था उसे।
“बापू बचालो मुझे!मत कराओ मेराअौपरेशन!! औपरेशन में तो मर जाते हैं! जैसे दादी मर गयीं थी”, मझली औपरेशन के नाम से घबरा कर रोती हुई कहने लगी।
“
“ऐसा नहीं कहते बावली, मैं हूं ना!!”। रमेसर के चेहरे पर छलक आयी ममता को देखकर मंझली ने फिर
कुछ कहने का साहस किया ” बापू! अगर मैं मर गयी, तो मेरी एक इच्छा अधूरी ही रह जायेगी ” ।
” तुझे कुछ नहीं होगा बेटी ! फिर भी बता कौन सी इच्छा है तेरी”।
पिता के मुंह से निकले शब्दों से मंझली को मानो पत्थरों से खुशबू आने लगी थी और उसकी आंखों से भी दबा हुआ उपेक्षा का दर्द फूट
पड़ा, रुंधे गले से इतना ही कह पायी ” बापूू!! आज मुझे
गोदी ले लो, बस एक बार!!
सुनीता त्यागी
मेरठ
यह भी पढ़ें …