क्लास टेंथ का रिजल्ट निकलने के अगले ही दिन कितने निराश बच्चों की आत्महत्या की खबरे आती है |कितने दीपक जिन्हें बहुत रोशिनी देनी थी अचानक से बुझ जाते हैं | फिर भी हर साल समाज बिलकुल वैसा ही व्यवहार करता है | क्या जरूरी नहीं है कि इन रिजल्ट की तुलना करते हुए बड़ों की भूमिका बदलनी चाहिए |
क्लास टेंथ का रिजल्ट में बड़ों की भूमिका
निकल गया भाई , निकल गया हाई स्कूल का रिजल्ट निकल गया | एक वो जमाना था जब सुबह के ६ बजे हों , दोपहर के १२ या रात के दो ये आवाज़ सुनते ही उन बच्चों की दिल की धडकने बढ़ जाती थी जिन्होंने हाईस्कूल की बोर्ड की परीक्षा दी थी | आनन् -फानन में घर के लड़के रिजल्ट लाने के लिए दौडाए जाते | कांपते हाथों से रिजल्ट वाला अखबार खोला जाता | उस समय रिजल्ट में केवल F, S , और T लिखा होता , जिसका मतलब क्रम से फर्स्ट डिविजन , सेकंड डिविजन और थर्ड डिविजन होता | फेल होने वाले बच्चों के रोल नंबर अखबार में नहीं छपे होते | असली नंबरों का गजट स्कूल में ही दस -पंद्रह दिन बाद आता | तब तक ६० % की फर्स्ट डिविजन और ८० % की फर्स्ट डिविजन के बच्चे एक सामान खुश दिखते | जब तक गजट आता , तुम्हारे कितने परसेंटेज हैं पूंछने वालों की संख्या में बहुत कमी आ जाती | ये वो समय था जब बच्चे रिजल्ट निकलने के बाद अवसाद में नहीं घिरते थे | आत्महत्या नहीं करते थे | ऐसी घटनाएं अगर थीं भी तो एक्का -दुक्का |
वो बच्चे जिनके प्रतिश्त कम आयें है
परन्तु आज के समय में रिजल्ट निकलते ही मार्क्स और % बच्चे के पास आ जाते हैं | डिविजन शब्द अप्रासंगिक हो गया है | अब तो दशमलव के बाद तक परसेंटेज बताने का चलन है | जिन बच्चों के कम नबर आये हैं , निराश है | अचानक से इस सामाजिक अवहेलना को झेलने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं होते | जो कल तक माँ का लाडला था , बुआ का प्यारा भतीजा था , चाची का नटखट नंद किशोर था , और मुहल्ले का हीरो था वो अचानक से असफल करार दे दिया जाता है | दुखी बच्चा माता -पिता की ओर देखता है पर वो भी तो उसे सँभालने की स्थिति में नहीं होते हैं वो असफल पेरेंट्स करार दिए जा चुके होते हैं | वहीं जिन बच्चों के ८० -८२ % आये हैं उन्हें लोग बधाई तो देते हैं पर ऐसे जैसे की अहसान कर रहे हों | जैसे दूसरी बेटी होने पर बधाई देते हैं | कोई बात नहीं हो गया अब इसे ही ईश्वर की मर्जी समझों | ऐसे में बच्चों का अपने परिवार के इस अपमान के लिए खुद को दोषी मानना अस्वाभाविक नहीं है |
अधिक प्रतिशत लाने वाले बच्चों में भी है निराशा
ये मामला सिर्फ कम प्रतिशत लाने वाले बच्चों का नहीं है | निखिल को ही देखिये | अपने स्कूल में हमेशा टॉप करने वाले निखिल के दसवीं की बोर्ड परीक्षा में 92% नंबर आये , उसे कुछ ज्यादा की उम्मीद थी | इसलिए वो थोडा निराश था | माँ उसे समझा रही थी | तभी पड़ोस की सुलेखा जी आयीं | सुलेखा जी निखिल के नंबर सुनते ही बोली , ” चलो पास हो गया , ठीक ही नंबर हैं … बधाई, पर मेरे भाई के पड़ोस में रहने वाले शर्मा जी के साढू के बेटे के ९७ % मार्क्स आये हैं | ऐसे मामलों में बच्चों को उन लोगों के उदाहरण मिलते हैं जिन्हें उदाहरण देने वाला भी बिलकुल नहीं जानता , उसका उद्देश्य बड़ी लकीर खींचना होता है | इस तुलना से निखिल का चेहरा उतर गया |माँ मुह्ल्लादारी निभाते हुए सुलेखा जी के पास बैठी रहीं और निखिल अपने कमरे में रोता रहा | मामला सिर्फ सुलेखा जी का ही नहीं है रिजल्ट निकलने के बाद जिस तरह से बच्चों के ऊपर एक अवांछित तुलना का फंदा कस दिया जाता है उसमें एक मासूम का दम किस तरह घुटता है इसे सोचने की फुर्सत किसी को नहीं नहीं | ये दुर्भाग्य है कि इसका | शिकार कम प्रतिशत पाने वाले बच्चे ही नहीं ऊँचे प्रतिशत पाने वाले बच्चे भी हैं | बहुत से लोग समझते हैं की वो बच्चे जिनके कम प्रतिशत हैं वो अवसाद में होंगे परन्तु बच्चा 90 + % के बावजूद अवसाद में है ऐसा बहुत कम लोग मान पाते हैं |
बच्चो को ” The Best नहीं अपना “Best version” बनने के लिए करें प्रेरित
हमीं ने हर बच्चे के आगे “बेस्ट ” होने की लकीर खींच दी है | हर बच्चे को खींच -खींच के उस लकीर के पास लाने की कोशिश की जा रही है | प्राइवेट स्कूलों में हर दिन टेस्ट , रिविजन घर में दो या तीन ट्यूशन से जूझते नवीं , दसवीं के बच्चे का बचपन खो गया है | हर बच्चा समाज की राडार पर हैं | बस एक लकीर नहीं पार की तो उनके स्वाभिमान पर आक्रमण होना तय है | इन लकीरों में बांधते समय हम ये नहीं सोचते कि ये एक ऐसे लकीर हैं जो किसी न किसी दिन ध्वस्त होनी ही है | हाई स्कूल में बच गए तो १२ th में , तब भी बच गए तो कॉम्पटीशन में या फिर जॉब में | हमने पूरी व्यवस्था इस तरीके की बना रखी है कि कितना भी होनहार बच्चा हो किसी न किसी मोड़ पर अवसाद में डूबे जरूर , फिर हम ही चिल्लाते हैं कि बच्चों में धैर्य नहीं है , संवेदनहीनता है | क्या ये जरूरी नहीं है कि बच्चों पर एक अँगुली उठाते समय हम उन तीन अँगुलियों की तरफ देखे जो हमारी तरफ उठ रहीं हैं | हमने बच्चों को अघोषित दौड़ के मैदान में उतार दिया है , उन्हें आगे नहीं सबसे आगे बढ़ना है |
क्लास टेंथ के रिजल्ट के बाद क्या हो बड़ों की भूमिका
1)जरूरी है कि बच्चे के आगे ” बेस्ट ” का तिलस्मी जाल फेंकने के स्थान पर उसे ” अपना बेस्ट ” बनने को प्रेरित करें | ये भावना जगाये की तुम यूनिक हो , अपने तरीके से , इसलिए अपने ही तरीके से उसे निखारों और आगे बढ़ो |
2)जितना जरूरी ये हैं कि हम बच्चों को सफल होने के लिए प्रेरित करे उतनी ही शिद्दत से असफलता को हैंडिल करना भी सिखाएं | क्योंकि जीवन की यात्रा में में पहाड़ है तो घाटियाँ भी हैं | अगर हमने अपने बच्चे को ऐसा बना दिया है कि आज वो कुछ नंबर कम आने का स्ट्रेस नहीं सह पा रहा है तो कल जिन्दगी की बड़ी अन्य हारों का मुकाबला कैसे करेगा | हमेशा जीत हो ये हम सुनिश्चित नहीं कर सकते परन्तु हारने के बाद फिर से जीतने का जब बना रहे ये तो कर सकते हैं |
3) बच्चों से पहले आप को समझना होगा कि वो बच्चे जो अपने स्कूल जीवन में बहुत अच्छा नहीं कर पाए | अंकों के खेल में पिछड़ गए वो भी जीवन में दूसरे क्षेत्रों में काम करते हुए बहुत आगे निकल गए |क्रिएटिव फील्ड में नम्बरों का महत्व बिलकुल नहीं है | अच्छे नंबर के साथ -साथ व्यक्तित्व के अन्य गुण जैसे स्ट्रेस मेनेजमेंट , बाउंस बैक की क्षमता , समाज के दवाब में न आना जीवन में सफल होने के लिए जरूरी हैं |
4) कई बार माता -पिता अपने बच्चे से अपने ज़माने की तुलना करते हैं | हमने तो एक कमरे के घर में पढाई की , तुम्हारा तो अलग कमरा है , हमारे समय में लाईट बहुत जाती थी , तुम्हें तो ए सी दिया है | ये सब तुलना बच्चे में guilt पैदा करती हैं | याद रखिये गिल्ट एक बहुत ही नेगटिव मोटिवेटर है | माता -पिता के अहसान में दबे बच्चे खिल नहीं पाते हैं |
5) बच्चों को समझाने से पहले खुद समझें की क्लास टेंथ का रिजल्ट केवल उनकी स्ट्रीम चुनने में मदद करता है ये उनका कैरियर नहीं निर्धारित करता |
बच्चों के रिजल्ट और उनके सफलता -असफलता को हैंडिल करने में बड़ों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है | इसके लिए बड़ों को ये तैयारी रिजल्ट निकलने के बाद नहीं , बचपन से ही करनी है | जैसा की आप सब जानते हैं कि अगर शुरू में कोई हवाई जहाज अपनी उड़ान की दिशा से एक डिग्री विचलित होता है तो उसके गंतव्य में हजारों मील का अंतर आ जाता है | बच्चों की ये उड़ान उनकी मंजिल तक पहुंचे इसके लिए बड़ो को अपनी भूमिका सही से निभानी है |
वंदना बाजपेयी
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बहुत अच्छा लेख लिखा आपने।एकदम सामयिक और सार्थक। अभिभावकों को शिक्षित करने की आवश्यकता है।
जी, आजकल तुलना कर -कर के बच्चों पर दवाब बढाया जा रहा है … धन्यवाद