हम्मिंग बर्ड्ज़

हम्मिंग बर्ड्ज़
दीदी की मृत्यु के पश्चात् माँ ने उनकी चिड़ियों को उनकी ससुराल से लाने का आदेश दिया | बरसों से दीदी उन्हें पाल रहीं थीं | वो पिताजी की नशानी थी और अब दीदी की भी ……कहाँ गयीं वो हम्मिंग बर्ड्स 

कहानी -हम्मिंग बर्ड्ज़ 

“आजकी भी सुन लीजिए,”
मेरे दफ्तर से लौटते ही पत्नी ने मुझे घेर लिया, “माँजी ने आज एक नया फरमान जारी
किया है, जीजी की चिड़ियाँ हमें यहाँ लौटा लानी चाहिए|”

बहन की मृत्यु पंद्रह
दिन पहले हुई थी| उधर अपने पति के घर पर| जिससे उसने पाँच महीने पहले कचहरी में
जाकर अपनी मर्ज़ी की शादी रचाई थी| मेरे खिलाफ जाकर|

“माँ की ऊलजलूल
फरमाइशें मेरे सामने मत दोहराया करो,” मैं झल्लाया, “कितनी बार मैंने तुम्हें
बताया है, मेरा मूड बिगड़ जाता है|”

“यह अच्छी रही|”
पत्नी मुकाबले पर उतर आई, “दिन-भर वह कोहराम मचाएँ, मेरा जी हलकान करें और आपके
आने पर आपके साथ मैं अपना जी हलका भी न करूँ?”

“ठीक है,” मेरी
झल्लाहट बढ़ ली, “अभी पूछता हूँ माँ से|”

माँअपनेकमरेमें
रामायण पढ़ रही थीं|

“तुम्हारी तसल्ली
कैसे होगी, माँ?” मैं बरस लिया, “तुमने कहा, काठ-कफ़न मायके का होता है, सो काठ-कफ़न
हमने कर दिया, फिर रसम-किरिया पर जो भी देना-पावना तुमने बताया, सो वह भी हमने
निपटा दिया| अब उन चिड़ियों का यह टंटाल कैसा?”

“तुम्हीं बताओ,” बहन
की मृत्यु के बाद से माँ अपने ढक्कन के नीचे नहीं रह पातीं, “वे चिड़ियाँ वहाँ मर गईंतो
प्रभा की आत्मा को कष्ट न होगा?”

“तो तुम चाहती हो,
वर्षा अब विश्शूकी परवरिश छोड़ दे और उन चिड़ियों के दाने-दुनके पर जुट जाए?”

“चिड़ियाँ मैं
रखूँगी, वर्षा नहीं|”

“तुम?” मैं
चिल्लाया, “मगर कैसे?”

दो साल पहले माँ पर
फालिज़ का हमला हुआ था और उनके शरीर का बायाँ भाग काम से जाता रहा था|”

“रख लूँगी|” माँ रोने
लगीं|

“माँजी से आप बहस मत
कीजिए|” पत्नी ने पैंतरा बदल लिया| उसे डर था, माँके प्रति मेरी खीझ कहीं
सहानुभूति का रूप न धर ले|

“आइए,” वह बोली,
“उधर विश्शू के पास आकर टी.वी. देखिए| जब तक मैं आपका चाय-नाश्ता तैयार करती हूँ|”

रात मुझे बहन नज़र
आई| एक ऊँची इमारत में बहन मेरे साथ विचर रही है…..|

एकाएक एक दरवाज़े के
आगे बहन ठिठक जाती है…..|

“चलो,” मैं उसकी
बाँह खींचता हूँ…..|”

“अँधेरा देखोगे?” वह
पूछती है, “घुप्प अँधेरा…..?”

बचपन के उसी खिलंदड़े
अंदाज़ में जब वह अपनी जादुई ड्राइंग बुक के कोरे पन्नों पर पानी से भरा पेंटिंग
ब्रश फेरने से पहले पूछती, “जादू देखोगे?” और पानी फेरते ही वे कोरे पन्ने अपने
अंदर छिपी रंग-बिरंगी तस्वीरें ज़ाहिर करने लगते…..|

“नहीं, मैं डर जाता
हूँ, “चलो…..”

उजाले में खुलने वाले
एक दरवाज़े की ओर हम बढ़ लेते हैं…..

दरवाज़े के पार जमघट
जमा है…..

सहसा बहन पलटने लगती
है…..
“क्या हुआ?” मैं
उसका पीछा करता हूँ…..

“उधर सतीश मुझे ढूँढ
रहा है|” वह कहती है…..

“कौन सतीश?” मैं
पूछता हूँ…..

मुझे याद नहीं,
सतीश उसके पति का नाम है…..

बहन चुप लगा जाती है…..

घूमकर मैं उस उजले
दरवाज़े पर नज़र दौड़ाता हूँ…..

दरवाज़े के पार का
जमघट अब
अस्तव्यस्त फैला नहीं रहा…..

कुर्सियों की संघबद्ध
कतारों में जा सजा है…..

कुर्सियाँ मेरी पहचान में आ
रही हैं…..

ये वही कुर्सियाँ हैं, जिन्हें
बहन की रसम-किरिया के दिन सतीश ने अपने मेहमानों के लिए कुल एक घंटे के लिए किराए
पर लिया था…..

मैं फिर बहनकी तरफ मुड़ता
हूँ…..

लेकिन वह अब वहाँ नहीं है…..
मैं पिछले दरवाज़े की तरफ
लपकता हूँ…..

दरवाज़े के पार अँधेरा है…..

घुप्प अँधेरा…..

झन्न से मेरी नींद खुल गई|

मैंने घड़ी देखी|

घड़ी में साढ़े तीन बजे थे|

बिस्तर पर वर्षा और विश्शू
गहरी नींद में सो रहे थे|

पानी पीने के लिए मैं
बिस्तर से उठ खड़ा हुआ|

पानी पी लेने के बाद मैं
बाहर गेट वाले दालान में आ गया|

सड़क की रोशनी दालान के
गमलों को उनकी छायाओं के साथ अलग-अलग वियुक्ति देकर उन्हें पैना रही थी|

नमालूम मेरी उम्र तब कितनी
रही होगी, लेकिन निश्चित रूप से आठ बरस से छोटी ही, क्योंकि बाबूजी की मृत्यु पर
मैं केवल आठ का रहा, जबकि बहन अपने पंद्रहवें वर्ष में दाखिलहो चुकी थी….. और उस
रात हम भाई-बहन बाबूजी की देख-रेख में लुका-छिपी खेल रहे थे और ढूँढने की अपनी
बारी आने पर बहन जब मुझे घर के अंदर कहीं नहीं दिखाई दी थी, तो मैं रोने लगा था|
गला फाड़-फाड़कर| मेरा रोना बहन से बर्दाश्त नहीं हुआ था और वह फ़ौरन मेरे पास चली आई
थी|


“तुम कहाँ छिपी थीं?” मैंने
पूछा था|

“दालान के अँधेरे में|” वह
हँसी थी|

“तुम्हें डर नहीं लगा?”
मैंने पूछा था|

“अँधेरे से कैसा डरना?”
जवाब बाबूजी ने दिया था, “अँधेरा तो हमारा विश्वसनीय बंधु है| वह हमें पूरी ओट
देता है|”

दालान की दीवार पर अपने हाथ
टिकाकर मैं रो पड़ा|

तभी माँने अपने कमरे की बत्ती
जलाई|

“कुछ चाहिए, माँ?” मैं अपने
कमरे में दाखिल हुआ|

“हाँ,” माँ रोने लगीं,
“मालूम नहीं यह मेरा वहम है या मेरा भरम, लेकिन प्रभा मुझे जब भी नज़र आती है, अपनी
चिड़ियों को ढूँढती हुई नज़र आती है…..|

चिड़ियों का शौक बहन ने
बाबूजी से लिया था और उनकी मृत्यु के उन्नीस साल बाद भी उनके इस शौक को ज़ि
दा रखा था|

“जीजी तुम्हें दिखाई देती
हैं, माँ?” मैं माँ के पास बैठ लिया|

“हाँ, बहुत बार| अभी-अभी
फिर दिखाई दी थी…..|”

“मुझे भी| अभी ही| बस, माँ,
आप अब सुबह हो लेने दें, फिर मैं सतीश के घर जाऊँगा और जीजी की चिड़ियाँ यहाँ लिवा
लाऊँगा…..|”

माँ के कमरे से उस रात फिर
मैं दोबारा सोने अपने कमरे में लौटा नहीं|

बैठक में आकर सुबह का
इंतज़ार करने लगा|

और वर्षा के जगने से पहले
ही उस नए दिन के चेहरे और पहनावे के साथ तैयार भी हो लिया|

ठीक सात बजे सतीश अपने घर से
गोल्फ खेलने के लिए निकल पड़ता है और मैं उसे सात से पहले पकड़ लेना चाहता था…..|

“साहब घर पर है न?” पौने
सात के करीब मैंने सतीश के घर की घंटी जा बजाई|

सितंबर का महीना होने के
नाते सुबह सुरमई थी|

“जी हाँ, हैं|” दरवाज़े पर आए
नौकर ने बताया|

“कौन है?” सतीश वहीं बरामदे
में अपने जूते पहन रहा था|
नाइकी स्पोर्ट्स शूज़|

दो साल के अन्दर वह  दूसरी बार विधुर
हुआ था, तिस पर वह तीन बेटियों का बाप भी था, जिनमें से सबसे बड़ी सतरह साल की थी,
लेकिन बाँकुरा उसका दिखाव-बनाव अभी भी किसी छैल-छबीले से कम न था|

“मैं हूँ|” मैं उसके पास जा
पहुँचा|

“क्या, आ?” मुझे देखते ही फीता बाँध
रहे उसके हाथ रुक गए और उसका मुँह खुला का खुला रह गया|

तभी अंदर से एक बिल्ली तेज़ी
से मुझ पर झपटी|

“चीज़ इट (रुक जाओ)|” उसके
पीछे-पीछे पाँच-छः साल की एक लड़की बरामदे में चली आई| लंबाई में बहुत छोटी उसकी शमीज़नुमा
नाइटी उसी रंग के नाइट गाउन से बाहर झाँक रही थी| उस रंग को जीजी ‘बेबी पिंक’ कहा
करती थीं|

“इसे अलग कीजिए|” मैंने कहा|
सतीश की किसी भी बेटी से बात करने का मेरे लिए वह पहला अवसर था, वरना उनसे मेरा
परिचय केवल देखने-भर का रहा था| कुछेक बार जब जीजी उन्हें हमारे घर पर सतीश के साथ
खाने पर लाई भी थीं तो अपने रोष के कारण मैं उनके संग न बैठक में बैठा था न ही
खाने की मेज़ पर|

“कम, मौसी, कम|” लड़की ने
बिल्ली को अपनी गोदी में ले लिया| छोटी टाँगें और गहरी छाती लिए वह बिल्ली लंबे
बालों वाली थी और उन बालों के सलेटी आभा-भेद उसकी बगलों, चेहरे और पूँछ तक पहुँच
रहे थे; पीठ में अस्फुट और ठुड्डी, छाती, पेट और पूँछ के नीचे सफ़ेद| उसकी आँखें
हरी थीं और आँखों के किनारे उसके होंठों और उसकी नाक की तरह काली बहिर्रेखारखे थे|
नाक के बीच लाल रंग भी था|

“इसे आप ‘मौसी’ कहती हैं?”
मैं चौंका|

“हाँ|” लड़की हँसी|

“इसके बिलौटे हैं क्या?”
मैंने पूछा| मैंने सुन रखा था, बिल्लियाँ अपने जीवनकाल के सातवें और बारहवें महीने
के बीच कभी भी प्रजनन कर सकती हैं|

“नो वे (बिलकुल नहीं),”
लड़की लगभग चीख

 पड़ी, “मौसीइज़ नॉट ओल्डर देंन  फाइव मंथज़(मौसी पाँच महीने की है)…..|”

“तुम अंदर जाओ, चुलबुल|”
सतीश ने लड़की को अंदर जाने का आदेश दिया|

“सेचीरियो टू पा, मौसी(पापा
से विदा लो, मौसी)|” लड़की फिर हँसी और हवा में ‘चीरियो’ शब्द दोबारा उछ
लकर लोप हो गई|

“आप कैसे आए?”
सतीश मेरी तरफ मुड़ लिया|

“माँ ने मुझे भेजा है|”
बिना उसके इशारे के मैं उसके सामने वाली कुर्सी पर जा बैठा|

उसके बैठे पर अपना खड़ा रहना मुझे ठीक न लगा|

“क्योंओंओं?” सतीश की परेशानी कायम
रही|

“चिड़ियोंकेलिए…..|”

“कौन-सी चिड़ियाँ?” उसने
हैरानी जतलाई|

“जीजी की चिड़ियाँ|” मैंने
कहा|

“वेचुनगुन?” नौकर एकाएक
हँसने लगा, “वे तो यहाँ आते ही दो-एक महीने में ख़त्म हुई रहीं…..| गलती से उनके
दानों में कोई ज़हरीले किनके-दुनके मिल गए थे…..|”

“हैरत है|” सतीश के हाथ अपने
फीतों पर लौट लिए, “प्रभा ने आपको बताया नहीं…..?”

“जिजी ने आपकी बिल्लीके बारे
में भी कभी नहीं बताया| खैर, क्या मैं वह जगह देख सकता हूँ, जहाँ वे चिड़ियाँ रहती
थीं, अपने चिड़ियाखाने में?” किसी भी बहाने मैं जीजी के घर का पूरा नज़ारा देखना
चाहता था|

“वह चिड़ियाखाना?” नौकर फिर
हँसने लगा, “बेकार उस ढाँचे को कहाँ तक खड़ा रखते? वह भी कब का ढह-गिर गया…..|”

“और वह कोना?” मैंने ज़िद की,
“जहाँ वे रहती थीं?”

“कौन?” सतीश फिर चौंक गया,
“प्रभा?”

“नहीं, हाँ,” कहते-कहते
मेरी ज़ुबान रुक ली, “उनकी चिड़ियाँ…..|”

“वह कोना अब बेबी लोग की ‘मौसी’
का इलाका है…..| उन चिड़ियों का तो अब कहीं नामोनिशान तक बाकी नहीं…..|” नौकर
बोला|

“सॉरी,” सतीश अपनी कुर्सी
से उठ खड़ा हुआ, “एनीथिंग एल्स (कुछ और)?”

“नो, नथिंग|” मैं भी खड़ा हो
लिया|

समापन मुद्रा से सतीश ने
मुझसे हाथ मिलाने के लिए अपना दाहिना हाथ आगे कर दिया|

अभिवादनमें मैंनेअपने हाथ
जोड़े| हैंड शेक से नमस्कार की मुद्रा मुझे ज़्यादा पसंद है|

माँके पास खालीहाथ लौटना
असंभव था सो अपने स्कूटर को सतीश के घर से मैं चिड़िया बाज़ार की ओर बढ़ा ले गया|

जीजी की पसंदीदा हम्मिंग
बर्ड्स (मरमर पंछी) और लालमुनियाँ के तीन-तीन जोड़े मैंने फट से खरीदे और उन्हें
उनके चिड़ियाखाने समेत रिक्शे में रखकर घर के लिए रवाना हो लिया|

“खूब! बहुत खूब!!” हमें
देखते ही वर्षा मुझ पर बरसी, “जीजीकी ज़िम्मेदारियों की आपको खूब ख़बर है!”

“मालूमहै तुम्हें?” अपने चार
वर्षीय वैवाहिक काल में वर्षा पर मैं पहली बार बिगड़ा, “बाबूजीकी मृत्यु के बाद
बाबूजी के दफ्तर में अपने अठारहवें साल में जीजी ने जो वह नौकरी पकड़ी, सो उस पर वह
कितने साल डटी रहीं? किसकी खातिर?”

“मैं क्या जानूँ किसकी
खातिर?” वर्षा ने मुँह फुला लिया, “मुझे तो यही मालूम है, ये जो चिड़ियाँ आई हैं,
इन्हें दाना मुझी को चुगाना है, इनके अंडे मुझी को सहेजने हैं, इनके चूज़े मुझी को
सँभालने हैं…..|”

हम्मिंग बर्ड्ज़


“ये चिड़ियाँ प्रभा की नहीं
हैं|” चिड़ियों को परखते ही माँ बोल पड़ीं|

“क्यों?” मैंने कहा, “सतीश
ने यही चिड़ियाँ तो मुझे थमाई हैं|”

“ये चिड़ियाँ प्रभा की हैं
ही नहीं,” माँ ने दोहराया, “ये लाल हैं क्या? और ये उनकी मुनियाँ? कतई नहीं|
टिटहरी पर लाल रंग थोप दिया गया है| …..और ये? मरमरपंछी? ऐसे कमज़ोर पैरों वाली?
जिन्हें मैंने नीचे बैठाला तो वे बैठी की बैठी रह गईं? आगे की उड़ान तक नहीं ले पा
रहीं?जबकि ये मरमर पंछी तो आगे तो एक तरफ, तिरछी और उलटी उड़ान भी भर लेती हैं? और
चोंच तो देखो इनकी! कितनी छोटी हैं! बतासी हैं ये| मरमर पंछी नहीं| मरमर पंछी की
तो चोंच ही आधी लंबाई के बराबर रहती है…..|”

“इन्हें आप वापस क्यों नहीं
कर आते?” माँ के गुमान पर वर्षा ने पहली बार लगाम चढ़ाई, “जीजाजी पर ज़ाहिर तो होना
ही चाहिए कि हम जानते हैं ये चिड़िया नकली हैं|”

“तुम बताओ, माँ!” मैंने माँ
की तरफ देखा|

“ज़रूर वापस कर देनी चाहिए,”
माँ की उत्तेजना बढ़ ली, “और सतीश से पूछना भी चाहिए, हमारी प्रभा की चिड़ियाँ गईं
कहाँ?”

चिड़ियाँ लौटाने फिर मैंने
उसी पैर चिड़िया बाज़ार का रुख किया|

दीपक शर्मा 

लेखिका

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दीपक शर्मा जी का परिचय –

जन्म -३० नवंबर १९४६

संप्रति –लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज के अंग्रेजी विभाग के प्रोफेसर पद से सेवा निवृत्त
सशक्त कथाकार दीपक शर्मा जी सहित्य जगत में अपनी विशेष पहचान बना चुकी हैं | उन की पैनी नज़र समाज की विभिन्न गतिविधियों का एक्स रे करती है और जब उन्हें पन्नों पर उतारती हैं तो शब्द चित्र उकेर देती है | पाठक को लगता ही नहीं कि वो कहानी पढ़ रहा है बल्कि उसे लगता है कि वो  उस परिवेश में शामिल है जहाँ घटनाएं घट रहीं है | एक टीस सी उभरती है मन में | यही तो है सार्थक लेखन जो पाठक को कुछ सोचने पर विवश कर दे |
दीपक शर्मा जी की सैंकड़ों कहानियाँ विभिन्न पत्र –पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं जिन्हें इन कथा संग्रहों में संकलित किया गया है |

प्रकाशन : सोलहकथा-संग्रह :

१.    हिंसाभास (१९९३) किताब-घर, दिल्ली
२.    दुर्ग-भेद (१९९४) किताब-घर, दिल्ली
३.    रण-मार्ग (१९९६) किताब-घर, दिल्ली
४.    आपद-धर्म (२००१) किताब-घर, दिल्ली
५.    रथ-क्षोभ (२००६) किताब-घर, दिल्ली
६.    तल-घर (२०११) किताब-घर, दिल्ली
७.    परख-काल (१९९४) सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
८.    उत्तर-जीवी (१९९७) सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
९.    घोड़ा एक पैर (२००९) ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली
१०.           बवंडर (१९९५) सत्येन्द्र प्रकाशन, इलाहाबाद
११.           दूसरे दौर में (२००८) अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद
१२.           लचीले फ़ीते (२०१०) शिल्पायन, दिल्ली
१३.           आतिशी शीशा (२०००) आत्माराम एंड सन्ज़, दिल्ली
१४.           चाबुक सवार (२००३) आत्माराम एंड सन्ज़, दिल्ली
१५.           अनचीता (२०१२) मेधा बुक्स, दिल्ली
१६.           ऊँची बोली (२०१५) साहित्य भंडार, इलाहाबाद
१७.           बाँकी(साहित्य भारती, इलाहाबादद्वारा शीघ्र प्रकाश्य)

ईमेल- dpksh691946@gmail.com

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