फेसबुक पर भावनाओं को व्यक्त करने के लिए तरह तरह के इमोजी उपलब्द्ध हैं , हंसने के रोने के , खिलखिलाने के शोक जताने के या दिल ही दे देने के , इतनी तकनीकी सुविधा के बावजूद हम एक भावना पर कितनी देर रह पाते हैं | किसी की मृत्यु पर एक रीता हुए इमोजी क्लीक करने के अगले ही पल किसी के चुटकुले पर बुक्का फाड़ कर हँसने वाले इमोजी को चिपकाते समय हम ये भी नहीं सोचते कि क्या एक भावना से दूसरी भावना पर कूदना इतनी जल्दी संभव है या हम भावना हीन प्रतिक्रिया दे रहे हैं | कुछ लोग सोशल मीडिया पर समय की कमी बताते हुए इसे ठीक बताते हैं | परन्तु दुखद सत्य ये है कि ये बात केवल फेसबुक तक सीमित नहीं है … हमने इसे अपनी वास्तविक दुनिया में उतार लिया है | हम स्वयं संवेदनाओं के इमोजी बनते जा रहे हैं | रिश्तों में दूरी इसी का दुष्परिणाम है |
संवेदनाओं के इमोजी
मैं बात कर रही हूँ एक सर्वे रिपोर्ट की |ये सर्वे अभी हाल में
विदेशों में हुए हैं | सर्वे
का विषय था कि “ कौन
लोग अपने जीवन में ज्यादा खुश रहते हैं ?”यहाँ ख़ुशी का अर्थ जीवन
के ज्यादातर हिस्से में संतुष्ट रहना था | इसमें जिन लोगों पर
सर्वे किया गया गया उन्हें बचपन से ले कर वृद्ध होने तक निगरानी में रखा गया | इसमें से कुछ लोग
जिंदगी में बहुत सफल हुए, कुछ
सामान्य सफल हुए और कुछ असफल | कुछ के पास बहुत पैसे
थे और कुछ को थोड़े से रुपयों में महीना काटना था | ज्यादातर लोगों को लगा
कि जिनके पास पैसा है , सफलता
है वो ज्यादा खुश होंगे पर एक आमधारणा के विपरीत सर्वे के नतीजे चौकाने वाले थे | सर्वे के अनुसार वही
लोग ज्यादा खुश या संतुष्ट रहे जिनके रिश्ते अच्छे चल रहे थे |
आज हम अपने रिश्तों को प्राथमिकताओं में पीछे रखने लगे हैं | रिश्ते त्याग पर नहीं
स्वार्थ पर चल रहे हैं | “गिव एंड टेक “…बिलकुल व्यापार की तरह | ऐसे ही एक व्यापारी से
टकराना हुआ जिनके पिताजी १५ दिन पहले गुज़र गए थे | सामान लेने आई एक महिला
के सहानुभूति जताने पर बोले , ” अरे क्या बताये , पिताजी तो चले गए ,दुकान ठीक से ना चला
पाने के कारण नुक्सान मेरा हो रहा है | जबकि तेरहवीं तक भी मैं
बीच -बीच में खोलता था दुकान ताकि लोग मुझे भूल ना जाएँ |”
आश्चर्य
ये हैं कि जो अपने पिताजी को १३ दिन तक सम्मान से याद नहीं कर सके वो ये सुनिश्चित
कर लेना चाहते हैं कि दुनिया उन्हें और उनकी दुकान को भूले नहीं | स्नेह वृक्ष को बहुत
सींचना पड़ता है तब छाया मिलती है |
आत्महत्या की खबर सुर्ख़ियों में है |कारण घरेलु झगड़े हैं | पति -पत्नी के बीच
मतभेद होना सामान्य बात है | लेकिन झगड़े के बाद यहाँ
तक झगडे के समय भी एक दूसरे की चिंता फ़िक्र दिखती है | जहाँ झगडे में दुश्मनी
का भाव हो, ना
निकल पाने की घुटन हो , समाज
के सामने अपनी व् अपने परिवार की जिल्लत का भय हो वहां निराश व्यक्ति इस ओर बढ़
जाता है | झगडे
दो के बीच में होते हैं पर अफ़सोस उस समय उसको सँभालने वाला परिवार का कोई भी सदस्य
नहीं होता |
गुरु कहते हैं ,” दुःख दर्द , शोक
सब फिजूल है … समय की बर्बादी | आगे देखो , वो है सफलता का लॉली
पॉप , उठो
कपड़े झाड़ों ,दौड़ों
….देखो वो चूस रहा है , उसे
हटा कर तुम भी चूसो … और मनुष्य मशीन में बदलने लगता है | लेकिन परिणाम क्या है ?
सफलता की दौड़ में लगा हर व्यक्ति अकेला है , उसकी सफलता पर खुश होने वाला उसका परिवार भी नहीं होता | संदीप माहेश्वरी ने एक बार कहा था कि जिन्दगी को दो खंबों पर संतुलित करना आवश्यक है | एक सफलता का खम्बा , दूसरा परिवार का खम्बा , एक भी खम्बा कमजोर पड़ गया तो दूसरा महत्वहीन हो जाता है | दोनों को संतुलित कर के चलना आवश्यक है |
एप्पल
के संस्थापक स्टीव जॉब्स जिन्होंने सफलता के कीर्तिमान स्थापित किये उन्होंने भी
अपने अंतिम समय में कहा ,” मृत्यु के समय आप को ये नहीं याद आता की आप कितने सफल हैं या आपने
जीवन में कितने पैसे कमाए बल्कि ते याद आता है आप ने अपने परिवार के साथ अपने , अपनों के साथ कितना समय
व्यतीत किया है |
सब जान कर भी अनजान बनते हुए हम सब एक दिशा हीन दौड़ में शामिल हो गए हैं | जहाँ रुक कर , ठहर कर किसी के दुःख में सुख में साथ देना समय की बर्बादी लगने लगा है , बस सम्बंधित व्यक्ति के सामने चेहरे पर जरा सा भाव लाये और आगे बढ़ गए …अपनी रेस में |
सब इस दौड़ में संवेदनाओं के चलते , फिरते इमोजी बनते जा
रहे हैं | इंसान का मशीन में तब्दील होना क्या रंग लाएगा |
कभी
ठहर कर सोचियेगा |
वंदना बाजपेयी
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बिल्कुल सही कहा वंदना दी। हमें रिश्तों और सफलता का संतुलन साधते आना चाहिए। विचारणीय आलेख्।