हिंदी मेरा अभिमान

हिंदी मेरा अभिमान
आज जब पीछे मुड़ कर देखती हूँ और सोचती हूँ  कि हिंदी कब और कैसे मेरे जीवन में इतनी घुलमिल गई  तो इसका पूरा-पूरा शत-प्रतिशत श्रेय माँ और पापा को जाता है और किस तरह जाता है इसके लिए 
मुझे अपने बचपन में लौटना होगा।

संस्मरण -हिंदी मेरा अभिमान 

          मेरे पापा बाबूराम वर्मा हिंदी के कट्टर प्रेमी थे। एक माँ के रूप में वे हिंदी से प्यार करते थे। काम करते-करते वे बच्चन जी के लिखे गीत गुनगुनाते रहते थे। आज मुझसे बोल बादल, आज मुझसे दूर दुनिया, मधुशाला, मधुबाला गाते। सुनते-सुनते मुझे भी कई गीत, रुबाइयाँ याद हो गई थीं। बाद में शायद यही मेरी पी एच डी करने के समय बच्चन साहित्य पर शोध करने का कारण भी बनी होगी।
         तो हिंदी से मन के तार ऐसे जुड़े कि पराग, चंदामामा, बालभारती, चंपक मिलने की प्रतीक्षा रहने लगी। साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग और उसमें भी डब्बू जी वाला कोना सबसे पहले देखना… बड़ा आनंद आता। लेखकों, कवियों के प्रति सम्मान की भावना भी उत्पन्न होने लगी। आठवीं कक्षा में थी, तब विद्यालय पत्रिका में मेरी पहली छोटी सी कहानी छपी थी। उस समय जिस आनंद की अनुभूति हुई थी, आज भी जब उसके बारे में सोचती हूँ तो उस आनंद की सिहरन आज भी जैसे अनुभव होती है वैसी ही।
        पापा की अलमारी से ढूँढ-ढूँढ कर पुस्तकें , सरस्वती, कहानी, विशाल भारत निकाल कर पढ़ना एक आदत बन गई थी । शिवानी, मालती जोशी. उषा प्रियंवदा, मन्नू भंडारी, शशिप्रभा शास्त्री, रांगेय राघव आदि को पढ़ने का अवसर मिला। माँ से विवाहों, पर्व-त्योहारों के अवसर पर लोकगीत सुने तो यह विधा भी मन के निकट रही।
            हिंदी की पुस्तकें, पत्रिकाएँ पढ़ने का जुनून कुछ इस तरह घर में सबको था कि जब घर में सब होते तो कोई न कोई पुस्तक-पत्रिका हाथ में लिए पढ़ने में लगे होते। यह दृश्य भी देखने लायक हुआ करता था। पापा तो नौकरी के बाद बचे अपने समय का भरपूर उपयोग पढ़ने-लिखने में किया करते थे।
          घर में पूरा वातावरण हिंदीमय था। माँ पर अवश्य कभी अपनी आस-पड़ोस की सखियों की देखा-देखी कभी अँग्रेजी दिखावे की दबी सी भावना आ जाती, पर टिक नहीं पाती थी।
           जब मेरे छोटे भाई का मुंडन समारोह होना था और उसके निमंत्रण पत्र छपवाने की बात आई तो माँ ने कहा यहाँ सभी अँग्रेजी में छपवाते हैं तो हम भी छपवा लें, हिंदी में छपे निमंत्रण पत्र बाँटेंगे तो देखना कोई आयेगा भी नहीं। पर पापा कहाँ मानने वाले ? बोले.. कोई आये ना आये, निमंत्रण पत्र तो हिंदी में ही छपेंगे और बटेंगे। ऐसा ही हुआ। मैं पापा के साथ निमंत्रण पत्र बाँटने भी गई थी और सब लोग आये थे। उस समय कई दिनों तक इसकी चर्चा होती रही रही थी और कई लोगों ने इसका अनुकरण भी किया था। इस बात ने मेरे मन पर बहुत प्रभाव डाला था।
           मेरे पापा देहरादून के वन अनुसंधान संस्थान (एफ. आर. आई ) में हिंदी अनुवादक के पद पर कार्यरत थे। वानिकी से संबंधित अँग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया करते थे। उनकी अँग्रेजी भी बहुत अच्छी थी। पर वे बातचीत हिंदी में ही करते थे। आस-पड़ोस के बच्चों के माता-पिता अँग्रेजी झाड़ते रहते थे। तो मैं कभी सोचती कि मेरे पापा क्यों ऐसा नहीं करते और एक दिन मैंने उनसे पूछ ही लिया  कि आप कभी लोगों से अँग्रेजी में क्यों बातचीत नहीं करते ? उसका जो उत्तर मुझे मिला था उससे मेरे मन में पापा के प्रति सम्मान और भी अधिक हो गया था। उन्होंने मुझे कहा था… जो हिंदी बोल-समझ सकते हैं उनसे हिंदी में ही बात करनी चाहिए, पर जो हिंदी नहीं बोल-समझ सकते वहाँ अँग्रेजी बोलनी मजबूरी है तो बोलनी चाहिए। मैं ऐसा ही करता हूँ।आज ऐसा सोचने वाले कितने हैं?
           उनसे हिंदी में अनुवाद करवाने के लिए बहुत लोग आते थे और उसके लिए वह बहुत ही कम पैसे लिया करते थे। कोई-कोई स्वयं पैसे पूछ कर काम करवाता और पैसे देने का नाम न लेता। मैं कहती… आपने अपना समय लगा कर काम किया और उसने पैसे भी नहीं नहीं दिए तो हमारा क्या लाभ हुआ? उलटा नुकसान ही हुआ। तो वह कहते… नुकसान तो हो ही नहीं सकता।मैं पूछती कैसे… तो वह बताते… मेरा किया अनुवाद जब वह व्यक्ति छपवायेगा तो उसे बहुत सारे लोग पढ़ेंगे, तो यह मेरी हिंदी का प्रचार-प्रसार ही हुआ, तो इसमें नुकसान कहाँ? लाभ ही लाभ है। पैसा तो केवल मुझ तक पहुँचता है, पर मेरे किये अनुवाद से हिंदी बहुत लोगों तक पहुँचती है। ऐसी थी अपनी हिंदी माँ के प्रति उनकी सोच…. जिसने मेरे अंदर भी हिंदी प्रेम इतना विकसित किया कि बी.ए. करते समय मैं संस्कृत में एम.ए. करना चाहती थी, पर बी.ए. करने के बाद मैंने एम.ए. हिंदी में प्रवेश लिया था।
             मेरे पिता ने कभी भी उपहार में मुझे पैसे-कपड़े नहीं दिये। वे हमेशा यहीं कहा करते थे कि मेरी पुस्तकों का संग्रह ही तुम्हारे लिए मेरा उपहार है, जिसका उपयोग केवल तुम ही मेरे साथ भी और मेरे चले जाने के बाद भी, करोगी। आज वे ही मेरी अमूल्य निधि हैं।
           ऐसे ही हिंदीमय वातावरण में पलते-बढ़ते-पढ़ते मेरी कल्पनाओं ने भी अपने पंख पसारने आरंभ कर दिये थे और मेरी कॉपी छोटी-छोटी कविता, कहानी और लेखों से भरने लगी थी।
           अपने पापा से मिली हिंदी प्रेम और साहित्य की विरासत से मुझमें भी छोटे-छोटे विचारों को मूर्त करने के लिए निर्णय लेने -कहने की क्षमता आने लगी।
           मैंने अरुणाचल प्रदेश के शिक्षा विभाग में हिंदी अध्यापिका ( टी.जी. टी.) के रूप में चौबीस वर्ष तक कार्य किया। वहाँ सिल्ले उच्च माध्यमिक विद्यालय में विद्यालय पत्रिका निकलती थी जिसमें अँग्रेजी और स्थानीय बोली की रोमन में लिखी रचनायें ही ली जाती थीं। मैंने उसमें हिंदी विभाग भी रखवाया और विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करके छोटी छोटी कवितायें, कहानियाँ लिखवाई, उन्हें ठीक करके, हिंदी विभाग की संपादिका बन, उन्हें प्रकाशित भी करवाया। इसी तरह सिमोंग माध्यमिक विद्यालय में रहते हुए विद्यालय पत्रिका निकालने का निर्णय किया। बहुतों ने हतोत्साहित भी किया, पर उसको निकालने का पूरा दायित्व अपने ऊपर लेकर बच्चों से और उत्साहित करने के लिए शिक्षकों से भी हिंदी, अँग्रेजी और स्थानीय बोली… तीनों की रचनाएँ लिखवा कर एकत्रित की। मेरे पति भी अपने हिंदी प्रेम के कारण ऐसे कार्यों में आगे रहते और पूरा सहयोग करते ।अपने पापा की सहायता से देहरादून में विद्यालय पत्रिका को छपवाया और उस समय के मुख्यमंत्री श्री गेगोंग अपांग से उसका विमोचन भी करवाया था। मेरे पति तब उस विद्यालय में प्रधानाध्यापक थे।तब इसकी वहाँ बहुत चर्चा होती रही थी कई दिनों तक। 
              मेरी बेटी का विवाह हुआ  तो उसका निमंत्रण पत्र भी हिंदी में छपा। मैंने उसमें भी अपने मन के कई प्रयोग किये। अपनी लिखी कविता भी उसमें रखी।
           तो जिस तरह मेरे पापा ने अपने हिंदी प्रेम से अपनी हिंदी माँ के लिए जीवन की अंतिम साँस तक कार्य करते हुए मेरी जड़ों को सींचा और एक फलदार वृक्ष बनाया उसी तरह मैं भी अपने बच्चों  को उसी हिंदी प्रेम में बढ़ते हुए देखने के लिए संस्कारित करने में लगी हूँ। बेटे के पच्चीसवें वर्ष में प्रवेश करने पर उसके लिए लिखी कविताओं का संग्रह “ उपहार “ उसे भेंट किया, जो अंतरा शब्दशक्ति प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है और जन्मदिन पर मैं उसे पुस्तक दे सकूँ… इसके लिए प्रीति सुराना ने अपने और कामों की व्यस्तता के बीच से समय निकाल कर मुझे पुस्तक एक दिन पहले उपलब्ध करवा दी थी। बेटी के जन्मदिन पर भी अब आगे मेरा यही उपहार  होने वाला है।
         मेरे पापा का हिंदी प्रेम का मुझमें अंकुरित हुआ बीज अब धीरे-धीरे मेरे बच्चों में भी पनप रहा है। नाना की इस विरासत पर उन्हें भी उतना ही गर्व है जितना मुझे है।
         हिंदी..पापा का, मेरा और मेरे बच्चों का ही अभिमान नहीं, हम सबका, देश का, राष्ट्र का अभिमान है।
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डा० भारती वर्मा बौड़ाई
लेखिका
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