वो कन्नौज की यादगार दीपावली

वो कन्नौज की यादगार  दीपावली

यूँ तो हर बार दिवाली
बहुत खास होती है पर उनमें से कुछ होती हैं जो स्मृतियों के आँगन में किसी खूबसूरत
रंगोली की तरह ऐसे सज जाती हैं कि हर दीवाली पर मन एक बार जाकर उन्हें निहार ही
लेता है | ऐसी ही दीवालियों में एक थी मेरे बचपन में मनाई गयी कन्नौज की दीपावली |


वो कन्नौज की यादगार  दीपावली



कन्नौज यूँ तो
कानपुर के पास बसा एक छोटा शहर है पर इतिहास में दर्ज है कि वो कभी सत्ता का
प्रतीक रहा था | राजा हर्षवर्धन के जमाने में कन्नौज की बहुत शान हुआ करती थी |
शायद उस समय लडकियां चाहती थी कि हमारी शादी कन्नौज में ही हो , तभी तो, “कन्नौज –कन्नौज
मत करो बिटिया कन्नौज है बड़े मोल “जैसे लोक गीत प्रचलित हुए , जो आज भी विवाह में
ढोलक की थाप पर खूब गाये जाते हैं | खैर हमारी दोनों बुआयें
 इस मामले में भाग्यशाली रहीं कि वो कन्नौज ही
बयाही गयीं |


तो अब स्मृति एक्सप्रेस को दौडाते हुए  आते हैं कन्नौज की दीवाली पर … बात तब की है जब मैं कक्षा पाँच
में पढ़ती थी | दीपावली पर हमारी बड़ी बुआ , जो की लखनऊ में रहती थीं अपने
परिवार के साथ कन्नौज अपने पैतृक घर में दीपावली मनाने जाती थी | उस बार वो जाते समय हमारे
घर कुछ दिन के लिए ठहरीं, आगे कन्नौज जाने का विचार था |बड़ी बुआ की बेटियाँ मेरी
व् मेरी दीदी की हम उम्र थीं | हम लोगों में बहुत बनती थीं | हम लोग साथ –साथ
खेलते , खाते –पीते और लड़ते थे |वो दोनों अक्सर कन्नौज की दीवाली की तारीफ़ किया
करती थीं | जैसी दीवाली वहां मनती है कहीं नहीं मनती |फिर वो दोनों जिद करने लगीं
कि हम भी वहां चल कर वैसी ही दीपावली मनाएं | हमारा बाल मन जाने को उत्सुक हो गया
परन्तु हमें माँ को छोड़ कर जाना अच्छा नहीं लग रहा था | इससे पहले हम बिना माँ के
कभी रहे ही नहीं थे , पर बुआ ने लाड –दुलार से हमें राजी कर ही लिया |





जैसे ही हमारी कार घर से थोडा आगे बढ़ी मैंने रोना शुरू कर दिया , मम्मी छूटी जा रहीं हैं | दीदी ने समझाया , बुआ ने समझाया फिर जा कर मन शांत हुआ | उस दिन मुझे पहली बार लगा कि लडकियाँ  विदाई में रोती क्यों हैं | खैर हँसते -रोते हम कन्नौज पहुचे | बुआ की बेटी ने बड़े शान से बताया ,” यहाँ तो मेरे बाबा का नाम भी किसी रिक्शेवाले के सामने ले दोगी   तो वो सीधे मेरे घर छोड़ कर आएगा , इतने फेमस हैं हम लोग यहाँ “| मन में सुखद  आश्चर्य हुआ ,ये तो पता था की बुआ बहुत अमीर हैं पर उस समय  लगा किसी राजा के राजमहल में जा रहे हैं, जहाँ दरवाजे पर संतरी खड़े होंगें जो पिपहरी बजा रहे होंगे और फूलों से लदे हाथी हमारे ऊपर पुष्प वर्षा करेंगे |


बाल मन की सुखद कल्पना के विपरीत , वहां संतरी तो नहीं पर कारखाने के कई कर्मचारी जरूर खड़े  थे | तभी दादी ( बुआ की सासु माँ )लाठी टेकती आयीं |  दादी ने हम लोगों का बहुत स्वागत व दुलार किया  और हम लोग खेल में मगन हो गए | 


क्योंकि मेरी बुआ काफी सम्पन्न परिवार की थीं | उनका इत्र  का कारोबार था | वहां का इत्र  देश के कोने -कोने में जाता था | इसलिए वहाँ की दीपावली हमारे घर की दीपावली से भिन्न थी | पकवान बनाने के लिए कई महराजिन लगीं  हुई थी , बुआ बस इंतजाम देख रहीं थीं | जबकि मैंने अपने घर में यही देखा था कि दीवाली हो या होली, माँ अल सुबह उठ कर जो रसोई में घुसतीं तो देर  शाम तक निकलती ही नहीं थीं | माँ की रसोई में भगवान् का भोग लगाए जाने से पहले हम बच्चे भोग लगा ही देते … और बीच -बीच में जा कर भोग लगाते ही रहते | माँ प्यार में डपट लगा तीं पर वो जानतीं थीं कि बच्चे मानेंगे नहीं , इसलिए भगवान् के नाम पर हर पकवान के पहले पांच पीस निकाल कर अलग रख देंती थी ,ताकि बच्चों को भगवान् से पहले खाने के लिए ज्यादा टोंकना  ना पड़े | परन्तु यहाँ पर स्थिति दूसरी थी | दादी , बुआ दादी और महाराजिनों की उपस्थिति  हम में संकोच भर रही थी, लिहाज़ा हम ने तय कर लिया चलो इस बार भगवान् को पहले खाने देते हैं | 




त्यौहार के दिन पूरा घर बिजली  जगमग रोशिनी से नहा गया | आज तो लगभग हर घर में इतनी ही झालरे लगती हैं पर तब वो जमाना किफायत का था | आम लोग हलकी सी झालर लगाते थे, ज्यादातर घरों में दिए ही जलते थे | इतनी लाईट देखकर मैंने सोचा ,” क्या यहाँ लाईट नहीं जाती है |” बाद में पता चला की लाईट तो जाती है पर जनरेटर वो सारा बोझ उठा लेता है |




दीपावली वाले दिन हम सब को एक बड़ी डलिया  भर के पटाखे जलाने को मिले | बुआ की बेटी ने कहा, ” इतने पटाखे कभी देखे भी हैं ? ” मैंने डलिया में देखा ,वास्तव में हमारे घर में कुल मिला कर इससे कम पटाखे ही आते थे | एक कारण ये भी था कि मैं और दीदी पटाखे छुडाते नहीं थे , बस भाई लोग थोड़े शगुन के छुड़ाते थे , बहुत शौक उन्हें भी नहीं था | पिताजी हमेशा समझाया करते थे कि ये धन का अपव्यय है और हम सब बिना तर्क  दिए मान लेते | खैर , मैंने  उससे कहा , “मैं पटाखे छुड़ाती ही नहीं |” उसने कहा  इस बार छुडाना फिर देखना अभी तक की सारी दीवाली भूल जाओगी |


शाम को हम सब पटाखे ले कर घर के बाहर पहुंचे | उस बार पहली बार मैंने पटाखे छुडाये | या यूँ कहे पहली बार पटाखे छुडाना सीखा | थोड़ी देर डरते हुए पटाखे छुड़ाने के बाद मैं इस कला में पारंगत हो गयी | हाथ में सीको बम लेकर आग लगा कर दूर फेंक देती और बम भड़ाम की आवाज़ के साथ फट जाता | इस आवाज में कुछ जादू था कि फिर दुबारा यही आवाज़ सुनने का मन करता | दो -तीन घंटे  में वो सारे पटाखे फूट गए | डलिया  खाली हो गयी | सामने कुछ गरीब बच्चे हमें पटाखे छुड़ाते हुए देख रहे थे |  मन में ग्लानी सी हुई | घर में जब भी पटाखे भाई लोग छुड़ाते , कोई भी बच्चा आ जाता तो उन थोड़े पटाखों में से भी एक -आध उन्हें दे देते थे | परन्तु आज मैं ये पटाखे इस लिए नहीं दे पायी क्योंकि वो मेरे नहीं थे … मुझे मिले थे | धन का अपव्यय और उन बच्चों के चेहरे, जो भी हो उस दिन पहली बार मेरे मन में साम्यवाद का उदय हुआ | पहली बार प्रश्न उठा ,” ये दुनिया सबके लिए एक समान क्यों नहीं है ?”




पटाखे छुड़ाने के बाद हम सब दादी के पास गए | अब को एक -एक हंडिया भर के मिठाई मिली | दादी मुस्कुराते हुए कह रहीं थी , ” लो अपनी -अपनी खाओ , ताकी किसी का झगड़ा ना हो | इतनी मिठाई कभी खायी नहीं थी | घर में बड़े भैया ही मिठाई के शौक़ीन थे | बंटवारा तो नहीं हुआ पर हम बहने पहले से ही कह देती थी , भैया हमारे हिस्से की भी आप ले लेना |  मैंने दादी से कहा , मैं दो पीस ले लेती हूँ | बुआ की बेटी चिहुकी , ” खा लो , खा लो , हमेशा याद करोगी कन्नौज की दीवाली ,इतनी मिठाइयाँ यहाँ हर बच्चे को अलग-अलग मिलती हैं , जितनी आम घरों में आती ही नहीं | ” मैंने चुपचाप मिठाई ले ली , और उतनी ही चुपचाप तरीके से बस एक पीस ले कर घर के बाहर खड़े बच्चों में बाँट दी | उस समय माँ के शब्द कानों में गूंज रहे थे , ” बांटने में खुद खाने से कहीं ज्यादा सुख है |” 


सच माँ , और माँ की याद में आँखे फिर छलछला गयीं | 


एक दिन और रुकने के बाद हम द्युज  वाले दिन घर आ गए | पिताजी ने छोटी सी लर बिजली के बल्बों की लगाई  हुई थी , नन्हें नहें  दिए अपनी कल की रोशिनी की कहानी कह रहे थे | माँ ने लक्ष्मी के पाँव बनाए थे | आँगन में चावल के आटे  से चौक पूरा हुआ था | सात भाइयों के बीच एक बहन | सब कुछ कितना सादा था , कितना सुरुचिपूर्ण और कितना अपना |  माँ हमेशा की तरह रसोई में हल्दी नमक से सनी हुई थीं | मैंने झट से शक्कर पारे की डलिया  में हाथ डाला और मुट्ठी भर ले लिए | माँ देख कर मुस्कुरायीं | माँ छोटी -छोटी थैलियों में खुद की बनायीं मिठाई पैक कर रहीं थीं | माँ क्या ये सब दूसरों को दे दोगी ? पहली बार मैंने ये प्रश्न माँ से किया और माँ उसी चिर-परिचित अंदाज में बोलीं , ” बाँट के खाने में खुद खाने से कहीं ज्यादा सुख है |” “सच माँ ” कहते हुए मैं माँ से चिपक गयी | 






आज इस घटना को बरसों बीत गए | उस समय मेरी उम्र बहुत कम थी पर चमक-दमक दिखावे के द्वारा दूसरों में हीनता बोध की जो बात मेरे दिमाग में आई तो बैठ ही गयी | उसके बाद हर दीवाली सादगी के साथ ही मनायी | अभी भी बिजली की तमाम तामझाम से परहेज करती हूँ | वास्तव में वो एक यादगार दीपावली थी जिसने मेरे अंदर, मेरी सोच में  बहुत परिवर्तन किये | आज जब लगभग हर घर में बहुत तड़क -भड़क वाली दीपावली देखती हूँ तो सोचती हूँ , इस तड़क -भड़क के नीचे कितनी वंदनाएं होंगी जिनको शांति से दिए वाली , चावल के आटे पूरे हुए चौक वाली और बाँट कर खाने वाली दीपावली पसंद होगी , पर इतने शोर में उनकी आवाज़ दब गयी है …. जरूरत है उस आवाज़ को सुनने और उन्हें एक जुट होने की , ताकि सही अर्थों में ये पूरी धरती दिलों की दीपावली की रोशिनी से नहा सके |


दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं  




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4 thoughts on “वो कन्नौज की यादगार दीपावली”

  1. बहुत ही सादगी भरा प्रेरक अनुभव !!!!!! एसा लगता है की पिछला वो जमाना मन में एक मिठास भर गया | रिश्तों की वो सादगी और अपनापन बीते समय की बात हुई | अब कितना दिखावा हो गया है दुनिया में | सादर आभार वन्दना जी — कनौज की मधुरता भरी स्मृतियों से साक्षात्कार कराने के लिए |

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  2. सरल बाल मन का कितना सूक्ष्म विश्लेषण किया है आपने…बेहद सुंदर संस्मरण है👌👌

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  3. दिल जीत ले गयीं आप दी ।
    सुंदर ,सुखद ,संवेदनमय अनुभव।
    वाह!��शुभकामनाएँ आपको।

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  4. स्मृतियों का संसार दिल को सुकून के साथ साथ एक अलग दुनिया में ले जाता है …
    बहुत सादा और सुन्दर तरीके से रखा है विषयको आपने …

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