हम सब वायु , ध्वनि , जल और मिटटी के प्रदूष्ण के बारे में पढ़ते हैं … पर एक और प्रदुषण है जो खतरनाक स्तर तक बढ़ा है , इसे भी हमने ही खतरनाक स्तर तक बढाया है पर हम ही इससे अनभिज्ञ हैं … कैसे ? आइये समझें मंगत्लाल की दिवाली से
काव्य कथा -मंगतलाल की दिवाली
देखते ही पहचान लिया उसे मैंने
आज के अखबार में दिखाने को दिल्ली का प्रदूष्ण
जो बड़ी-बड़ी लाल
–लाल आँखों वाले का
–लाल आँखों वाले का
छपा है ना फोटू
वो तो मंगत लाल है
अरे , हमारे इलाके ही में सब्जियां
बेंचता है मंगत लाल
बेंचता है मंगत लाल
दो पैसे की आस -खींच लायी है उसको
परदेश में
परदेश में
सब्जी के मुनाफे में खाता रहा है आधा पेट
बाकी जोड़ -जोड़ कर भेज देता है अपने देश
उसी से भरता है पेट परिवार का , जुड़ते हैं बेटी की शादी के पैसे
और निपटती है ,हारी -बिमारी ,
तीज -त्यौहार और मेहमान
कई बरस से गया नहीं है अपने गाँव ,
पूछने पर खीसें निपोर कर देता है
उत्तर
उत्तर
का करें ?
जितना किराया -भाडा में खर्च करेंगे
उतने में बन जायेगी , टूटी छत
या हो जायेगी घर की पुताई
या जुड़ जाएगा बिटिया के ब्याह के लिए
आखिर सयानी हो रही होगी
चार बरस हो गए देखे हुए ,
मंगतलाल बेचैन दिखा इस दीवाली पर गाँव
जाने को
जाने को
तपेदिक हो गया अम्मा को
मुश्किल है बचना
हसरत है बस देख आये एक बार
इसीलिए उसने दीवाली से कुछ रोज पहले
भाजी छोड़ लगा लिया
दिये का ठेला
सीजन की चीज बिक ही जायेगी ,
मुनाफे से जुड़ जाएगा किराए का पैसा
और जा पायेगा अपने गाँव
मैंने, हाँ मैंने देखा था मंगत को ठेला लगाये हुए
मैं जानती थी कि उसकी हसरत
फिर भी अपनी बालकनी में बिजली की झालर लगाते हुए
मेरे पास था , अकाट्य तर्क
एक मेरे ले लेने से भी क्या हो जाएगा ,
बाकि तो लगायेगे झालर
शायद यही सोचा पड़ोस के दुआ जी ने ,
वर्मा जी ने और सब लोगों ने
वर्मा जी ने और सब लोगों ने
सबने वही किया जो सब करते हैं ,
सज गयीं बिजली की झालरे घर -घर , द्वार -द्वार
और बिना
बिके खड़ा रह गया दीपों का ठेला
बिके खड़ा रह गया दीपों का ठेला
अखबार में अपनी फोटू से बेखबर
आज मंगतलाल फिर बेंच रहा है साग –भाजी
आंखे अभी भी है लाल
पूछने पर बताता है
भारी नुक्सान हो गया बीबीजी ,
बिके नहीं दिए, नहीं जुड़ पाया
किराए-भाड़े का पैसा
किराए-भाड़े का पैसा
और कल रात अम्मा भी नहीं रहीं ,
कह कर
ठेला ले कर आगे बढ़ गया मंगत लाल
शोक मनाने का समय नहीं है उसके पास
उसके चलने से चल रहीं हैं कई जिंदगियाँ
यहाँ से बहुत दूर , उसके गाँव में
मैं वहीं सब्जी का थैला पकडे जड़ हूँ
ओह मंगत लाल ….तुम्हारी दोषी हूँ
मैं , दुआ जी , शर्मा जी और वो सब
मैं , दुआ जी , शर्मा जी और वो सब
जिन्होंने सोचा एक हमारे खरीद लेने
से क्या होगा
से क्या होगा
और झूठा है ये अखबार भी
जो कह रहा है दिल्ली के
वायु प्रदूषण से लाल हैं तुम्हारी आँखें
हां ये आँखे प्रदूषण से तो लाल हैं
पर ये प्रदूषण सिर्फ हवा का तो नहीं ….
वंदना बाजपेयी
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filed under: , poetry, hindi poetry, kavita, diwali, deepawali
दिल को छूती बहुत ही सुंदर रचना दी।
सच है ये प्रदूषण हवा का नहीं बल्कि मन के मैल का भी है …
और इसे हम ही साफ़ कर सकते हैं …
दिल को छूती हुयी रचना है …