हकीकत


बहु का बी .टी .सी . में चयन हो गया था | प्रारंभिक ट्रेनिंग के लिए नरवल जाना था | दीनदयाल जी आज बहुत खुश थे | बरसों बाद गाँव जाने का सपना पूरा हो रहा था | अम्माँ –बाबू के बाद गाँव ऐसा छूटा कि बस यादों में ही सिमिट कर रह गया | खेती-जमीन यूँ तो थी नहीं और जो थी उसके इतने साझीदार थे कि आम की फसल में एक आम चखने को मिल जाए तो भी बड़ी बात लगती थी , फिर भी मन कभी –कभी पुरानी यादों को टटोलने जाना चाहता , तो  पत्नी और बच्चे साफ इनकार कर देते | तर्क होता वहाँ क्या है देखने को ?लिहाजा मन मार कर रह जाते | नरवल उनका अपना गाँव नहीं था , पर गाँव तो था , इस बार सरकारी नौकरी के लालच में बेटा भी साथ जाने को तैयार था | रास्ते भर फूले नहीं समा रहे थे | खेत –खिलिहान देखकर जैसे दामन में भर लेना चाहते हों | गाँवों की निश्छल और खुशनुमा जिन्दगी के बारे में रास्ते भर बेटा –बहु को बताते हुए स्मृतियों का खजाना खाली कर रहे थे | शहर की जिंदगी से ऊबे हुए बेटे –बहु को भी सब सुनना अच्छा लग रहा था | बहु ने चहक कर कहा , “ सही है पापा , जिन्दगी तो गाँव की ही अच्छी है , ताज़ा –ताज़ा तोड़ कर खाने में जो स्वाद है वो शहर की सब्जियों में कहाँ ? बहु की बात पर ख़ुशी से मोहर लगाते हुए दीनदयाल जी ने सड़क के किनारे कद्दू (सीताफल )बेंचते हुए छोटे बच्चे को देखकर गाड़ी रोकी , उनका इरादा अपनी बात सिद्ध करने का था |   बच्चे के पास दो कद्दू थे | दीनदयाल जी ने गर्व मिश्रित आवाज़ के साथ कद्दुओं का दाम पूछा ,  “ का भाव दे रहे हो बचुआ ?”  बच्चा बोला , “ ई चार का और ऊ पाँच का | दीनदयाल : और दूनो लेबे तो ? बच्चा : तो सात का  दीनदयाल : दूनो दियो पाँच का , तो लेबे  बच्चा : नाही बाबू , अम्माँ मरिहे  दीनदयाल : अम्माँ काहे  को मरिहे , पाँच का दो और छुट्टी करो , हमका दूर जइबे  का है | बच्चा : ना बाबू अम्माँ मरिहे  दीनदयाल : अरे अम्माँ खुश हुइए कि बिक गा है , लाओ देओ , कहते हुए दीनदयाल जी ने पाँच का नोट बढ़ा दिया |  बच्चे ने सकुचाते हुए कद्दू दीनदयाल जी को सौप दिए |  बहु ने खुश होकर कहा , “ पापा , कितना सस्ता है यहाँ पर , आप सही कहते थे |  दीनदयाल जी गर्व से भर उठे , आज उन्होंने गाँव की जिन्दगी शहर से अच्छी है को बहु बेटों के आगे सिद्ध कर दिया था |  लौटने के रास्ते में भी शहर की सुविधाओं के बावजूद गाँव के  निर्मल जीवन व् सस्ताई की बात होती रही | बेटा –बहु भी हाँ में हाँ मिला रहे थे | सारे काम निपटा कर जब वो सोने चले तो आँखों के आगे उसी बच्चे की तस्वीर घूम गयी | अम्माँ मरिहे शब्द घंटे की तरह दिमाग में गूंजने लगा |  बहु-बेटे पर धाक ज़माने के लिए, सस्ते में  लिए गए कद्दू बहुत महंगे लगने लगे | पूरी रात बेचैनी में कटी | एक बार फिर से अपने बचपन की बदहाली आँखों के आगे तैर गयी |  सुबह उठते ही वे गाड़ी स्टार्ट कर नरवल की ओर  उस बच्चे को ढूँढने के लिए निकल पड़े | पत्नी पीछे से  पूछती रही , पर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया | कहते भी क्या ? बहु –बच्चों के सामने भले ही उन्होंने गाँव के सस्ते होने को सिद्ध कर  दिया था , पर उस सस्ताई के पीछे छिपे महंगे दर्द की हकीकत को वो जानते थे |
गाँव की जिंदगी कितनी खुशहाल नज़र आती है , लम्बे चौड़े खेत , बेफिक्र बचपन ,न पढाई की चिंता न किसी प्रतियोगिता की ,  ताज़ा -ताज़ा फल व् सब्जियां….. पर क्या सिर्फ यही हकीकत है | 

लघुकथा -हकीकत  



बहु का बी .टी .सी .
में चयन हो गया था | प्रारंभिक ट्रेनिंग के लिए नरवल जाना था | दीनदयाल जी आज बहुत
खुश थे | बरसों बाद गाँव जाने का सपना पूरा हो रहा था | अम्माँ –बाबू के बाद गाँव
ऐसा छूटा कि बस यादों में ही सिमिट कर रह गया | खेती-जमीन यूँ तो थी नहीं और जो थी
उसके इतने साझीदार थे कि आम की फसल में एक आम चखने को मिल जाए तो भी बड़ी बात लगती
थी , फिर भी मन कभी –कभी पुरानी यादों को टटोलने जाना चाहता , तो
 पत्नी और बच्चे साफ इनकार कर देते | तर्क होता वहाँ
क्या है देखने को ?लिहाजा मन मार कर रह जाते | नरवल उनका अपना गाँव नहीं था , पर
गाँव तो था , इस बार सरकारी नौकरी के लालच में बेटा भी साथ जाने को तैयार था |
रास्ते भर फूले नहीं समा रहे थे | खेत –खिलिहान देखकर जैसे दामन में भर लेना चाहते
हों | गाँवों की निश्छल और खुशनुमा जिन्दगी के बारे में रास्ते भर बेटा –बहु को
बताते हुए स्मृतियों का खजाना खाली कर रहे थे | शहर की जिंदगी से ऊबे हुए बेटे –बहु
को भी सब सुनना अच्छा लग रहा था | बहु ने चहक कर कहा , “ सही है पापा , जिन्दगी तो
गाँव की ही अच्छी है , ताज़ा –ताज़ा तोड़ कर खाने में जो स्वाद है वो शहर की सब्जियों
में कहाँ ? बहु की बात पर ख़ुशी से मोहर लगाते हुए दीनदयाल जी ने सड़क के किनारे
कद्दू (सीताफल )बेंचते हुए छोटे बच्चे को देखकर गाड़ी रोकी , उनका इरादा अपनी बात
सिद्ध करने का था |
बच्चे के पास दो
कद्दू थे | दीनदयाल जी ने गर्व मिश्रित आवाज़ के साथ कद्दुओं का दाम पूछा ,
  “ का भाव दे रहे हो बचुआ ?”
बच्चा बोला , “ ई
चार का और ऊ पाँच का |
दीनदयाल : और दूनो
लेबे तो ?
बच्चा : तो सात का
दीनदयाल : दूनो दियो
पाँच का , तो लेबे
बच्चा : नाही बाबू ,
अम्माँ मरिहे
दीनदयाल : अम्माँ
काहे  को मरिहे , पाँच का दो और छुट्टी करो
, हमका दूर जइबे  का है |
बच्चा : ना बाबू
अम्माँ मरिहे
दीनदयाल : अरे अम्माँ
खुश हुइए कि बिक गा है , लाओ देओ , कहते हुए दीनदयाल जी ने पाँच का नोट बढ़ा दिया |

बच्चे ने सकुचाते
हुए कद्दू दीनदयाल जी को सौप दिए |

बहु ने खुश होकर कहा
, “ पापा , कितना सस्ता है यहाँ पर , आप सही कहते थे |
दीनदयाल जी गर्व से
भर उठे , आज उन्होंने गाँव की जिन्दगी शहर से अच्छी है को बहु बेटों के आगे सिद्ध
कर दिया था |
लौटने के रास्ते में
भी शहर की सुविधाओं के बावजूद गाँव के
 निर्मल जीवन व् सस्ताई की बात होती रही | बेटा –बहु
भी हाँ में हाँ मिला रहे थे |
सारे काम निपटा कर
जब वो सोने चले तो आँखों के आगे उसी बच्चे की तस्वीर घूम गयी | अम्माँ मरिहे शब्द
घंटे की तरह दिमाग में गूंजने लगा |
 बहु-बेटे
पर धाक ज़माने के लिए, सस्ते में
 लिए गए
कद्दू बहुत महंगे लगने लगे | पूरी रात बेचैनी में कटी | एक बार फिर से अपने बचपन
की बदहाली आँखों के आगे तैर गयी |
सुबह उठते ही वे गाड़ी
स्टार्ट कर नरवल की ओर
  उस बच्चे को ढूँढने
के लिए निकल पड़े | पत्नी पीछे से
  पूछती
रही , पर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया | कहते भी क्या ? बहु –बच्चों के सामने भले
ही उन्होंने गाँव के सस्ते होने को सिद्ध कर
 
दिया था , पर उस सस्ताई के पीछे छिपे महंगे दर्द की हकीकत को वो जानते थे |

वंदना बाजपेयी 


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4 thoughts on “हकीकत”

  1. अक्सर कई बार खुद के किये कृत के पीछे पछताना भी पड़ता है …
    कई यादें पीछा करती हैं …

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  2. वंदना दी, यहीं गावों की सच्चाई हैं। उनसे हर कोई मोल भाव करता हैं। शहरों में इतने पैसे टिप के नाम पर ऐसे ही दे दिए जाते हैं। बढ़िया कहानी।

    Reply

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