ऑनलाइन पढने में और किताब हाथ लेकर पढने में वहीँ अंतर है जो किसी मित्र से रूबरू मिलने और फोन पर बात करने में है | ऑनलाइन रीडिंग की सुविधाओं के साथ कुछ तो है जो अनछुआ रह जाता हैं | एक तरफ हम उन भावों की कमी से जूझते रहते हैं , दूसरी तरफ किताबिन शोव्केस में सजी हमारा रास्ता निहारी रहतीं हैं | क्या कहतीं हैं वो ….वक्त मिले तो पास बैठ कर सुनियेगा ….
किताबें
किताबें सबसे प्रिय मित्र ,संगी- साथी और मार्गदर्शक होते थे उन दिनों ।
बचपन में लोरी बन कर हमें हंसाते थे , गुदगुदाते थे , बहलाते थे , सुलाते थे ।
जवानी में लिपटकर सीने से
कल के सपने सजाते थे
रूमानी ख़्वाब दिखाते थे तो कभी डाकिया बन जाते थे ।
बुढ़ापे के अकेलेपन में
गीता के श्लोक सुनाते थे, जीने की राह दिखाते थे , ईश्वर से मिलाते थे ।
पर आजकल डिजिटल संसार में
सबसे कोने वाली सेल्फ में
सजी रहती है किताबें
आते जाते सबको तकती रहती है किताबें
ज़रा ग़ौर से सुनो तो
कितना कुछ कहती रहती है किताबें ।
साधना सिंह
गोरखपुर
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