हो तुम गुलाब मैं कंटक क्यूँ

कविता -हो तुम गुलाब मैं कंटक क्यूँ

हो तुम गुलाब मैं कंटक क्यूँ कविता में थोड़ी कल्पना का समावेश किया है | जैसा कि हम सब जानते हैं कि गुलाब के कांटे लोगों को खलते हैं | शायद इस कारण कांटे के मन में द्वेष पैदा होता हो ? उसे गुलाब से शिकायत होती हो ? गुलाब का अपना दर्द हैं …..यहाँ उनका आपसी संवाद है | 

हो तुम गुलाब मैं कंटक क्यूँ 


जब एक डाली पर जन्म हुआ
संग -संग ही अपना गात बना
तब अपने मध्य यह अंतर क्यूँ ?
हो तुम  गुलाब मैं कंटक क्यूँ?

तुम रूप रस ,गुण गंध युक्त
पूजन -अर्चन श्रृंगार में नियुक्त
कवि कल्पना का तुम प्रथम द्वार
मिलता सबसे तुम्हें अतिशय प्यार
मैं हतभागा सा खड़ा हुआ
नित आत्मग्लानि से गड़ा हुआ
विकृत आकृति को देख -देख 
उलाहने देते सब मुझको अनेक

मैं कब तक विष पीयूँगा यूँ
हो तुम गुलाब मैं कंटक क्यूँ 
सुनो मुझसे मत क्लेश करो
अपने मन में मत द्वेष भरो
अपने घर में कहाँ रह पाता
निज डाली से टूटता है नाता
जो देखता है वो ललचाता
तोडा कुचला मसला जाता
कैसे समझाउ मैं तुमको
यह रूप बना है बाधक यूँ
अच्छा है जो तुम कंटक हो 
अच्छा है जो तुम कंटक हो ….
वंदना बाजपेयी 
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5 thoughts on “हो तुम गुलाब मैं कंटक क्यूँ”

  1. आदरणीय वन्दना जी — हर कोई अपनी नियति से क्षुब्ध देखा जाता है — तो गुलाब और कंटक भी क्यों ना अपने जीवन का लेखा जोखा करें |गुलाब की सुन्दरता उसके लिए अभिशाप है तो उसका यही सौन्दर्य कंटक के लिए इर्ष्या का विषय है | बहुत प्यारी रचना | शीर्षक ही बहुत मनभावन है | सस्नेह शुभ कामनाएं और बधाई |

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  2. This poem about a rose having a shorter but acclaimed lifespan and a thorn growing on the same stem with a longer but backstage lifespan
    presents‎ an original perspective.
    Kudos to Vandana Bajpai ‎for this encompassing a fresh outlook.
    Congratulations Vandana…. deepak sharma … via email

    Reply
  3. बहुत सुंदर रचना ,हर एक की अपनी कमियां और खूबियां है परन्तु हर एक अपनी नियति से खुश नहीं ,यही तो सबसे बड़ी बिडंबना हैं।

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