यूँ तो वृक्षों के रूप में प्रकृति ने हमें अनमोल खजाना दिया है , परन्तु उनमें से कुछ वृक्ष विशेष रूप से पूजे जाते हैं | देखा गया है कि जो वृक्ष पूजे जाते हैं उनका आयुर्वेद में बहुत महत्व है | लेकिन जब हम किसी वृक्ष नदी या पहाड़ को पूजने लगते हैं तो वो प्रकृति ही नहीं हमारी आस्था का केंद्र भी हो जाता है , और हर छोटे बड़े संकट में हमारा संबल बनता है , चाहें वो मामूली बुखार हो या युद्ध की विभीषिका | ये कहानी भी कुछ ऐसी ही कहानी है जहाँ पृष्ठभूमि में भारत -पाक का १९६५ का युद्ध है ….परन्तु घर के बाहर लगे हुए वृक्षराज पीपल इसमें भी एक अनोखे रूप में साथ है | वो अनोखा रूप क्या है … जानने के लिए पढ़ें वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानी ……….
वृक्षराज
अपना पुराना पीपल फिर दिख गया| हूबहू वैसा ही, जैसा लगभग पचास वर्ष पूर्व हम पीछे
छोड़ आए थे और जिसके काटे जाने पर वहां हुए हंगामे की खबर के साथ मैं पिछली रात
सोने गयी थी|
तिमंजिले अपने किराए के मकान की तीसरी मंजिल वाली वह खिड़की, जहाँ से माँ की संगति
में हम भाई बहन ने उस चीनी मिल को धराशायी होते हुए देखा था जहाँ हमारे पिता
रसायनज्ञ थे|
औद्योगिक क्षेत्र, छहरटे, में स्थित थी| खांडवाले चौक के अंदर| जिसके ऐन सामने वह
पीपल पड़ता था जिसने हमारी से बीस गली को
उसकी पहचान दे रखी थी, पीपल वाली गली|
मकानसे बीस फुट की दूरी पर मगर उसके पत्ते गली के दूसरे ऊँचे मकानों की छतों की
तरह हमारी छत पर भी आन झूमते थे| अपनी लंबी शाखाओं के संग| बिना किसी तेज़ हवा का
झोंका लिए|
पत्तों में देवता वास करते हैं| जभी तो इनमें ऐसी झूम है| जिस पर नास्तिक रहे
हमारे बाबूजी हम भाई-बहन की ओर देख कर हँस देते, ये पत्ते तो इसलिए लहराया करते
हैं क्योंकि उनकी डंडियाँ लंबी हैं और उनके ढाँचे चौड़े जो अपने अंतिम छोर तक
पहुँचते-पहुँचते क्रमशः पतले होते जाते हैं| हम दोनों भाई बहन भी बाबूजी की ओर देखकर हँसने
लगते| बचपन में हम दोनों बाबूजी से एकमत रखते थे, माँ से नहीं| तिस पर भी माँ अपनी
जमीन छोड़ती नहीं, अड़ी रहतीं| पीपल वाली बात पर भी अड़ जाया करतीं, “आपकी तिकड़ी के
मानने न मानने से क्या होता है? यहाँ तो गली के हम तमाम लोग सुबह उठकर इसी की पूजा-अर्चना
करते हैं| इसे ही जल चढ़ाते हैं| जानते जो हैं जड़ से यह ब्रह्मस्वरूप है, तने से विष्णुस्वरूप और
अग्रभाग से शिव-स्वरुप| जभी तो भगवद् गीतामें श्रीकृष्ण ने यह घोषणा भीकी थी, ‘पेड़ों
में मैं पीपल हूँ|’ और आप जो विज्ञान कीबात करते हो तो आयुर्वेद भी तो वनस्पति-विज्ञान
की समझ रखता है और उसी समझ से इस के पत्तों को दमे, मिरगी, मधुमेह, पीलिया और पेट
के रोगों के इलाज के लिए प्रयोगमेंलाया करता है|”
‘मगर आयुर्वेद पर विश्वास ही कितने लोग रखते हैं? हम लोग भी तो बीमारी में किसी
एलोपैथ ही का इलाज मानते हैं|’ पचास-साठ वर्ष पहले जन-सामान्य में आयुर्वेद आज
जितना लोकप्रिय नहीं रहा था|
नहीं रह पायी| अन्तोगत्वा उस पीपल ने हम तीनों के मन में भी अपनी जगह बना ही डाली|
सन् १९६५ के सितंबर माह में जिस की ६ तारीख से हमारे एक पड़ोसी देश तथा हमारे देश
की वायु सेनाओं के बीच भिड़ंतें शुरू हुई थीं, साथ ही उसकी सीमा से लगे हमारे
अमृतसर के आकाश में लड़ाकू विमानों की आवाजाही और उनके युद्ध के संघर्ष| वैसे तो
सन् १९६५ शुरू ही हुआ था कच्छ के रणक्षेत्र वाली भारत-पाक सीमा की झड़पों के साथ|
जो अगस्त तक आते-आते सियालकोट तथा जम्मू-काश्मीर पर जा केंद्रित हुई थीं| फिर उधर
से पाकिस्तान का ध्यान बाँटने के निश्चय के साथ हमारी पैदल सेना अमृतसर से कुल जमा
तीस मील की दूरी पर स्थित लाहौर की सीमा जा लांघी थी| उस पर त्रिभुजीय धावा बोलती
हुई| ६ सितंबर के दिन| वहां के बाटापुर, बरकी और डगराई केकईभाग अपने कब्जे में
लेती हुई| और यों बढ़ते-बढ़ते हमारी सेना इच्छोगिल नहर तक भी पहुँच ली थी| और उसी
शाम पाकिस्तानी वायुसेना ने जब हमारे पठानकोट, आदमपुर और हलवाड़ा के हवाई अड्डों पर
बमबारी की तो जवाबी हवाई हमलोंका दौर शुरू हो चला|
कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद टैंकों से हुई यह लड़ाई सर्वाधिक भीषण रही थीजब एक-दूसरे
के राज्य क्षेत्र में इंच भर भी आगे बढ़ने के लिए जबरदस्त टक्कर ली जाती थी|
में भी गली-वासी अपना जीवट अपने अधिकार में रखे रहे थे| आकाशमें विचर रहे युद्धक
विमान उनमें भय कम और जिज्ञासा अधिक जगाते थे| हमारे बाबूजी हैरान हो जाया करते जब
वह देखते, जिला प्रशासन द्वारा जारी किए गए ए. आर. पी. (एयर-रेड प्रीकौशन्ज)- हवाई
हमलों के दौरान ली जाने वाली सावधानियों की जानकारी के बावजूद हमारे वे गली-वासी उनका
उल्लंघन करने में तनिक न हिचकिचाते और खतरे का पहला सायरन बजते ही वे अपनी छत पर
या ऊँची खिड़कियों पर जा खड़े होते|
हम नागरिकों पर यह स्पष्ट कर रखा था कि हवाई बमबारी से अपने को सुरक्षित रखने का
उत्तरदायित्व सीधा-सीधा प्रत्येक नागरिक को स्वयं निभाना था और हमारी सुविधा के
लिए हमें सावधान करने हेतु प्रशासन ने सायरन बजाने का आयोजन किया था| राडार पर
शत्रु विमान को देखते ही एकल सायरन बजता था| तीन मिनट तक अविराम| और फिर शत्रु के
विमान के लौटने पर या ध्वंसित हो जाने पर ‘ऑल क्लियर’ का सिगनल देने हेतु तीन सायरन
बजाए जाते थे, जिनमें प्रत्येक दो सायरनों के बीच दो-दो मिनट के अंतराल रहते थे|
रूप से समझाया जा चुका था कि पहले और अंतिम उन सायरनों के बीच के समय पर हमें या
तो अपने घरों की खाली जमीन पर खोदी गयी खन्दकों में शरण ले लेनी चाहिए या उन
खन्दकों के उपलब्ध न रहने पर अपने कमरे के कोनों में जा खड़े होना चाहिए|
उन गलीवासियों के उस दु:साहस के पीछे दो कारक काम कर रहे थे|
दृढ़ विश्वास रहा था कि उनका वह पीपल उन्हें बमबारी का अहेर बनने से उसी प्रकार बचा
लेगा जैसे सन् १९४० केदशकमें उस पीपल ने उन्हें साम्प्रदायिक दंगों से बचाए रखा था|
सभी जानते हैं उन दिनों अमृतसर में भारी मारकाट हुई थी| बाबूजी बेशक उन लोगों का यह
तर्क खारिज कर देते| कहते“उस समय दंगई यदि इस गली में नहीं आए तो शायद इस कारण कि यहाँ दोनों
सम्प्रदायों ने मिल-बैठकर एक सफेद झंडा इस पीपल के शीर्ष पर टाँगे रखा था और वह
झंडा एक ही वक्तव्य लिए था- ‘इस गली में दोनों बिरादरियों की गिनती एक सी है, अमन
कायम रखने का इरादा एक सा है|’ और फिर यह संदेश दोनों सम्प्रदायों की मातृभाषाओँ
में दर्ज हुआ था| ऐसे में दंगइयों केभाले और छुरे कैसे न लौट-लौट जाते?”
पढ़िए ऑनर किलिंग पर मार्मिक कथा -उसके बाद
हम दोनों भाई-बहन भी नहीं| उनकी अनुपस्थिति में, माँ की आँख बचाकर, गलीवासियों की
देखा-देखी हम भी अपने आकाश में युद्धक उन विमानों की कलाबाजियाँ देखने कभी छत पर
जा पहुँचते तो कभी अपनी तीसरी मंजिल की उस खिड़की पर, जहाँ पीपल की एक डाल एक चंदवा
सा बनाए रही थी| वह पीपल बहुतऊँचा था| लगभग सौ फीट ऊँचा तो जरूर ही रहा होगा| तिस
पर इतना घना और अलग-अलग तल्लों वाला कि गली की हर ऊँची छत की किसी न किसी खिड़की अथवा
दीवार पर एक चंदवा सा तो बनाए ही रहता|
दूसरा कारक रहा था : हमारे देश का रेडियो| जो हमें युद्ध की ताजा और सच्ची तस्वीर
दिया करता| दूसरे देश के रेडियो की भाँति झूठी खबरें और अफवाहें नहीं फैलाता|
वहाँ से उड़ायी गयी एक खबर ने तो हम अमृतसर वासियों को खूब गुदगुदाया भी था| जब वहां से घोषणा की गयी थी,
‘पाकिस्तान की फौज मुसलसल आगे बढ़ती हुई अमृतसर शहर पहुँच गयी है|
हमारी फौज ने हॉलगेट की घड़ी भी उतारली है|’ अचरज नहीं जो ऐसी झूठी खबरें सुनकर ही हमलोगों ने उस
रेडियो स्टेशनको नया नाम दे डाला था: रेडियो झूठीस्तान|
श्री मेलवेलडिमैलो, को विशेष युद्ध संवाददाता के रूप में हमारे अमृतसर भेज दिया था
ताकि सभी देशवासियों को युद्ध की वास्तविक स्थिति आँकने और जानने का अवसर मिले|
सेनाओं की गतिविधियों के संग हमारा उलझाव उतना ही गहरा था जितना आजकल के लोगों का
क्रिकेट के संग| घर-घर में, दुकान-दुकान में आजकल जैसे टी.वी. और मोबाइल पर लोगबाग
क्रिकेट मैच के दौरान अन्तत: उसके चरण का पीछा किया करते हैं उसी प्रकार हम लोग, रेडियो
और ट्रांजिस्टर के हरदम ‘औन’ अवस्थामेंरखाकरते| हरगली, हरमोड़,
हर घर में खबरें सुनायी दिया करतीं| ट्रांजिस्टर भी शायद उन्हीं दिनों बहुत बिके थे|
और कुछ लोग तो इतने छोटे ट्रांजिस्टर खरीद लिए थे कि हरदम उन्हेंअपनी जेब में डाले घूमते| लगभग
वैसे ही जैसे आजकल जन-जन अपने मोबाइल| हमारेपरिवार में भी पहला ट्रांजिस्टर उन्हीं
दिनों आया था|
क्रिकेट में अपने खिलाड़ी के सेन्चुरी बनने पर लोग आजकल जैसे एक दूसरे के गले मिलते
हैं, मिठाइयाँ बाँटते हैं, उन दिनों हम अमृतसरवासी भी अपन देश के सैनिकों की विजय
का उत्सव मनाया करते| खुशी मनाए जाने के दो विजयोत्सवतो मुझे भुलाए नहीं भूलते|
सेना के ‘असल उत्तर’ ने| जिसमें काम आयीं कम्पनी क्वार्टर मास्टर अब्दुल हमीद की
अद्वितीय वीरता और मेजर-जनरल गुरबख्श सिंह की चतुर युद्ध नीति|
आते-आते पाक सेना अपने लाहौर के इच्छोगिल क्षेत्र से हमारी सेना को लौटाती हुई
हमारे खेमकरण को अपने कब्जे में ले चुकी थी और अब खेमकरण-भिक्खीविन्ड-अमृतसर रोड की
ओर बढ़ रही थी| अपने पैटन टैंकों सेलैस उसी रोड पर ‘असल उत्तर’ को अपना केंद्रीय
सेना मुख बनाकर मेजर जनरल गुरबख्श सिंह ने रक्षात्मक मोर्चाबंदी आन स्थापित की| घोड़े
की नाल के आकार की रात में उनकी डिवीजन ने वहां रहे गन्ने के खेतों में पानी भर
दिया और पाक सैनिकों के ९७ पैटन टैंक कीचड़ भरे उस दल-दल की धंसान में अपनी गति खो
बैठे| परिणाम, १० सितंबर तक उनमें से कुछ ध्वस्त कर दिए गए और कुछ जीत लिए गए| बाद
में उन जीते हुए पैटन टैंकों के प्रदर्शन के साथ वहां एक युद्ध स्मारक भी बनाया
गया जिसका नाम रखा गया, पैटन नगर|
दिन सुबह के आठ बजे चीमा गाँव के पास बढ़ आए पाक पैटन टैंकों ने भारी गोलीबारी शुरू
की तो अब्दुल हमीद अपनी सेना टुकड़ी के साथ युद्धस्थल का बगली मोरचा आनसंभाले| अपनी
जीप पर रिकौएल-गनटिकाए| यहाँ यह बताती चलूँ रिकौएल-गन हलके वजन वाली ऐसी नलीदार तोप होती
है, जिसके दागने पर पीछे झटका नहीं लगता| रिकौएल-गन में पारंगत तोकम्पनी क्वार्टर
मास्टर हवलदार अब्दुल मजीद रहे ही, उन्होंने एक के बाद एक तीन पैटन टैंकों को पछाड़
डाला| घोर रूप से घायल हो जाने के बावजूद| और चौथे पैटन टैंक का सामना करते हुए
शहीद हो गए| मुग्धकारी अपने देश-प्रेम को साथियों में अंतर्वाहित करते हुए|
‘असलउत्तर’ में उनके नाम का स्मारक आज भी मौजूद है और भारत सरकार ने उन्हें परमवीर
चक्र से सम्मानित भी किया| जिसे उन की विधवा ने सगर्व स्वीकार किया|
हमने १८ सितंबर को मनाया| जब अपने अमृतसर के आकाश में हवाई हमले करने आया शत्रु का
सैबर विमान हमारी वायुसेना के नैट विमान ने मार गिराया| जिनके संकुल युद्धके हम गलीवासीभी
गवाह रहे थे| अपनी छतों और खिड़कियों पर लहरा रहे अपने पीपल के घनेपत्तोंके पीछे से
ताकते हुए| टकटकी बाँध कर| सम्पूरित स्तब्धता के साथ| और जैसे ही हमारा नैट विमानउस
सैबर विमान को पछाड़ने में सफल रहा तो उन पत्तों के संग हम भी झूम लिएथे, तालियाँ
बजाते हुए और सामूहिक हमारी उछल-कूद और करतल-ध्वनि ने ‘ऑल क्लियर’ वाले सिगनल को
कब जा पकड़ा था, हम जान नहीं पाए थे|
उस अनुभव का विजय-भाव छठे दिन ही खंडित हो गया|
द्वारा दोनों देशों के लिये युद्धबंदी का फरमान पिछले ही दिन जारी किया गया था और
दोनों देश उसे अपनी स्वीकृति भी दे चुके थे| मगर इधर जिस समय हमारे रेडियो पर उस
युद्ध की समाप्ति की घोषणा की जा रही थी, ठीक उसी समय उधर से एक विमान ने हमारे
क्षेत्र में आन बमबारी कर दी|
पास बैठे थे| माँ स्टोव पर शाम के नाश्ते के लिए प्याज के पकौड़े तल रही थीं|
अमृतसर में गैस के सिलेण्डर सन् १९७० ही में आ पाए थे और भोजन बनाने के लिये हमारे
घर में लकड़ी का चूल्हा, कोयले की अंगीठी और मिट्टी के तेल वाला स्टोव काम में लाया जाता
था|
पकौड़े अपनी-अपनी प्लेट में लेने के लिए अभी अपने हाथ बढ़ाए ही थे कि एक धमाका पूरे
घर को झकोर गया| अपने साथ सामूहिक चीख-पुकार और हो-हल्ले का हुल्लड़ लिए|
की कड़ाही नीचे उतार दी और जल रहा स्टोव बंद कर दिया| फिर हम दोनों को अपनी बाहों
में समेटा और वृक्षराजाय: ते: नमः रटती हुई उस खिड़की पर जा खड़ी हुई जो बाबूजी की
चीनी की मिल की तरफ खुलती थी|
थी| एक कोने से आग की लपटें उठ रहीथीं और कर्मचारियों के रेले मिल के गेट से बाहर
निकल रहे थे| पीपल कीदिशा में|
हुआ| पहले से ज्यादा जोरदार| हवा में चिथड़े, तिक्के, किरचें और किनके उछालता हुआ:
हाड़-माँस के, कपड़े-लत्ते के, लोहे के पत्तरों के…..
वे? किस किस के खंड? किन्हीं कर्मचारियों के? या फिर उन गन्नों के जिन्हें ट्रक
औरठेले यहाँ लाया करते?
उन्हें पेरा जाता?
नीचे जल रही चूने की भट्टियाँ उसघोल को उबाला करतीं?
के चालू होने का एलान अपने अंदर का धुँआ बाहर फेंकतीहुई किया करतीं?
विभाग के उन कार्बोनेटरज और क्रिस्टलाइरज के, जहाँ के मिकल्ज मिलाकर उस घोल से हासिल हुए
गूदे को चीनी में परता जाता?
उन मशीनों के जो उसे अंतिम रूप दिया करतीं?
तैयार हुईउस चीनी को पुलिन्दों में बांधा करते?
किस किस के तिक्के-बोटी?
में पढ़ता थाऔर मैं नवमी में किन्तु बाबूजी के साथ उस चीनी मिल पर कई बार जा चुके
थे और उसके सभी उपकरण, सभी साज-सामान देख-परख चुके थे और अब वह सब ढह रहा था…..
भी वहीं कहीं थे क्या?
दोनों भाई बहन ने माँ से एक साथ पूछा था|
हैं,” अपनी वृक्षराजाय: ते: नमः की रट के साथ माँ हमें सीढ़ियों से नीचे ले आयी थीं|
अपने गली-वासियों की होड़ा होड़ी और हड़बड़ी से जुड़ती हुई| हमें जोड़ती हुईं|
पहने कई कर्मचारी जमा थे|
घायल अवस्था में दूसरे के कंधों की टेक भी लिए थे|
कद में सबसे ऊँची होने के कारण सबसे पहले माँ ने बाबूजी को चीन्हा था|
पीछे हो लिये थे| उन्हें पुकारते हुए|
कर रहे बाबूजी हमारी पुकार सुनते ही हमारी ओर बढ़ आए थे|
पुनः पाने को लालायित| हम भाई बहन माँ का हाथ छोड़ दिए थे और उनकी ओर दौड़ पड़े थे|
में से शायद कोई भी यह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि हम धराशायी हुई उस चीनी-मिल
के जान-मालको रोएं या फिर बाबूजी एवं अपनी गली के बमबारी से अक्षुण्ण बने रहने पर अपने
उस वृक्षराज को प्रणाम करें|
बिगुल
रम्भा
चंपा का मोबाइल
ताई की बुनाई
हकदारी
मैंने आप की बहुत सी कहानियाँ /लगभग सभी अपने प्रोजेक्ट के दौरान पढ़ी हैं। लेकिन यह कहानी पहली बार आज ही पढ़ी है । वह समय सप्राण हो आया है। इतने पारदर्शी विवरण और आस्था- बहुत सुन्दर ।
यह हर इंसान के साथ होता है। किसी भी हादसे में मृत या घायल व्यक्तियों के लिए इंसान को दुख तो होता ही हैं। लेकिन जैसे ही उसे पता चलता हैं कि उसके अपने सकुशल हैं उसे खुशी भी होती हैं। बहुत सुंदर।