पता नहीं क्यों इस कविता के बारे में लिखते हुए मुझे ये गाना याद आ रहा है , ” जिन्दगी मेरे घर आना …आना जिंदगी” सच है हम कितनी शिद्दत से जिंदगी को बुलाते हैं पर ये जिंदगी ना जाने कहाँ अटकी पड़ी रहती है कि आती ही नहीं … और हम उदासियों की गिरफ्त में घिरते चले जाते हैं | अगर आप जानना चाहते हैं कि ये जिंदगी क्यों नहीं आती तो ये कविता जरूर पढ़ें …
जिंदगी मेरे दरवाजे पर
आज भोर से थोड़ा पहले
फिर खड़ी थी जिंदगी मेरे दरवाजे पर ,
दी थी दस्तक ,
हौले से पुकारा था मेरा नाम ,
और हमेशा की तरह
कान पर तकिया रख
कुछ और सोने के लालच में ,
उनींदी आवाज़ में ,
लौटा दिया दिया था मैंने ,
आज नहीं कल आना …
बरसों से यही तो हो रहा है
जिन्दगी आती है द्वार खटखटाती है
और मैं टाल देती हूँ कल पर
और भूल जाती हूँ हर रोज
उठते ही
कि मैंने ही दिखाया है उसे बाहर का रास्ता
हर रोज बोझिल मन से उन्हीं कामों को करते हुए
ऊबते झगड़ते
कोसती हूँ किस्मत
कहाँ अटक गयी है
कुछ भी तो नहीं बदल रहा जिन्दगी में
साल दर साल उम्र की पायदान चढ़ते हुए भी
ना जाने कहाँ खो गयी है जिन्दगी
जो बचपन में
भरी रहती थी हर सांस में
बात में उल्लास में
बढती उम्र की
उदासियों के गणित में
ये =ये के की प्रमेय को सिद्ध करने में
बस एक मामूली अंतर
बदल देता है सारे परिणाम
कि बचपन में
हर सुबह हल्की सी दस्तक पर
हम खुद ही खोलते थे
मुस्कुरा कर
दरवाजा जिन्दगी के लिए
सरिता जैन
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