कविता भावो की भाषा है वो जबरदस्ती नहीं लिखी जा सकती , उसे जब हृदय के कपाट खोल कर भावों के निर्झर सी निकलना होता है, वो तभी निकलती है | कई बार लिखने वाला और पढने वाला अपने -अपने भाव जगत के आधार पर उसे ग्रहण करता है | समीक्षक का धर्म होता है कि वो कवि के भाव स्थल पर उतर कर रचना की व्याख्या करे | हालंकि जब विश्व पुस्तक मेले में पंखुरी जी ने बड़े ही स्नेह के साथ अपना नया कविता संग्रह ‘ प्रत्यंचा ‘ मुझे भेंट किया था तो मैं उस पर तुरंत ही कुछ लिखना चाहती थी , पर दुनियावी जिम्मेदारियों ने भावनाओं के उस सफ़र से मुझे वंचित रखा | खैर हर चीज का वक्त मुकर्रर होता है तो अब सही ….और पंखुरी जी के शब्दों में कहें तो …
बिम्ब ऐसे हों
जो दिखें ना
कविता वो जो
मुट्ठी में ना आये
इसलिए नहीं
कि मेरे तुम्हारे प्रेम की कविता है
और उनके हाथों में
इसलिए कि कविता से भी
मुझे प्रेम है ….|
प्रत्यंचा -समसामयिक विषयों की गहन पड़ताल करती रचनाएँ
यूँ तो प्रत्यंचा नाम पढ़ कर किसी युद्ध का अहसास होता होता है | जहाँ तीर हो कमान हो और निशाना साध कर सीधे ह्रदय को बेध दिया जाए | लेकिन ये प्रत्यंचा अगर कोई कवि भी ताने तो भी उससे निकले भावनाओं के तीर भी ह्रदय को बेधते ही हैं , पर ये बिना रक्तपात किये उसके भाव जगत में उथल -पुथल मचा कर मनुष्य को पहले से ज्यादा परिमार्जित कर देते हैं | ऐसी ही एक प्रत्यंचा चढ़ाई है पंखुरी सिन्हा जी ने अपने कविता संग्रह ‘प्रत्यंचा” में|
क्योंकि बात पंखुरी जी की कविताओं की है तो पुष्पों की उपमा देना मुझे ज्यादा उचित लग रहा है | सच कहूँ तो इस काव्य संग्रह से गुज़रते हुए मुझे लगा कि मैं लैंटाना के फूलों के किसी उपवन से गुँजार रही हूँ विभिन्न रंगों और आकारों के छोटे -छोटे फूलों के गुच्छे , जो सहज ही आपका ध्यान अपनी और आकर्षित कर लेते हैं | साहित्य जगत में पंखुरी सिन्हा जी के नाम से कोई अनभिज्ञ नहीं है | दो कहानी संग्रहों, दो हिंदी कविता संग्रहों और दो अंग्रेजी कविता संग्रहों की रचियता व साहित्य के अनेकों पुरुस्कारों द्वारा सम्मानित पंखुरी जी के नवीनतम काव्य संग्रह ‘प्रत्यंचा ‘ से गुजरने की मेरी यात्रा बहुत सुखद रही |
ये अलग बात है कि पंखुरी जी का पहला संग्रह कहानियों का था पर उन्हें पहला सम्मान कविता पर मिला | मैं जब से पंखुरी जी से जुडी हूँ मैंने ज्यादातर उनकी कवितायें ही पढ़ी हैं | कभी -कभी लगता है कि कहानी लिखी जाती है और कवितायें लिख जाती हैं ,खुद ब खुद क्योंकि वो दिल के बहुत पास होती हैं …और पाठक को भी उतनी ही अपनी सी महसूस होती हैं | पंखुरी जी की कविताओं की बात करें तो वो बहुत सहज हैं , जो उनका देखा , सुना अनुभव किया है , उसे वो बिना लाग -लपेट के पाठकों के सामने रख देती हैं , और पाठक को भी वो अपना अनुभव लगने लगता है | अब उनकी पहली कविता किस्से को ही देखिये | हम भारतीयों की किस्से सुनाने की बहुत आदत है | जहाँ चार लोग बैठ जाते हैं वहां किस्सागोई शुरू हो जाती है …पर ये किस्सा है जमे हुए दही का | गाँवों और छोटे शहरों में आज भी मिटटी की हांडी में दही बेचा जाता है | अच्छे दही की पहचान हांडी की ठक -ठक की आवाज़ से होती है | पूरी तरह जम जाने और पत्थर हो जाने वाला दही ग्राह्य है | जब आप इस कविता में डूबेंगे तो ये किस्सा एक अलग ही किस्सा कहता है इंसान के समाज द्वारा स्वीकृत होने का ,जीवन की विभिन्न विपरीत परिस्थितियों में पत्थर सा मजबूत हुआ इंसान , जब बार -बार ठोंक पीट कर आजामाया जाता है तभी उसे सर आँखों पर बिठाया जाता है |
दही अच्छा बताया जाता है
स्वाद से नहीं
ठक -ठक की आवाज़ से
यानि उस खटखटाहट की आवाज़ से
जो प्रतीकों में बताती है
दही का जमना
स्त्री विमर्श पर ..
किसी स्त्री की कविताओं में स्त्री विमर्श के स्वर ना गूँजे ऐसा तो हो ही नहीं सकता | पंखुरी जी की कविताओं में भी स्त्री सवाल उठाती है | वो साफ़ -साफ़ कहतीं हैं कि स्त्री के लिए चूडियाँ पहनना या उतारना उसकी इच्छा पर निर्भर नहीं करता | ये समाज के आदेश से होता है | समाज ने तय कर रखा है को वो चूड़ी ना उतारे |आपने गाँवों में देखा होगा कि मनिहारिन से चूड़ी पहनने के समय औरते एक पुरानी चूड़ी डाले रहती है क्योंकि कलाई पूरी तरह से खाली करने की इजाज़त नहीं होती | स्त्री की कलाई और स्त्री की ही चूड़ियाँ पर अफ़सोस कि उनको पहनने -उतारने का हक़ स्त्री को नहीं है |
ज्यादातर इस किस्म की होती हैं
स्त्री मुक्ति की बातें
कि चूड़ी उतारने की इजाजत नहीं होती
या फिर पहनने की दुबारा
विधापीठ -दो
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स्त्री जीवन का एक बड़ा सच ये है कि स्त्रियाँ अपनी उम्र छिपाती है , क्यों छिपाती हैं इसके अलग अलग कारण हो सकते हैं और एक कारण पंखुरी जी भी ढूंढ कर लायी हैं …
स्त्रियों के साथ भी
बिलकुल स्त्री अस्मिता का पहला कदम
मन की बातें
कुछ मन में ही रख लेना भी एक अदा है
और जैसे उम्र भी हो
मन ही की बात
फॉर्म की लिखाई से बाहर
विधापीठ -1
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कौन सी स्त्री होगी जिसका हृदय सीता माता के दुःख पर चीत्कार ना कर उठे | उनका दुखी हृदय रामराज्य पर सवाल करता है कि जिस राज्य में एक निर्दोष स्त्री बिना अपनी सफाई का अवसर दिए वन में छोड़ दिए जाने की सजा पाती है वो राम राज्य कैसा है ? वहीँ उनके अंदर आशा भी है कि वह स्त्रियों को सम्मान दिलाने वाले श्री कृष्ण तक एक पुल बना देने में गिलहरी की तरह इंटें ढोंगी | ये बहुत गंभीर बात है कि उस पुल के बन जाने से ही सीता का उद्धार है | हम सब स्त्रियाँ वो गिलहरी हैं जो अपनी छोटी -छोटी कोशिशों से पुल बना रहीं हैं | सारा स्त्री विमर्श स्त्री के अधिकारों की रक्षा के लिए बनाया जाने वाला वो पुल ही तो है |
मैं चाहूँ तो लिख सकती हूँ
एक कविता एक राजा पर
जिसने देकर रानी को
महल से निकाला
छोड़ रखा है बताना
ये कौन सा रामराज्य है
कौन सा रामराज्य
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एक पुल बन रहा है
सीता से कृष्ण तक
गिलहरी सी मैं भी
ढोती हूँ इंटें
एक पुल बन रहा है से
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मेरी तो कट जायेगी
यूँही बेबसी की कैद में
पर सीता तुम खींचों तो आज
कुछ एक लक्ष्मण रेखाएं ….!
सीता तुम खींचो कुछ लक्ष्मण रेखाएं
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कभी आहत होकर वो प्रश्न करती हैं ..
क्यों आकर ठहर जाती हैं
औरत की देह पर ही
जातिवाद , भाषावाद
क्षेत्रवाद और प्रांतीयता
की सब लड़ाइयाँ ?
प्रकृति पर …
आज प्रकृति पर लिखना बहुत जरूरी हो गया है | एक समय था जब प्रकृति कवि कल्पना का प्रथम द्वार हुआ करती थी पर आज दैनिक जीवन की तरह वो भी हाशिये पर चली गयी है | उपेक्षा का शिकार हो रही है | जब प्रकृति से ही प्रेम नहीं है तो पर्यावरण की रक्षा के उपदेश बेमानी हैं | स्त्रियों की कविताओं में तो प्रकृति वर्णन का खासा आभाव रहा है | कारण स्पष्ट स्त्री अपनी घर -गृहस्थी की समस्याओं , पितृ सत्ता की बेड़ियों से निकलने में ही इतनी टूटी जा रही है कि प्रकृति पर ध्यान जाता ही नहीं पर पंखुरी जी ने इस पर ना सिर्फ ध्यान दिया है बल्कि उनकी कविताओं में प्रकृति अपने अनुपम सौन्दर्य के साथ चमत्कृत भी करती है | झरने , पहाड़ नदियाँ उनकी कविताओं के केवल बिम्ब ही नहीं है बल्कि उनकी चेतना का आत्मविस्तार है …
और अचानक गायब हो गयी चाँदनी
वह मेरे एकांत की
जिसमें मैं और चाँद बंद हो जाते कमरे में
और हम घूम जाते पृथ्वी के इर्द -गिर्द
या पृथ्वी घूम जाती
हमारी धुन पर …
चाँद मेरी उपासना नहीं एक गृह है
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कितनी शंट और विराट है यह पृथ्वी
हम कभी नहीं हो सकते
उसके ध्रुवो पर एक साथ
और बस वहीँ सूर्यास्त है
बस वहीँ सूर्यास्त है
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हिलाकर जरापैरों से पानी
उठाया नया गीत उसने
कैद कमल नाल में
इन पक्तियों में पंखुरी जी ने जो बिंब रचे हैं उनसे उनका अभिप्राय है कि एक स्त्री जब पुरुष को अपनी देह सौंपती है या पानी को सौंपती है उसमें अंतर है …जब वो पानी को देह सौंपती है तो वो प्रेम करते हुए भी स्वतंत्र है , जब वो पैरो से पानी चलती है तो उसमें भी संगीत उत्पन्न हो जाता है … ये उस्की स्वतंत्र व्यक्तित्व की सुन्दरता का प्रतिबिम्ब ही तो है |
जंगलों का कटना ही पूरी धरती पर जीवन के खत्म होने का एक बड़ा कारण हो सकता है , यहाँ विनाश की दो स्थितियों में वो समय दिखा रही हैं …
खतरों के निशान के ऊपर
बह रही है बरसाती नदी
खतरनाक गति से
काटे जा रहे हैं पेड़
खतरों के निशान के ऊपर बरसाती नदी
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और करे हैं बहस वो भी
जो काट रहे हैं पेड़ दनादन
खुद सुना है
शोर वो मैंने
अदृश्य कुल्हाड़ी का लकड़ी पर
सिक्किम तक के घने जंगल में
जंगल के ठेकेदार
प्रेम पर …
प्रेम मानव मन की सबसे कोमल भावना है | प्रेम विषय से कोई भी कवि अछूता नहीं रह सकता | कहते तो यहाँ तक हैं कि हर कवि की पहली कविता प्रेम पर ही होती है | प्रेम जितन कोमल भाव है उसको व्यक्त करना उतना ही जटिल हो जाता है ….क्योंकि प्रेम में शब्द मौन जो हो जाते हैं | पंखुरी जी ने प्रेम के संयोग वियोग दोनों भावों को अपनी कविता में बहुत खूबसूरती से शब्दों का जामा पहनाया है | पंखुरी जी मानती है कि प्रेम होने और खत्म होने जैसी कोई चीज नहीं होती | वो एक एक बार हो कर हमारे ह्रदय में स्थायी रूप से निवास बना लेता है …अलबत्ता रिश्ते जरूर टूटते हैं |
प्रेम समाप्त नहीं होता
रिश्ते टूटते हैं
आदमी जितनी पुरानी है
रिश्तों की राजनीति
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मुस्कुराना शामिल नहीं है
प्यार के उस
बहुत गहन पल में
जिसमें उतारना चाहती हूँ तुम्हें
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बहुत मद्धिम सा चाँद उगा था
उस शाम
जिस दिन , आखिरकार
मेरे बहुत बुलाने पर वो घर आया था
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और सबसे अलहदा होता है स्त्री का प्रेम ….
जिसे तुम महसूस कर रही हो
शहर के मौसम में
वो कहीं और है
लेकिन ऐसा ही
खामख्याली होता है
औरत का प्यार…
सामयिक समस्याओं पर …
वो कवि ही क्या जिसे सम सामायिक समस्याएं उद्द्वेलित न कर दें| पंखुरी जी का कवि हृदय आस -पास की समस्याओं को देख सुन कर द्रवित होता है और ये दुःख और आक्रोश शब्द बन कविता के रूप में प्रवाहित होने लगता है | फिर चाहें वो धर्म के आधार पर बंटती इंसानियत हो , सीरिया का युद्ध या फिलस्तीन की सीमा रेखा , गाय का वोट बैंक बनाया जाना और बाढ़ पर भी राजनीति , कोई भी विषय पंखुरी जी की कलम से अछूता नहीं रहा है |
प्रेम की ऐसे प्रकृति नहीं होती
जो दंश बन जाए
प्रेम की वह प्रकृति नहीं
वह कुछ और है
और दो धर्मों के लोग रह सकते हैं साथ -साथ
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गाजा फिलिस्तीन की सीमा रेखा
कुछ ज्यादा ही सुरखित महसूसा था
लोगों की नींदों ने
ये गाजा फिलिस्तीन की सीमारेखा नहीं है
ये कुछ नए किस्से हैं
नयी किस्मों की विषमताओं के
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एक वैलेंटाइन डे सीरिया युद्ध के बाद
लिख रही हूँ एक प्रेम कविता
जिसमें सत्ता के युद्ध का दंश ना हो
घमासान तो हम्सेदूर है बहुत
लेकिन युद्ध का भी कोई तय पड़ोस होता है ?
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भड़कती अस्मिता
लौटना अपने पुराने देश में
यानी अपने देश में
पैदाइशी मिटटी पर
और उसे पाना आंदोलित
गाय से अधिक गोमांस की भड़कती अस्मिता पर
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बाढ़ की राजनीति
अपने आप खुल गयी
कासी हुई मुट्ठी मेरी
फ़ैल गयी हथेली
और टपकता रहा आसमान से पानी
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गाय का वोट बैंक
कितनी राजनीति हुई
गाय पर इनदिनों
कोई बाँध कर ले जाता कूड़े के ढेर से उसे
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कुछ अन्य कवितायें …
पंखुरी जी की कुछ अन्य सशक्त कवितायें जिनके बारे में मैं बात करना चाहूंगी उनमें से एक है ‘बारिश के दिन की गोधुली और ड्रैगन नृत्य ‘इस कविता में वो एक दृष्ट की तरह गिरगिटों के प्रणय नृत्य को देखती हैं वैसे तो गिरगिट कोई सुंदर जीव नहीं है पर नर गिरगिट द्वारा मादा गिरगिट को पेड़ की डाल से गिरने से बचाना सुन्दरतम हो जाता है …प्रेम में सब कुछ सुंदर ही होता है | जिसको प्रकृति से इतना जुड़ाव हो वही ऐसे रचना लिख सकता है |
भीगे हुए फूल से
शाम का आखिरी मधुपान कर गयी है
सबसे छोटी हमिंग बर्ड सी चिड़िया
गुलाबी सी रौशिनी के
रात में विलय से पहले
लौट आये हैं झींगुर
अंत में ये कहाना चाहूँगी कि पंखुरी जी का साहित्यिक आयाम बहुत विस्तृत है | उन्होंने विविध विषय उठाये हैं और उनके साथ पूरा न्याय किया है | कुछ कवितायें तो इतनी खूबसूरत बनी है जैसे लगता है किसी ने पन्ने के कैनवास पर शब्द चित्र उकेरे हों तो कुछ झकझोर देती हैं वहीँ कुछ में आँखों में पानी भर देने की ताकत है | पंखुरी जी निरंतर लिख रही हैं और बहुत अच्छा लिख रहीं हैं | भविष्य में साहित्य जगत को उनसे बहुत उम्मीदें हैं | पंखुरी जी को मैं एक मित्रवत सलाह देना चाहूंगी जो मैं ज्यादातर कवियों को देती हूँ कि काव्य संग्रह की परियोजना कहानी संग्रह की तरह ही बनायी जाए तो ज्यादा श्रेयस्कर होगा | जैसे एक मूड की कवितायें अगर साथ होती है तो कवि के दृष्टिकोण को समझने में पाठक को ज्यादा आसानी होती है |
अंत में पंखुरी जी के शब्दों में …
मैं अधूरी नहीं, फूल मुझ्मी बनते हैं
खुशबुओं का आलय मैं
दीप मुझमें जलते हैं
बोधि प्रकाशन से प्रकाशित काव्य संग्रह ‘प्रत्यंचा ‘ में १०० से ऊपर कवितायें हैं जो 244 पृष्ठों में समाई हैं | कवर पृष्ठ आकर्षक है और संपादन त्रुटी रहित |
प्रत्यंचा- काव्य संग्रह
लेखिका -पंखुरी सिन्हा
प्रकाशक -बोधि प्रकाशन
पेज -244
मूल्य – 250 रुपये
अगर आप समसामयिक विषयों का गहन पड़ताल करती हुई कवितायें पढ़ना चाहते हैं तो ये संग्रह आपके लिए अच्छा है |
पंखुरी जी को उनके उज्जवल भविष्य के लिए शुभकामनाएं
वंदना बाजपेयी
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मुखरित संवेदनाएं -संस्कारों को थाम कर अपने हिस्से का आकाश मांगती एक स्त्री के स्वर
बहुत देर तक चुभते रहे कांच के शामियाने
कटघरे – हम सब हैं अपने कटघरों में कैद
अंतर -अभिव्यक्ति का या भावनाओं का
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हमेशा की ही तरह बेहतरीन समीक्षा। लेखिका तथा समिक्षिका दोनों को ही हार्दिक बधाई एवं अनंत शुभकामनाएँ 💐💐