वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानियों में एक खास बात रहती है कि वो सिर्फ कहानियाँ ही नहीं बाचती बल्कि उसके साथ किसी ख़ास चीज के बारे में विस्तार से ज्ञान भी देती हैं | वो ज्ञान मनोवैज्ञानिक हो सकता है, वैज्ञानिक या फिर आम जीवन से जुड़ा हो सकता है | इस तरह से वो अपने पाठकों को हौले से न केवल विविध विषयों से रूबरू कराती हैं बल्कि उसके ज्ञान को परिमार्जित भी करती हैं | चमड़े का अहाता भी उनकी ऐसे ही कहानियों की कड़ी में जुड़ा एक मोती है …जो रहस्य, रोमांच के साथ आगे बढ़ती है और अंत तक आते -आते पाठक को गहरा भावनात्मक झटका लगता है | इस कहानी में उन्होंने एक ऐसी समस्या को उठाया है जो आज भी हमारे, खासकर महिलाओं के जीवन को बहुत प्रभावित कर रही है | तो आइये पढ़ें मार्मिक कहानी …
चमड़े का अहाता
शहर की सबसे पुरानीहाइड-मारकिट
हमारी थी. हमारा अहाता बहुत बड़ा था.
हम चमड़े का व्यापार करते
थे.
मरे हुए जानवरों की खालें
हम खरीदते और उन्हें चमड़ा बनाकर बेचते.
हमारी ड्योढ़ी में दिन भर
ठेलों व छकड़ों की आवाजाही लगी रहती. कई बार एक ही समय पर एक तरफ यदि कुछ
ठेले हमारे गोदाम में धूल-सनी खालों की लदानें उतार रहे होते तो उसी समय दूसरी तरफ
तैयार, परतदार चमड़ा एक साथ छकड़ों मेंलदवाया जा रहा होता.
ड्योढ़ी के ऐन ऊपर
हमारा दुमंजिला मकान था. मकान की सीढ़ियाँ सड़क पर उतरती थीं और ड्योढ़ी व अहाते में
घर की औरतों व बच्चों का कदम रखना लगभग वर्जित था.
पत्नियाँ रहीं.
पहली पत्नी से थे. हमारी माँ की मृत्यु के बाद ही पिता ने दूसरी शादी की थी.
बच्चे जने परंतु उनमें से एक लड़के को छोड़कर कोई भी संतान जीवित न बच सकी.
मेरा वह सौतेला भाई
अपनी माँ की आँखों का तारा था| वे उससे प्रगाढ़ प्रेम करती थीं. मुझसे भी उनका
व्यवहार ठीक-ठाक ही था| पर मेरा भाई उनको फूटी आँख न सुहाता.
भाई शुरू से ही
झगड़ालू तबीयत का रहा. उसे कलह व तकरार बहुत प्रिय थी. हम बच्चों के साथ तो वह
तू-तू, मैं-मैं करता ही, पिता से भी बात-बात पर तुनकता और हुज्जत करता.फिर पिता भी
उसे कुछ न कहते. मैं अथवा सौतेला स्कूल न जाते या स्कूल की पढ़ाई के लिए न बैठते या
रात में पिता के पैर न दबाते तो पिता से खूब घुड़की खाने को मिलती मगर भाई कई-कई
दिन स्कूल से गायब रहता और पिता फिर भी भाई को देखते ही अपनी ज़ुबान अपने तालु के
साथ चिपका लेते.
ही खुला.
भाईने उन दिनों
कबूतर पाल रखे थे. सातवीं जमात में वह दो बार फेल हो चुका था और उस साल इम्तिहान
देने का कोई इरादा न रखता था.
थे.
अहाते में खालों के
खमीर व माँस के नुचे टुकड़ों की वजह से हमारी छत पर चीलें व कव्वे अक्सर मँडराया
करते.
भाई के कबूतर इसीलिए
बक्से में रहते थे. बक्सा बहुत बड़ा था. उसके एक सिरे पर अलग-अलग खानों में कबूतर सोते और
बक्से के बाकी पसार में उड़ान भरते, दाना चुगते, पानी पीते और एक-दूसरे के संग
गुटर-गूँ करते.
भाई सुबह उठते ही अपनी कॉपी
के साथ कबूतरों के पास जा पहुँचता. कॉपी में कबूतरों के नाम, मियाद और अंडों
व बच्चों का लेखा-जोखा रहता.
सौतेला और मैं अक्सर छत पर
भाई के पीछे-पीछे आ जाते. कबूतरोंके लिए पानी लगाना हमारे जिम्मे रहता. बिना कुछ
बोले भाई कबूतरों वाली खाली बाल्टी हमारे हाथ में थमा देता और हम नीचे हैंड पंप की
ओर लपक लेते.उन्नीस सौ पचास वाले उस दशक में जब हम छोटे रहे, तो घर में पानी हैंड
पंप से ही लियाजाता था.
गर्मी के उन दिनों में
कबूतरों वाली बाल्टी ठंडे पानी से भरने के लिए सौतेला और मैं बारी-बारी से पहले
दूसरी दो बाल्टियाँ भरते और उसके बाद ही कबूतरों का पानी छत परलेकरजाते.
पकड़ाते समय हम भाई को टोहते.
“कुछ नहीं.” भाईअक्सर हमें
टाल देता और हम मन मसोसकरकबूतरों को दूर से अपलक निहारते रहते.
लेते समय भाई ने बात खुद छेड़ी, “आज यह बड़ी कबूतरी बीमार है.”
“देखें,” सौतेला और मैं
ख़ुशी से उछल पड़े.“ध्यान से,” भाई ने बीमार
कबूतरी मेरे हाथ में दे दी.सौतेले की नजर एक
हट्टे-कट्टे कबूतर पर जा टिकी.“क्या मैं इसे हाथ में ले
लूँ?” सौतेले ने भाई से विनती की.“यह बहुत चंचल है, हाथ से
निकलकर कभी भी बेकाबू हो सकता है.”“मैं बहुत ध्यान से
पकडूँगा.”भाई का डर सही साबित हुआ.सौतेले ने उसे अभी अपने
हाथों में दबोचा ही था कि वह छूटकर मुँडेर पर जा बैठा.भाई उसके पीछे दौड़ा.
खतरे से बेखबर कबूतर भाई को
चिढ़ाता हुआ एक मुँडेर से दूसरी मुँडेर पर विचरने लगा.
तभी एक विशालकाय चील ने
कबूतर पर झपटने का प्रयास किया.
कबूतर फुर्तीला था. पूरी
शक्ति लगाकर फरार हो गया.
चील ने तेजी से कबूतर का
अनुगमन किया.
भाई ने बढ़कर पत्थर से चील
पर भरपूर वार किया, लेकिन जरा देर फड़फड़ाकर चील ने अपनी गति त्वरित कर ली.
हमारी आँखों से ओझल हो गए.
पकड़ा और उसे बेतहाशा पीटने लगा.
को पुकारा.
आयीं.
न गयी.
“नहीं तो अभी तेरे बाप को बुला लूँगी.वह तेरा गला काटकर तेरी लाश उसी टंकी में
फेंक देगा.”
को छोड़कर, सौतेली माँ की ओर मुड़ लिया.
में?”
हमारे अहाते के दालान के
अन्तिम छोर पर पानी की दो बड़ी टंकियाँ थीं. एक टंकी में नयी आयी खालें नमक, नौसादर
व गंधक मिले पानी में हफ़्तों फूलने के लिए छोड़ दी जाती थीं और दूसरी टंकी में खमीर
उठी खालों को खुरचने से पहले धोया जाता था.
“बोलो, बोलो,” भाई ने ठहाका
लगाया, “तुम चुप क्यों हो गयीं?”
“चल उठ,” सौतेली माँ ने
सौतेले को अपनी बाँहों में समेट लिया.
फिर हँसा, “पर मैं किसी से नहीं डरता. मैंने एक बाघनी का दूध पिया है, किसी
चमगीदड़ी का नहीं…..”
सौतेली माँ फिर भड़कीं.
है,” भाई ने सौतेली माँ की दिशा में थूका, “तुम्हारी एक नहीं, दो बेटियाँ टंकी में फेंकी
गयीं, पर तुम्हारी रंगत एक बार नहीं बदली.मेरी बाघनी माँ ने जान दे दी, मगर
जीते-जी किसी को अपनी बेटी का गला घोंटने नहीं दिया…..”
“तू भी मेरे साथ नीचे चल,”
खिसियाकर सौतेली माँ ने मेरी ओर देखा, “आज मैंने नाश्ते में तुम लोगों के लिए
जलेबी मँगवाई हैं…..”
परंतु मैंने बीमार कबूतरी पर अपनी पकड़ बढ़ा दी.
आप को अपनी माँ की गलबाँही से छुड़ा लिया, “हम लोग बाद में आयेंगे|”
नहीं, नीचे उतरते हुए कह गयीं, “जल्दी आ जाना. जलेबी ठंडी हो रही है.”
फेंका गया?” मैं भाई के नजदीक—बहुत नजदीक जा खड़ा हुआ.
है?” सौतेले ने पूछा.
की ज़िम्मेदारी निभाने में मुश्किल आती है.”
“कैसी मुश्किल?”
में बहुत पैसा खर्च करना पड़ता है.”
है,” मैंने कहा.
ज़रूरी है,” भाई हँसा.
पूछा. माँ के बारे में मैं कुछ न जानता था. घर में उनकी कोई तस्वीर भी न थी.
ने उनसे खूब छीना-झपटी की. उन्हें बहुत मारा-पीटा. पर वे बहुत बहादुर थीं.पूरा जोश
लगाकर उन्होंने पिताजी का मुकाबला किया, पर पिताजी में ज्यादा जोर था. उन्होंने
जबरदस्ती माँ के मुँह में माँ की दुपट्टा ठूँस दिया और माँ मर गयीं.”
“मैंने बहुत कोशिश की थी.पिताजी
की बाँह पर, पीठ पर कई चुटकी भरीं, उनकी टाँग पर चढ़कर उन्हें दाँतों से काटा भी,परएक जबरदस्त घूँसा
उन्होंने मेरे मुँह पर ऐसा मारा कि मेरे दाँत वहीं बैठ गये…..”
बुलाया ही नहीं.”
जिज्ञासा हुई.
“उन्हें मनकों का बहुत शौक
था. मनके पिरोकर उन्होंने कई मूरतें बनायीं. बाजार से उनकी पसंद के मनके मैं ही
उन्हें लाकर देता था.”
लगते थे?” सौतेले ने पूछा, “सभी मूरतों में पंछी ही पंछी हैं.” घरकी लगभग सभी
दीवारों पर मूरतें रहीं.
तोते और कई कबूतर बनाये. कबूतर उन्हें बहुत पसंद थे. कहतीं, कबूतर में अक्ल भी
होती है और वफ़ादारी भी….. कबूतरों की कहानियाँ उन्हें बहुत आती थीं…..”
मैंने कहा.
“पर उन्हें चमड़े से कड़ा बैर
था. दिन में वे सैंकड़ों बार थूकतीं और कहतीं, इसमुए चमड़े की सड़ाँध तो मेरे कलेजे में आ घुसी
है, तभी तो मेरा कलेजा हर वक़्त सड़ता रहता है…..”
“मुझे भी चमड़ा अच्छा नहीं
लगता,” सौतेले ने कहा.
“बड़ा होकर मैं अहाता छोड़
दूँगा,” भाई मुस्कराया, “दूर किसी दूसरे शहर में चला जाऊँगा. वहाँ जाकर मनकों का
कारखाना लगाऊँगा…..”
उस दिन जलेबी हम तीनों में
से किसी ने न खायीं.
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अद्वितीय कहानी
रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानी, नमन