यूँ तो ये जिंदगी एक बिटर पिल ही है जिसे हमें चाहे अनचाहे गटकना ही पड़ता है | ज्यादातर लोग इसे आसानी से गटक जाते हैं क्योंकि वो इसे जस का तस स्वीकार कर लेते हैं | हालाँकि सही या गलत, उचित या अनुचित,निर्णय-अनिर्णय के बीच में हर कोई एक सीमा में झूलता है, परन्तु जब ये सीमा अपनी हद से ज्यादा बढ़ जाती है तो मनोविछछेद (psychosis) के लक्षण नज़र आने लगते हैं | वैसे psychosis एक umbrella टर्म है , जिसके अंदर अनेकों लक्षण आते हैं, लेकिन मुख्य रूप से ये उन चीजों को महसूस करना है जो नहीं होती या विश्वास करना जिन का वास्तविकता से कोई संबंध ना हो | एक दर्द और दहशत भरी जिन्दगी की इस बिटर पिल को गटकना बहुत -बहुत मुश्किल है | तो आइये पढ़ें एक वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की एक ऐसी ही मोवैज्ञानिक कहानी …
बिटर पिल
वेन इट स्नोज इन योर
नोज़
यू कैच कोल्ड इन योर
ब्रेन
ब्रेन
(‘हिम जब आपके नाक
में गिरती है तो ठंडक आपके दिमाग़ को जा जकड़ती है’) –ऐलन गिंज बर्ग
में गिरती है तो ठंडक आपके दिमाग़ को जा जकड़ती है’) –ऐलन गिंज बर्ग
“यह मोटर किसकी है?”
अपने बँगले के पहले पोर्टिको में कुणाल की गाड़ी देखते ही अपनी लांसर गेट ही पर
रोककर मैं दरबान से पूछता हूँ.
अपने बँगले के पहले पोर्टिको में कुणाल की गाड़ी देखते ही अपनी लांसर गेट ही पर
रोककर मैं दरबान से पूछता हूँ.
हाल ही में तैनात
किए गये इस नये दरबान को मैं परखना चाहता हूँ, हमारे बारे में वह कितना जानता है.
किए गये इस नये दरबान को मैं परखना चाहता हूँ, हमारे बारे में वह कितना जानता है.
“बेबी जी के मेहमान
हैं, सर!” दरबान अपने चेहरे की संजीदगी बनाये रखता है.
हैं, सर!” दरबान अपने चेहरे की संजीदगी बनाये रखता है.
बेटीअपनी आयु के
छब्बीसवें और अपने आई.ए.एस. जीवन के दूसरे वर्ष में चल रही है, किन्तु पत्नी का
आग्रह है कि घर के चाकर उसे ‘बेबी जी’ पुकारें. घर में मेमसाहब वही एक हैं.
छब्बीसवें और अपने आई.ए.एस. जीवन के दूसरे वर्ष में चल रही है, किन्तु पत्नी का
आग्रह है कि घर के चाकर उसे ‘बेबी जी’ पुकारें. घर में मेमसाहब वही एक हैं.
“कब आये?”
“कोई आधा घंटा पहले…..”
अपनी गाड़ी मैं बँगले
के दूसरे गेट के सामने वाले पोर्टिको की दिशा में बढ़ा ले आता हूँ.
के दूसरे गेट के सामने वाले पोर्टिको की दिशा में बढ़ा ले आता हूँ.
मेरे बँगले के दोनों
छोर पर गेट हैं और दोनों गेट की अगाड़ी उन्हीं की भाँति महाकाय पोर्टिको.
छोर पर गेट हैं और दोनों गेट की अगाड़ी उन्हीं की भाँति महाकाय पोर्टिको.
सात माह पूर्व हुई
अपनी सेवा-निवृत्ति के बाद एक फाटक पर मैंने ताला लगवा दिया है. दोनों सरकारी
सन्तरी जो मुझे लौटा देने पड़े, और दो दरबान अब अनावश्यक भी लगते हैं.
अपनी सेवा-निवृत्ति के बाद एक फाटक पर मैंने ताला लगवा दिया है. दोनों सरकारी
सन्तरी जो मुझे लौटा देने पड़े, और दो दरबान अब अनावश्यक भी लगते हैं.
पोर्टिको के दायें
हाथ पर मेरा निजी कमरा है जिसकी चाभी मैं अपने ही पास रखता हूँ. पहले सरकारी
फाइलों की गोपनीयता को सुरक्षित रखने का हीला रहा और अब एकान्तवास का अधियाचन है.
हाथ पर मेरा निजी कमरा है जिसकी चाभी मैं अपने ही पास रखता हूँ. पहले सरकारी
फाइलों की गोपनीयता को सुरक्षित रखने का हीला रहा और अब एकान्तवास का अधियाचन है.
“हाय, अंकल!” कुणाल
मुझे मेरे कमरे की चाभी के साथ उसके दरवाज़े ही पर आ पकड़ता है.
मुझे मेरे कमरे की चाभी के साथ उसके दरवाज़े ही पर आ पकड़ता है.
“कुणाल को आपसे काम
है पापा.” बेटी उसकी बगल में आ खड़ी हुई है.
है पापा.” बेटी उसकी बगल में आ खड़ी हुई है.
“उधर खुले में बैठते
हैं.” मेरे क़दम लॉबी की ओर बढ़ लेते हैं.
हैं.” मेरे क़दम लॉबी की ओर बढ़ लेते हैं.
दोनों मेरे साथ हो
लेते हैं. मेरे डग लम्बे हो रहे हैं. कुणाल को अपना दामाद बनाने कामुझे कोई चाव
नहीं. उसकी अपार सम्पदा के बावजूद. किन्तु बेटी के दृढ़ संकल्प के सामने मैं असहाय
हूँ. तीन वर्ष पूर्व एम.ए. पूरा करते ही उसने अपने इस बचपन के सहपाठी के संग विवाह
करने की इच्छा प्रकट की तो मैंने शर्त रख दी थी, बेटी को पहले आई.ए.एस. में आना
होगा. और अपने को आदर्श प्रेमिका प्रमाणित करने की उसे इतनी उतावली रही कि वह अपने
पहले ही प्रयास में कामयाब हो गयी. फिरअपनी ट्रेनिंग के बाद उसने जैसे ही अपनी
पोस्टिंग इधर मेरे पास, मेरे सम्पर्क-सूत्र द्वारा, दिल्ली में पायी है, कुणाल के
संग विवाह की उसकी जल्दी हड़बड़ी में बदल गयी है. फलस्वरूप चार माह पूर्व उसकी मँगनी
करनी पड़ी है और अब अगले माह की आठवीं को उसके विवाह की तिथि निश्चित की है.
लेते हैं. मेरे डग लम्बे हो रहे हैं. कुणाल को अपना दामाद बनाने कामुझे कोई चाव
नहीं. उसकी अपार सम्पदा के बावजूद. किन्तु बेटी के दृढ़ संकल्प के सामने मैं असहाय
हूँ. तीन वर्ष पूर्व एम.ए. पूरा करते ही उसने अपने इस बचपन के सहपाठी के संग विवाह
करने की इच्छा प्रकट की तो मैंने शर्त रख दी थी, बेटी को पहले आई.ए.एस. में आना
होगा. और अपने को आदर्श प्रेमिका प्रमाणित करने की उसे इतनी उतावली रही कि वह अपने
पहले ही प्रयास में कामयाब हो गयी. फिरअपनी ट्रेनिंग के बाद उसने जैसे ही अपनी
पोस्टिंग इधर मेरे पास, मेरे सम्पर्क-सूत्र द्वारा, दिल्ली में पायी है, कुणाल के
संग विवाह की उसकी जल्दी हड़बड़ी में बदल गयी है. फलस्वरूप चार माह पूर्व उसकी मँगनी
करनी पड़ी है और अब अगले माह की आठवीं को उसके विवाह की तिथि निश्चित की है.
“कहो!” लॉबी के सोफ़े
पर मैं बैठ लेता हूँ.
पर मैं बैठ लेता हूँ.
“अंकल…..” कुणाल
एक सरकरी पत्र मेरे हाथ में थमा देता है, “पापा को सेल्स टैक्स का बकाया भरने का
नोटिस आया है…..”
एक सरकरी पत्र मेरे हाथ में थमा देता है, “पापा को सेल्स टैक्स का बकाया भरने का
नोटिस आया है…..”
मेरे भावी समधी का
कनाट प्लेस में एक भव्य शॉपिंग कॉम्प्लेक्स है, दो करोड़ का.
कनाट प्लेस में एक भव्य शॉपिंग कॉम्प्लेक्स है, दो करोड़ का.
“इसकी कोई कॉपी है?”
मैं पूछता हूँ.
मैं पूछता हूँ.
“यह कॉपी ही है,”
बेटी कहती है, “हम जानते हैं इस आदेश से छुटकारा दिलवाना आपके बायें हाथ का खेल है…..”
बेटी कहती है, “हम जानते हैं इस आदेश से छुटकारा दिलवाना आपके बायें हाथ का खेल है…..”
वह सच कह रही थी.
छत्तीस वर्ष अपने
आई.ए.एस. के अन्तर्गत मेरे पास चुनिंदा सरकारी डेस्क रहे हैं और दो चोटी के विभाग.
फिर साहित्य और खेलकूद के नाम पर खोले गये कई मनोरंजन क्लबों का मैं आज भी सदस्य
हूँ और मेरे परिचय का क्षेत्र विस्तृत है.
आई.ए.एस. के अन्तर्गत मेरे पास चुनिंदा सरकारी डेस्क रहे हैं और दो चोटी के विभाग.
फिर साहित्य और खेलकूद के नाम पर खोले गये कई मनोरंजन क्लबों का मैं आज भी सदस्य
हूँ और मेरे परिचय का क्षेत्र विस्तृत है.
“मैं देख लूँगा.”
कुणाल का काग़ज़ मैं तहाने लगाता हूँ.
कुणाल का काग़ज़ मैं तहाने लगाता हूँ.
तभी मेरा मोबाइल बज
उठता है.
उठता है.
उधर ओ.एन. है.
जिस अधिकरण में अगली
एक तारीख को एक जगह ख़ाली हो रही है, उस जगह पर उसकी आँख है. मेरी तरह.
एक तारीख को एक जगह ख़ाली हो रही है, उस जगह पर उसकी आँख है. मेरी तरह.
आई.ए.एस. में हम एक
साथ आये थे और हमें कैडर भी एक ही मिला था और उसकी तरह मैंने भी अपनी नौकरी की एक-तिहाई
अवधि इधर दिल्ली ही में बितायी है.
साथ आये थे और हमें कैडर भी एक ही मिला था और उसकी तरह मैंने भी अपनी नौकरी की एक-तिहाई
अवधि इधर दिल्ली ही में बितायी है.
“तुमने सुना जी.पी. की
जगह कौन भर रहा है?” वह पूछता है.
जगह कौन भर रहा है?” वह पूछता है.
“तुम?” मैं सतर्क हो
लेता हूँ, “उस पर तुम्हारा ही नाम लिखा है…..”
लेता हूँ, “उस पर तुम्हारा ही नाम लिखा है…..”
“कतई नहीं. उस पर एक
केन्द्रीय मन्त्री के समधी आ रहे हैं….. आज लैटर भी जारी हो गया है…..”
केन्द्रीय मन्त्री के समधी आ रहे हैं….. आज लैटर भी जारी हो गया है…..”
नाम बूझने के लिए मुझे
कोई प्रयास नहीं करना पड़ा है.
कोई प्रयास नहीं करना पड़ा है.
“कोई भी आये!” अपने
संक्षोभ को छिपाना मैं बखूबी जानता हूँ.
संक्षोभ को छिपाना मैं बखूबी जानता हूँ.
“सो लौंग देन…..”
“सो लौंग…..”
इस बीच कुणाल को
बाहर छोड़कर बेटी मेरे पास आ खड़ी हुई है.
बाहर छोड़कर बेटी मेरे पास आ खड़ी हुई है.
“कुणाल घबरा रहा था,”
मेरे मोबाइल बन्द करने पर वह कहती है, “आप अपनी सहानुभूति उसे दें न दें…..”
मेरे मोबाइल बन्द करने पर वह कहती है, “आप अपनी सहानुभूति उसे दें न दें…..”
“हं….. हं.” मैं
अपने कन्धे उचकाता हूँ, “मैं अपने कमरे में चलूँगा. मुझे कुछ फ़ोन करने हैं……”
अपने कन्धे उचकाता हूँ, “मैं अपने कमरे में चलूँगा. मुझे कुछ फ़ोन करने हैं……”
“पपा आप इतने लोगों
को फ़ोन क्यों करते हैं?” अपनी खीझ प्रकट करने में बेटी आगा-पीछा नहीं करती, तुरन्त
व्यक्त कर देती है, “यह कमीशन, वह कमीशन, क्यों? यह ट्रिब्यूनल, वह ट्रिब्यूनल,
क्यों? यह बोर्ड, वह बोर्ड, क्यों? यह कमिटी, वह कमिटी, क्यों? क्यों कुछ और
हथियाना चाहते हैं, जब आपके पास घर में तमाम वेबसाइट हैं, ढेरों-ढेर म्यूजिक हैं,
अनेक किताबें हैं…..”
को फ़ोन क्यों करते हैं?” अपनी खीझ प्रकट करने में बेटी आगा-पीछा नहीं करती, तुरन्त
व्यक्त कर देती है, “यह कमीशन, वह कमीशन, क्यों? यह ट्रिब्यूनल, वह ट्रिब्यूनल,
क्यों? यह बोर्ड, वह बोर्ड, क्यों? यह कमिटी, वह कमिटी, क्यों? क्यों कुछ और
हथियाना चाहते हैं, जब आपके पास घर में तमाम वेबसाइट हैं, ढेरों-ढेर म्यूजिक हैं,
अनेक किताबें हैं…..”
“और जो मुझे कॉफ़ी पीनी
हो? तो किससे माँगू?”
हो? तो किससे माँगू?”
“आपको मात्र कॉफ़ी
पिलाने की ख़ातिर मैं अपनी सत्ताइस साल की नौकरी छोड़ दूँ? जिसके बूते आज मैं अपनी
बेटी की शादी का सारा गहना-पाती ख़रीद रही हूँ…..!” पत्नी अपने कमरे से बाहर निकल
आयी है. पेशे से वह डॉक्टर है, लेकिन मरहम-पट्टी से ज़्यादा दवा पिलाने में विश्वास
रखती है. दवा भी कड़वी से कड़वी. मेरे तीनों भाई उसकी पीठ पीछे उसे ‘बिटर पिल’ के
नाम से पुकारते हैं.
पिलाने की ख़ातिर मैं अपनी सत्ताइस साल की नौकरी छोड़ दूँ? जिसके बूते आज मैं अपनी
बेटी की शादी का सारा गहना-पाती ख़रीद रही हूँ…..!” पत्नी अपने कमरे से बाहर निकल
आयी है. पेशे से वह डॉक्टर है, लेकिन मरहम-पट्टी से ज़्यादा दवा पिलाने में विश्वास
रखती है. दवा भी कड़वी से कड़वी. मेरे तीनों भाई उसकी पीठ पीछे उसे ‘बिटर पिल’ के
नाम से पुकारते हैं.
“और जिसकी नौकरी के
बूते नौ करोड़ के इस बँगले में एक महारानी का जीवन बिताती हो, उसके लिए तुम्हें एक
कप कॉफ़ी बनाना भी बोझ मालूम देता है……” मैं भी बिफ़रता हूँ.
बूते नौ करोड़ के इस बँगले में एक महारानी का जीवन बिताती हो, उसके लिए तुम्हें एक
कप कॉफ़ी बनाना भी बोझ मालूम देता है……” मैं भी बिफ़रता हूँ.
“ममा तुम्हें याद
रखना चाहिए, पपा सभी मैरिज इवेंट्स का ख़र्चा उठा रहे हैं.”
रखना चाहिए, पपा सभी मैरिज इवेंट्स का ख़र्चा उठा रहे हैं.”
बेटी हम दोनों को
शान्त देखना चाहती है. अपने भले की ख़ातिर.
शान्त देखना चाहती है. अपने भले की ख़ातिर.
“और वह भी कहाँ?”
मैं उखड़ लेता हूँ, “कितना कहा, कम-से-कम लेडीज संगीत ही घर पर रख लो मगर नहीं…..
सब अशोक होटल ही में रखना है……”
मैं उखड़ लेता हूँ, “कितना कहा, कम-से-कम लेडीज संगीत ही घर पर रख लो मगर नहीं…..
सब अशोक होटल ही में रखना है……”
“पपा!” बेटी लाड़ से
मेरा हाथ चूम लेती है, “बैंक में आपके पास बेहिसाब रूपया है. अपनी इकलौती के लिए इतना
नहीं कर सकते?”
मेरा हाथ चूम लेती है, “बैंक में आपके पास बेहिसाब रूपया है. अपनी इकलौती के लिए इतना
नहीं कर सकते?”
उधर मेरी मनोविशेषज्ञा
है. वर्तमानकाल में मेरी गर्लफ्रेंड. मेरी‘लैस’ (प्रेयसी). मेरी अन्तरंग मित्र.
मेरी इष्टतम विश्वासपात्र. जिसेमैं अपने सभी भेद सौंप सकता हूँ. सौंप चुका हूँ.
अपने इकतालीसवें वर्ष में भी जो खूब बाँकी-तिरछी है और कन्यासुलभ अरुणिमा लिये है.
है. वर्तमानकाल में मेरी गर्लफ्रेंड. मेरी‘लैस’ (प्रेयसी). मेरी अन्तरंग मित्र.
मेरी इष्टतम विश्वासपात्र. जिसेमैं अपने सभी भेद सौंप सकता हूँ. सौंप चुका हूँ.
अपने इकतालीसवें वर्ष में भी जो खूब बाँकी-तिरछी है और कन्यासुलभ अरुणिमा लिये है.
“हलो!” मैं अपने
कमरे की ओर बढ़ लेता हूँ.
कमरे की ओर बढ़ लेता हूँ.
“आपकी मिस्ड कॉल है.
डिस्ट्रैस्ड? (विपदाग्रस्त?)”
डिस्ट्रैस्ड? (विपदाग्रस्त?)”
“हाँ,” मैं अपने
कमरे तक पहुँच लिया हूँ और खटकेदार उसका ताला बन्द करके आश्वस्तहो लेता हूँ.
कमरे तक पहुँच लिया हूँ और खटकेदार उसका ताला बन्द करके आश्वस्तहो लेता हूँ.
“मुझे तुम्हारे साथ
एक सेशन चाहिए. आज ही, अभी ही…..”
एक सेशन चाहिए. आज ही, अभी ही…..”
“नहीं हो पाएगा, सर.
मैं देहली से बाहर हूँ, तीसरे दिन लौटूँगी…..”
मैं देहली से बाहर हूँ, तीसरे दिन लौटूँगी…..”
“कहाँ?” मैं धैर्य
खो रहा हूँ.
खो रहा हूँ.
“बंगलौर, सर, आपको
बताया था यहाँ मेरी ननद शादी कर रही है…..”
बताया था यहाँ मेरी ननद शादी कर रही है…..”
“भूल गया! लेकिन
तुम्हें याद है न, बंगलौर से दिल्ली तुम्हें रेलगाड़ी से नहीं, प्लेन से आना है. कल,
इसी रविवार को. मेरे एक्सपेंस अकाउंट पर…..”
तुम्हें याद है न, बंगलौर से दिल्ली तुम्हें रेलगाड़ी से नहीं, प्लेन से आना है. कल,
इसी रविवार को. मेरे एक्सपेंस अकाउंट पर…..”
“यह सम्भव नहीं है,
सर! मेरी रेल टिकट सबके साथ ख़रीदी गयी है. मेरे बच्चे क्या करेंगे? मैं मंगलवार ही
को पहुँचूँगी.”
सर! मेरी रेल टिकट सबके साथ ख़रीदी गयी है. मेरे बच्चे क्या करेंगे? मैं मंगलवार ही
को पहुँचूँगी.”
मैं मोबाइल काट देता
हूँ.
हूँ.
अपनी दोलन कुर्सी पर
आ बैठता हूँ. अपने दवा के डिब्बे के साथ. अपनी दवा मुँह मेंरखता हूँ और डिब्बा बगल
वाली मेज पर ला टिकाता हूँ.
आ बैठता हूँ. अपने दवा के डिब्बे के साथ. अपनी दवा मुँह मेंरखता हूँ और डिब्बा बगल
वाली मेज पर ला टिकाता हूँ.
“बलवती…..” अपनी
दोलन कुर्सी मैं झुलाता हूँ.
दोलन कुर्सी मैं झुलाता हूँ.
बलवती मेरी पहली
प्रेयसी का नाम रहा. उसके कम्युनिस्ट पिता की देन.
प्रेयसी का नाम रहा. उसके कम्युनिस्ट पिता की देन.
“बलवती,” मैं
दोहराता हूँ, “बलवती…..”
दोहराता हूँ, “बलवती…..”
कालबाधित समय की एक
धज्जी मेरे मन के पार्श्व घाट से निकलकर मेरे समीप चली आती है.
धज्जी मेरे मन के पार्श्व घाट से निकलकर मेरे समीप चली आती है.
“फिर से नौकरी करोगे?”
बलवती कहती है, “फिर से असमान लोगों की अधीनता स्वीकारोगे? मार्क्स ने क्या कहा
था? हमें समाज समझना नहीं है, बदलना है…..”
बलवती कहती है, “फिर से असमान लोगों की अधीनता स्वीकारोगे? मार्क्स ने क्या कहा
था? हमें समाज समझना नहीं है, बदलना है…..”
“बलवती, मैं क्या
करूँ?” मैं रो पड़ता हूँ, “मेरे सिद्धान्त आज भी उतने ही अनिश्चित हैं….. समाज
में परिवर्तन चाहता भी हूँ और नहीं भी……”
करूँ?” मैं रो पड़ता हूँ, “मेरे सिद्धान्त आज भी उतने ही अनिश्चित हैं….. समाज
में परिवर्तन चाहता भी हूँ और नहीं भी……”
जाने कैसे मुझे नींद
घेर लेती है और मैं निर्जीव ही देखता हूँ, मेरे चारों ओर दीवारें ही दीवारें हैं!
घेर लेती है और मैं निर्जीव ही देखता हूँ, मेरे चारों ओर दीवारें ही दीवारें हैं!
दरवाज़ा कोई नहीं…..
“मेरे दरवाज़े कहाँ
हैं?” मैं चीख़ उठता हूँ.
हैं?” मैं चीख़ उठता हूँ.
क्या बेटी और पत्नी
ने मुझे जीते-जी दीवार में चिनवा दिया है?
ने मुझे जीते-जी दीवार में चिनवा दिया है?
तभी मेरा मोबाइल
बजता है.
बजता है.
“पपा, खाने की मेज
लग गयी है, आइए…..” बेटी का फ़ोन है.
लग गयी है, आइए…..” बेटी का फ़ोन है.
“लेकिन दरवाज़ा कहाँ
है?” मैं चिल्लाता हूँ.
है?” मैं चिल्लाता हूँ.
“आप क्या कह रहे
हैं,पपा?” बेटी की आवाज़ काँप रही है.
हैं,पपा?” बेटी की आवाज़ काँप रही है.
“मेरे तीनों दरवाज़े
ग़ायब हो चुके हैं,” मैं रो पड़ता हूँ, “न लॉबीवाला दरवाज़ा यहाँ है, न पोर्टिकोवाला
और न ही बाथरूमवाला…..”
ग़ायब हो चुके हैं,” मैं रो पड़ता हूँ, “न लॉबीवाला दरवाज़ा यहाँ है, न पोर्टिकोवाला
और न ही बाथरूमवाला…..”
“पपा आप चलना शुरू
कीजिए. दरवाज़ा अपने आप आपके सामने आ खड़ा होगा……”
कीजिए. दरवाज़ा अपने आप आपके सामने आ खड़ा होगा……”
मैं उठने की चेष्टा
करता हूँ, लेकिन उठ नहीं पा रहा.
करता हूँ, लेकिन उठ नहीं पा रहा.
अपने गिर्द फ़िर नज़र
दौड़ाता हूँ.
दौड़ाता हूँ.
अभी भी दरवाज़े ग़ायब
हैं.
हैं.
चारों तरफ़ दीवारें
ही दीवारें हैं.
ही दीवारें हैं.
“पपा, पपा…..”
“हाय!” मेरी रुलाई
अभी भी रुक नहीं रही, “मेरे दरवाज़े कोई चुरा ले गया है….. अब मैं क्या करूँगा?
मेरा क्या होगा?”
अभी भी रुक नहीं रही, “मेरे दरवाज़े कोई चुरा ले गया है….. अब मैं क्या करूँगा?
मेरा क्या होगा?”
“दरबान को बुलाकर
लाओ.” मेरा मोबाइल पत्नी की आवाज़ पकड़ता है, “उससे दरवाज़ा खुलवातेहैं-”
लाओ.” मेरा मोबाइल पत्नी की आवाज़ पकड़ता है, “उससे दरवाज़ा खुलवातेहैं-”
“एम्बुलेंस भी बुलवा
लेती हूँ…..” पत्नी कहती है, “कहीं फालिज़ ही न हो…..”
लेती हूँ…..” पत्नी कहती है, “कहीं फालिज़ ही न हो…..”
मैं नहीं जानपाता
अस्पतालमैंकब और कैसे पहुँचाया गया हूँ. लेकिन डिफेंसिव मेडिसिन के अन्तर्गत किये
जा रहे मेरे सभी टेस्ट्स की रिपोर्ट्स सही आ रही हैं. कहीं भी किसी भी रोग अथवा
विकार का उनमें कोई लक्षण नहीं मिल रहा.
अस्पतालमैंकब और कैसे पहुँचाया गया हूँ. लेकिन डिफेंसिव मेडिसिन के अन्तर्गत किये
जा रहे मेरे सभी टेस्ट्स की रिपोर्ट्स सही आ रही हैं. कहीं भी किसी भी रोग अथवा
विकार का उनमें कोई लक्षण नहीं मिल रहा.
तीसरे दिन मैं
अस्पताल छोड़ देने की ज़िद पकड़ लेता हूँ.
अस्पताल छोड़ देने की ज़िद पकड़ लेता हूँ.
मेरी कथा सुनते ही
वह बोल उठती है, “आप मनोविच्छेद की स्थिति से गुज़र रहे हैं, सर! आपका मस्तिष्क बँट रहा है. अपनी विचारणा और अपनी भाव-प्रवणता आप
पास-पास नहीं रख पा रहे! बेटी का विवाह उस व्यवसायी से करना भी चाहते हैं और नहीं
भी. पत्नी की पसन्द-नापसन्द को अपने से अलग रखना भी चाहते हैं और नहीं भी. अपने
समय को नयी उपजीविका से भरना भी चाहते हैं और नहीं भी.अपनी पहली प्रेयसी की
आत्महत्या के लिए स्वयं को उत्तरदायी मानना भी चाहते हैं और नहीं भी……”
दीपक शर्मा
वह बोल उठती है, “आप मनोविच्छेद की स्थिति से गुज़र रहे हैं, सर! आपका मस्तिष्क बँट रहा है. अपनी विचारणा और अपनी भाव-प्रवणता आप
पास-पास नहीं रख पा रहे! बेटी का विवाह उस व्यवसायी से करना भी चाहते हैं और नहीं
भी. पत्नी की पसन्द-नापसन्द को अपने से अलग रखना भी चाहते हैं और नहीं भी. अपने
समय को नयी उपजीविका से भरना भी चाहते हैं और नहीं भी.अपनी पहली प्रेयसी की
आत्महत्या के लिए स्वयं को उत्तरदायी मानना भी चाहते हैं और नहीं भी……”
दीपक शर्मा
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मन में उतरने वाली, मस्तिष्क में पैठने वाली एक अर्थगर्भित कहानी-
सागर मंथन सी, चिन्तन यात्रा सी।
अद्वितीय मनोवैज्ञानिक कहानी।