हंस अकेला रोया -ग्रामीण जीवन को सहजता के साथ प्रस्तुत करती कहानियाँ

हंस अकेला रोया -ग्रामीण जीवन को सहजता के साथ प्रस्तुत करती कहानियाँ
 “गाँव” एक ऐसा शब्द जिसके जुबान पर आते ही अजीब सी मिठास घुल जाती है
| मीलों दूर तक फैले खेत, हवा में झूमती गेहूं की सोने सी पकी बालियाँ, कहीं
लहलहाती मटर की छिमियाँ, तो कहीं छोटी –छोटी पत्तियों के बीच से झाँकते टमाटर,
भिन्डी और बैगन, कहीं बेल के सहारे छत
  पर
चढ़ इतराते घिया और कद्दू, दूर –दूर फैले कुछ कच्चे, कुछ पक्के घर, हवा में उड़ती
मिटटी की सुवास, और उन सब के बीच लोक संस्कृति और भाषा में रचे बसे सीधे सच्चे लोग
| यही तो है हमारा असली रूप, हमारा असली भारत जो जो पाश्चात्य सभ्यता में रचे
शहरों में नहीं बम्बा किनारे किसी गाँवों में बसता है |

पर गाँव के इस मनोहारी रूप के अतिरिक्त भी गाँव का एक चेहरा है…जहाँ
भयानक आर्थिक संकट से जूझते किसान है, आत्महत्या करते किसान हैं, धर्म और रीतियों
के नाम पर लूटते महापात्र, पंडे-पुजारी हैं | शहरीकरण और विकास के नाम पर गाँव की
उपजाऊ मिटटी को कंक्रीट के जंगल में बदलते भू माफिया और ईंट के भट्टे | गाँव के
लोगों की छोटी –मोटी लड़ाइयाँ, रिश्तों की चालाकियाँ, अपनों की उपेक्षा से जूझते
बुजुर्ग | जिन्होंने गाँव
  नहीं देखा उनके
लिए गाँव केवल खेत-खलिहान और शुद्ध जलवायु तक ही सीमित हैं | लेकिन जिन्होंने देखा
है वो वहाँ
 के दर्द, राजनीति, निराशा,
लड़ाई –झगड़ों और सुलह –सफाई से भी परिचित हैं | बहुत से कथाकार हमें गाँव के इस रूप
से परिचित कराते आये हैं | ऐसी ही एक कथाकार है सिनीवाली शर्मा जो गाँव पर कलम
चलाती हैं तो पाठक के सामने पूरा ग्रामीण परिवेश अपने असली रूप में खड़ा कर देती
हैं | तब पाठक कहानियों को पढ़ता नहीं है जीता है | सिनीवाली जी की जितनी कहानियाँ
मैंने पढ़ी हैं उनकी पृष्ठभूमि में गाँव है | वो खुद कहती हैं कि, ‘गाँव उनके हृदय
में बसता है |” शायद इसीलिये वो इतनी सहजता से उसे पन्नों पर उकेरती चलती हैं |

अपने कहानी संग्रह “हंस अकेला रोया” में सिनीवाली जी आठ कहानियाँ लेकर
आई हैं | कहने की आवश्यकता नहीं कि ये सारी कहानियाँ ग्रामींण पृष्ठभूमि पर आधारित
हैं | इस संग्रह के दो संस्करण आ चुके हैं | उम्मीद है कि जल्दी तीसरा संस्करण भी
आएगा | तो आइये
  बात करते हैं संग्रह की
कहानियों की |

हंस अकेला रोया -ग्रामीण जीवन को सहजता के साथ प्रस्तुत करती कहानियाँ


हंस अकेला रोया की लेखिका -सिनीवाली शर्मा



सबसे पहले मैं बात करुँगी उस कहानी की जिसके नाम पर शीर्षक रखा गया है
यानि की
  “हंस अकेला रोया” की | ये कहानी ‘परिकथा’
में प्रकाशित हुई थी | ये कहानी है एक ऐसे किसान विपिन की, जिसके पिता की मृत्यु
हुई है | उसके पिता शिक्षक थे | आस –पास के गाँवों में उनकी बहुत इज्ज़त थी | पेंशन
भी मिलती थी | लोगों की नज़र में उनका घर पैसे वाला घर था | लेकिन सिर्फ नज़र में,
असलियत तो परिवार ही जानता था | रही सही कसर उनकी बीमारी के इलाज ने पूरी कर दी |
कहानी शुरू होती है मृत्यु के घर से | शोक का घर है लेकिन अर्थी से लेकर तेरहवीं
में पूरी जमात को खिलाने के लिए लूटने वाले मौजूद हैं | अर्थी तैयार करने वाला,
पंडित , महापात्र, फूफा जी यहाँ तक की नाउन, कुम्हार, धोबी सब लूटने को तैयार बैठे
हैं | आत्मा के संतोष के नाम पर जीवित प्राणियों के भूखों मरने की नौबत आ जाए तो
किसी को परवाह नहीं | जो खाना महीनों एक परिवार खा सकता था वो ज्यादा बन कर फिकने
की नौबत आ जाए तो कोई बात नहीं, आत्मा की शांति के नाम पर खेत बिके या जेवर
 तो इसमें सोचने की क्या बात है ? ये कहानी
मृत्यु के उपरान्त किये जाने वाले पाखंड पर प्रश्न उठाती है पर इतने हौले से
प्रहार करती है कि कथाकार कुछ भी सीधे –सीधे नहीं कहती पर पाठक खुद सोचने को विवश
होता है |


ऐसा नहीं है कि ये सब काम कुछ कम खर्च में हो जाए इसका कोई प्रावधान
नहीं है | पर अपने प्रियजन को खो चुके
 
दुखी व्यक्ति को अपने स्वार्थ से इस तरह से बातों के जाल में फाँसा जाता है
कि ये जानते हुए भी कि उसकी इतनी सामर्थ्य नहीं है, फिर भी व्यक्ति खर्चे के इस
जाल में फँसता जाता है | ये सब इमोशनल अत्याचार की श्रेणी में आता है जिसमें
सम्मोहन भय या अपराधबोध उत्पन्न करके दूसरे से अपने मन का काम कराया जा सकता है |
जरा सोचिये ग्रामीण परिवेश में रहने वाले भोले से दिखने वाले लोग भी इसकी कितनी
गहरी पकड़
 रहते हैं | एक उदाहरण देखिये …


“किशोर दा के जाने के बाद  विपिन
के माथे पर फिर चिंता घूमने लगीं | दो लाख का इंतजाम तो किसी तरह हो जाएगा | पर और
एक लाख कहाँ से आएगा ? सूद पर …? सूद अभी दो रुपया सैंकड़ा चल रहा है | सूद का दो
हज़ार रुपया महीना कहाँ से आएगा…सूद अगर किसी तरह लौटा भी दिया तो मूल कहाँ से
लौटा पायेगा |

वहीँ दूसरी तरफ …

“अंतर्द्वंद के बीच सामने बाबूजी के कमरे पर विपिन की नज़र पड़ी …किवाड़
खुला है,
  सामने उनका बिछावन दिख रहा है |

उसे लगा एक पल में जैसे बाबूजी उदास नज़र आये.. नहीं नहीं बाबूजी मैं
भोज करूँगा | जितना मुझसे हो पायेगा | आज नहीं
 तो कल दिन जरूर बदलेगा पर अप तो लौट कर नहीं
आयेंगे …हाँ, हाँ करूँगा भोज |”
कथ्य भाषा और शिल्प तीनों ही तरह से ये कहानी बहुत ही प्रभावशाली बन
गयी है | एक जरूरी विषय उठाने और उस पर संवेदना जगाती कलम चलने के लिए सिनीवाली जी
को बधाई |

“उस पार” संग्रह की पहली कहानी है | इस कहानी बेटियों के मायके पर
अधिकार की बात करती है | यहाँ बात केवल सम्पत्ति पर अधिकार की नहीं है (हालांकि वो
भी एक जरूरी मुद्दा है-हंस जून 2019 नैहर छूटल
 
जाई –रश्मि  ) स्नेह पर अधिकार की
है | मायके आकर अपने घर –आँगन को देख सकने के अधिकार की है | इस पर लिखते हुए मुझे
उत्तर प्रदेश के देहातों में गाया जाने वाला लोकगीत याद आ रहा है …

“ जो मेरी ननदी प्यार करेगी, जल्दी ब्याह रच दूंगी |
जो मेरी ननदी लड़े-लड़ाई मैके को तरसा दूँगी ||”

लोकगीत लोक भावना के प्रतीक
होते हैं | अगर ननद अपने कहे अनुसार चलती है तो ठीक है वर्ना उसको मायका देखने को
ही प्रतिबंधित कर देना वो अत्याचार है जो महिलाएं ही महिलाओं पर करती हैं | मंगला
भी एक ऐसी ही भाभी है जो अपने ससुर द्वारा अपनी ननद के घर में कुछ पैसे दे देने के
कारण कोहराम मचा देती है | बात इतनी बिगड़ती है कि पिता खुद उसे नदी के उस पार ससुराल
के गाँव जाने के लिए ऑटो में बिठा देते हैं | मायके से लडकियां बड़े मान के साथ
विदा की जाती हैं | पैरों में आलता, हाथों में नयी चूड़ी और कोंछे में पड़े चावल
जिसके कुछ दाने आँचल में बंधे रहते हैं | परन्तु यहाँ एक बेटी को इस तरह अपमानित
होना पड़ता है | ये कई बेटियों का सच है | शहरों में भले ही बेटियाँ हक की बात करने
लगीं हो पर गाँवों में ये बयार अभी नहीं पहुँची है | कहानी पढ़ते हुए आप सुनैना के
साथ इतना जुड़ जायेंगे कि उसके दर्द को स्वयं महसूस करेंगे |

विशेष रूप से मैं बात करना चाहूँगी कहानी ‘नियति’की | आजकल इन्सेस्ट
पर बहुत बात हो रही है | घर की चारदीवारी के अंदर रिश्तों को कलंकित करते कितने
अपराध हो रहे हैं | रिश्तों को बचाए रखने की खातिर कितनी स्त्रियाँ मौन का कफ़न ओढ़
कर जीवन की लाश को घसीटती हैं, ये सच किसी से छुपा नहीं है |
 ये कहानी भी ससुर द्वारा बहु से जबरन बनाये गए
संबंधों पर आधारित है | कहानी में जिस खूबसूरती और कलात्मकता से इन संबधों का
वर्णन किया है उससे आम पाठक हो या साहित्यिक पाठक केवल उसकी संवेदना से जुड़ता है |
किसी अन्य तरह का भाव उसके मन में नहीं आता | कहानी है एक ऐसी स्त्री की जिसका पति
कालाआजार से पीड़ित है | महीनों से अशक्त पड़े पुत्र की पत्नी यानि अपनी पुत्र वधु
पर घर के मुखिया की बुरी नज़र है | एक दिन सास की अनुपस्थिति में वो …| दर्द,
अपमान, घृणा सी पीड़ित वो स्त्री हाँफते हुए उस अपराध को अपने पति को बता देती है |
अशक्त बीमार पति सहन नहीं कर पाता और आत्महत्या कर लेता है | श्वेत वस्त्र धारण
करने के बाद अभी भी वो उस घर में रहने को विवश है | क्योंकि यही तो हमारी परम्परा
है …”जिस घर में डोली जाती है अर्थी भी वहीँ से जाती है |” पर नियति उसके साथ एक
और खेल खेलती है | वो अभागी माँ बनने वाली है | यहाँ पर कहानी नए मोड़ लेती है |
किस तरह से लिंग जांच के बाद गर्भ हत्या की बात पर वो स्त्री अपने साथ हुए
अत्याचार पर अब मौन ना रह कर सबको बताने का प्रयास करती है | पर क्या उसकी बात
सुनी जाती है ? या फिर समाज पीडिता को ही अपराधी बना कर कटघरे में खड़ा कर देता है
| ये तो जब आप कहानी पढेंगे तब जान पायेंगे | लेकिन हमारे समाज का सच यही है | हम
और आप कितनी बार सुन चुके हैं …


“ लड़कों से तो भूल हो ही जाती है |”
“ लडकियाँ ऐसे उठती –बैठती, चली फिरती क्यों हैं ?”
“ पुरुष के अंदर तो होता ही जानवर है | सचेत तो लड़कियों को रहना चाहिए
|”


ये कहानी उसी की एक कड़ी है, लेकिन ऐसी कड़ी जो एक बार जरूर आपको हिला
कर रख देगी | कहानी की सबसे खास बात है उसका शिल्प | एक बोल्ड सब्जेक्ट पर लिखते
समय शिल्प को साधना ही कथाकार की सबसे बड़ी विशेषता है | जरा देखिये …
“पति को सुलाकर धीरे से कमरे के बाहर आकर वो आँगन में खटिया पर लेटी
ही थी | पता नहीं कब आँख लग गयी | न जाने रात का वो कौन सा पहर था , जो उसके जीवन
में ग्रहण लगा गया |”


“विसर्जन” कहानी यूँ तो गाँव में दशहरे के अवसर पर होने वाले नाटक से
शुरू होती है पर असल में यहाँ
 से गाँव में
कुछ और ही नाटक चलता है | ये कहानी गाँव की प्रतिस्पर्धा, झगड़ों, राजनीति की बयानी
है | बात दरअसल ये है कि गाँव में साल भर में मुख्य तीन आयोजन होते हैं | जिसमें
गाँव वाले जमकर चंदा देते हैं और बहुत धूम –धाम से मनाते हैं | इसमें से एक है
दशहरे
 के अवसर पर होने वाला नाटक , दूसरा
दीपावली का लक्ष्मी –गणेश पूजन और तीसरा छठ
 पूजन | इन आयोजनों को सफल बनाने के लिए  गाँव को तीन टोलों में बाँटा गया है | जिसमें
पूर्वी टोला दशहरे पर आयोजित तीन दिवसीय मेला व् नाटक की व्यवस्था करता है |
पश्चिमी टोला दीपावली पर लक्ष्मी जी की मूर्ति बिठाने व् पूजा की और गद्दी टोला छठ
 पर सूर्यदेव की प्रतिमा पूजन व् घाटों की
व्यवस्था का | अब तीन तोले हैं तो उनमें प्रतिस्पर्द्धा भी होगी ही | जिस टोले
 का कार्यक्रम सञ्चालन सबसे अच्छा होता है साल भर
तक सारे गाँव में उसी का डंका बजता है | ऐसे सुअवसर को भला कौन अपने हाथ से जाने
देना चाहेगा | तीनों अपने –अपने तरीके से मेहनत करते हैं | यहीं से शुरू होती है
गाँव की राजनीति | किसी लकीर को छोटा करने के लिए उससे बड़ी लकीर खींचनी पड़ती है |
लेकिन अगर बड़ी लकीर खींचते ना बने तो ? तो आसान है कि बड़ी लकीर को थोड़ा मिटाने की
कोशिश की जाए | गाँव हो या शहर पर्तिस्पर्द्धा के दौर में यही तो होता आया है |
दूसरे का काम और नाम खराब कर दो |

तो कहानी में पूर्वी टोला के नाटक को बिगाड़ने का काम पश्चिमी टोले  वाले करते हैं और उनकी लक्ष्मी पूजा में व्यवधान
डालने का प्रयास पूर्वी तोले वाले | ऐन लक्ष्मी विसर्जन के दिन तीनों टोलों के
मध्य चल रहे इस गुरिल्ला युद्ध का क्या नतीजा निकलता है इसे तो आप कहानी पढ़कर ही
जान पायेंगे पर कहानी के साथ –साथ गाँव की भाषा, चालाकियाँ, योजनायें, चतुराई आदि
से जिस तरह रूबरू होते हैं उससे गाँव का एक दृश्य आँखों के सामने खींचता जाता है |
 
‘घर’ कहानी एक अलग तरीके की कहानी है | जिसमें घर की कल्पना ईंट गारे
का बना हुआ ना होकर एक एक ऐसे बुजुर्ग
  से
की गयी है जिसके पास भी आत्मा है | भले ही वो कुछ बोल नहीं पाता पर हर दर्द को, हर
अलगाव को, हर कुटिलता को महसूस करता है | जब –जब घर का बंटवारा होता है वो भी रोता
है, तड़पता आहत होता है पर उसे काट-छांट कर उसके अंदर अपने –अपने अलग –अलग घर बना
लेने की ख्वाइश में हम उसका दर्द
 कहाँ सुन
पाते हैं | कहानी का ताना- बाना संवेदना के जिस स्तर पर बुना गया है उसे पढ़कर शायद
आप अपने घर की बेआवाज़ चीखें सुन पाएं |
सिकड़ी कहानी गले में पहने जाने वाले जेवर की कहानी है | वर्षों पहले
राम किशोर की कनिया की मायके में साँप के काटने से मृत्यु हो गयी थी तब उसने गले
में सिकड़ी पहनी हुई थी परन्तु घंटे भर में सिकड़ी उसके गले से गायब हो गयी | तमाम
रोने तड़पने  वाले रिश्तों में से आखिर
किसने मृत देह से सिकड़ी उतारने का काम किया ? वर्षों बरस कभी दबी –छुपी तो कभी
महिला मण्डली में मुखर होकर ये सिकड़ी रहस्य कांड 
चलता रहा | आखिर सिकड़ी का हुआ क्या ? सिकड़ी का जो भी हुआ हो पर इस बहाने
गाँव की औरतों के बतरस का लाभ पाठक जरूर उठाएंगे | और जब सिकड़ी का रहस्य  खुलेगा तब …|
आँखों देखा हाल गाँव में होने वाले
क्रिकेट  मैच का वर्णन है | ये थोड़ी हलकी
फुलकी मनोरंजक कहानी है |

“चलिए अब”  …संग्रह की आखिरी
कहानी है और बुजुर्गों के शोषण पर आधारित है | कहते हैं कि बुढापे में पैसा अपने
हाथ में जरूर रहना चाहिए वर्ना अपने ही छीछालेदर करने में कोई कसर नहीं रखते |
कहानी
 एक ऐसे ही बुजुर्ग की है जो पुत्री
और पत्नी की मृत्यु के बाद अकेला रह गया है | उसको धनवान समझकर दोनों भाइयों में
उसकी जिम्मेदारी लेने की होड़ मचती है | लेकिन जैसे ही ये रहस्य खुलता है कि उसके
पास ज्यादा पैसे नहीं हैं | अपमान और उपेक्षा के दंश शुरू हो जाते हैं | कहानी
 की एक खास बात मुझे अच्छी लगी जिसमें इस
वास्तविकता को दिखाया गया है कि जो लोग घर में बुजुर्ग का शोषण कर रहे हैं वो
दूसरों के आने पर भले होने का नाटक करने लगते हैं | परिवार वालों के इस दोहरे
चरित्र के कारण उपेक्षित बुजुर्गों का दर्द बाहर वाले या शुभचिंतक
 समझ नहीं पाते | हालांकि कि कहानी का अंत
सकारात्मक है जो आश्वस्त करता है कि अपनों में न सही किसी में तो संवेदना अभी भी
बाकी है | इंसानियत पूरी तरह मरी नहीं है | वैसे ये सब्जेक्ट कई बार उठाया गया है
| पर इसे बार-बार उठाये जाने की जरूरत है | क्योंकि मशीन में बदलते मानव को ऐसी
कहानियाँ दिशा दिखाती हैं | विवेक मिश्रा जी की ‘एल्बम’, प्रज्ञा जी की ‘उलझी
यादों के रेशम’ और ‘चले अब’ का विषय बुजुर्गों की समस्या ही है | परन्तु सबका
प्रस्तुतीकरण अलग है जो उन्हें खास बनाता है |

अंत में यही कहूँगी कि गाँव के जीवन को अपनी कलम से पन्नों में उतारने
में सिनीवाली जी पूर्णतया सफल
  हुई हैं |
आजकल लेखकों द्वारा आत्मकथ्य
 लिखने का चलन
है | इधर कई पुस्तकों में उसे पढ़कर मेरी आदत सी बन गयी है कि लेखक अपनी किताब के
बारेमें क्या कहना
 चाहता है | उसकी कमी मुझे
थोड़ी से खली | आशा है सिनीवाली
  जी अगले
संस्करण में आत्मकथ्य भी शामिल करेंगी |
 
मेरे पास इस पुस्तक का मलयज प्रकाशन से प्रकाशित दूसरा संस्करण है | जिसके  कवर पेज पर बना दुखी किसान और मंडराती चील
शीर्षक को सार्थक कर रहे हैं | 96 पेज के इस संग्रह में संपादन त्रुटी रहित है |
अगर आप सशक्त कथ्य –शिल्प के साथ गाँव को पुन: जीना चाहते हैं तो ये
संग्रह आपके लिए मुफीद है |
हंस अकेला रोया –कहानी संग्रह
लेखिका-सिनीवाली शर्मा
प्रकाशक – मलयज प्रकाशन
पृष्ठ -96
मूल्य -100 रूपये (पेपर बैक )
पुस्तक मंगवाने के लिए –
मलयज प्रकाशन
शालीमार गार्डन एक्स्टेंशन -1
गाजियाबाद -201005(उत्तर प्रदेश )


वंदना बाजपेयी 
                       
लेखिका -वंदना बाजपेयी

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3 thoughts on “हंस अकेला रोया -ग्रामीण जीवन को सहजता के साथ प्रस्तुत करती कहानियाँ”

  1. समीक्षा हर कहानी को पढ़ने के लिए उत्कंठा जगाती हैं। कहानियां तो सोना है,पर चमकाने का काम समीक्षक ने किया है। मैं इस समीक्षा के चलते हर पुस्तक खरीदने के लिए मजबूर हो जाती हूं। लेखिका को साधुवाद।

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  2. हमेशा की ही तरह बेहतरीन समीक्षा… आपको तथा सिनीवाली को हार्दिक बधाई एवम् अनंत शुभकामनाएँ 💐💐

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