मन्नत टेलर्स –मानवीय संवेदनाओं पर सूक्ष्म पकड़

मन्नत टेलर्स –मानवीय संवेदनाओं पर सूक्ष्म पकड़
 आज का दौर बाज़ारों
का दौर है | ये केवल अपनी जगह सीमित नहीं है | ये बाज़ार हमारे घर तक आ गए हैं | ये
हमें कहीं भी पकड़ लेते हैं | हम सब इसकी जद में है | टी.वी, रेडियो, मोबाइल
स्क्रीन से आँख हटा कर जरा दूर देखने की कोशिश करें तो किसी ना किसी होर्डिंग पर
कुछ ना कुछ खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है | आज हमारे पास पहले से
ज्यादा कपड़े है, महंगे मोबाइल हैं, गाड़ियाँ हैं, लोन पर लिए ही सही पर अपने फ़्लैट
हैं | हम सब अपने बढ़ते जीवन स्तर की झूठी शान से खुश हैं | उपभोक्तावाद की अंधी
दौड़ में भागते हुए हमें कहाँ ध्यान जाता है गिरते हुए मानव मूल्यों का, टूटते
रिश्तों का और आपसी सौहार्द का | ये सब लिखते हुए मुझे याद आ रहा है महान
वैज्ञानिक
  न्यूटन का तीसरा नियम…क्रिया
की प्रतिक्रिया जरूर होती है | ठीक उतनी ही लेकिन विपरीत दिशा में | आप सोच रहे
होंगे कि विज्ञान का यहाँ क्या काम है | लेकिन भौतिकी का
  ये नियम उपभोक्तावाद की संस्कृति में भी मौजूद
है | जरा गौर कर के देखिएगा…बाज़ार से हमारी दूरी जितनी घट रही है, आपसी रिश्तों
की दूरी उतनी ही बढ़ रही है | ठीक उतनी ही लेकिन विपरीत दिशा में |
“उसकी साड़ी मेरी
साड़ी से सफ़ेद कैसे” से आपसी रिश्तों में इर्ष्या के बीज बोती इस उपभोक्तावादी
संस्कृति का असर सिर्फ इतना ही नहीं है | “मेरे घर के बस दस कदम की दूरी पर मॉल
है”, “मेट्रो तो मेरे घर के बिलकुल पास से गुज़रती है”, “हम तो सब्जियाँ
 भी अब ऐ.सी . मार्किट से ही खरीदते हैं…भाई
कौन जाए सब्जी मंडी में झोला उठाकर पसीने बहता हुआ” जब हम बड़ी शान से ऐसे वाक्य
कहते हुए विकास का जय घोष करते हैं तो हम बड़ी ही बेरहमी में उन लोगों की पीड़ा के
स्वरों को दबा देते हैं जिनकी रोजी –रोटी छिन गयी है | जिनके बच्चों की पढाई छूट
गयी है | जिनकी झुगगियाँ तोड़ दी गयी हैं | इस संवेदनहीनता में हम सब शामिल हैं |
बाजारवाद की भेंट चढ़े उन्हीं मानवीय रिश्तों, जीवन मूल्यों और रोजी-रोटी से महरूम
किये गए दबे कुचले लोगों के प्रति संवेदना जगाने के लिए प्रज्ञा जी लेकर आई है
“मन्नत टेलर्स” | इस कहानी संग्रह की हर कहानी कहीं ना कहीं आपको अशांत करेगी,
सोचने पर विवश करेगी, और विवश करेंगी उन प्रश्नों के उत्तर खोजने को भी जो आपके मन
में प्रज्ञा जी हलके से रोप देती हैं |

यूँ तो बहुत तरह की
कहानियाँ लिखी जाती है पर साहित्य का उद्देश्य ही अपने समय को रेखांकित करना है,
संवेदना जगाना और समाधान ढूँढने को प्रेरित करना है | आज जब महिला लेखिकाओं पर लोग
आरोप लगाते हैं कि वो केवल स्त्री संबंधित
 मुद्दों पर ही लिखती है तो मुझे लगता है कि
मन्नत टेलर्स’ जैसे कथासंग्रह उन सारे आरोपों का जवाब है | जहाँ ना सिर्फ
बाज़ारवाद
  पर सूक्ष्म पकड है बल्कि उसके
दुष्प्रभावों पर संवेदना जगाने की ईमानदार कोशिश भी | जैसा की अपने आत्मकथ्य में
प्रज्ञा जी कहती हैं कि, “ जब धरती बनी तो उस पर रास्ते नहीं थे| पर जब बहुत सारे
लोग एक ही दिशा की ओर चलते चले गए तो रास्ते बन गए | समाज की कठोर परिस्थियों और
निराशाओं के अंधेरों की चट्टान के नीचे मुझे हमेशा एक नए पौधे की हरकत दिखाई दी है
| ये कहानियाँ साधारण से दिखने वाले लोगों के असाधारण जीवट की कहानियाँ हैं |”

मन्नत टेलर्स –मानवीय संवेदनाओं पर सूक्ष्म पकड़ 

लेखिका -प्रज्ञा

लो बजट’ इस
संग्रह की पहली कहानी है | ये कहानी है प्रखर की जो अपने दोस्त संभव के साथ दिल्ली
में एक ‘लो बजट’ का फ़्लैट ढूढ़ रहा है | प्रखर अपनी पत्नी व् दो बच्चों के साथ अभी
किराए के मकान में रहता है | उसका भी सपना वही है जो किराए के मकानों में रहने
वाले लाखों लोगों का होता है …एक अपना घर हो, छोटा ही सही लेकिन जिसकी दीवारें
अपनी हों और अपनी हो उस की सुवास | और फिर फ़्लैट अपने होने से
  हर महीने दिए जाने वाले किराए से भी छुट्टी
मिलती है |
  कहानी की शुरुआत फ़्लैट ढूँढने
में होने वाली परेशानियों से होती है | आये दिन प्रॉपर्टी डीलर फ़्लैट देखने के लिए
बुला लेता है | संडे की एक सुकून भरी छुट्टी बर्बाद होती है | फिर भी फ़्लैट पसंद
नहीं आता | किसी की फर्श चीकट है तो किसी के किचन का स्लैब बहुत नीचा और किसी की
अलमारियाँ दीमकों का राजमहल बनी हुई हैं | घर ढूँढने की शुरूआती परेशानियों के
बाद
  जैसे-जैसे कहानी आगे बढती है भू
माफियाओं के चहरे बेनकाब करती चलती है | किस तरह से उपभोक्ताओं का शोषण हो रहा है
| किस तरह से तंग गलियों में ऊँचे –ऊँचे फ़्लैट बन कर महंगे दामों में बेचे जा रहे
हैं | किस तरह से बिना नक्शा पास कराये फ्लैस जब तोड़े जाते हैं तो नुकसान सिर्फ और
सिर्फ खरीदार को होता है | एक उदहारण देखिये …

“ आप क्या समझ रहे
हैं मकान खरीदने को ? इतना आसान है क्या ? फ़्लैट पसंद आ भी गया तो उसके साथ
रजिस्ट्री की कीमत जोड़ो | हमारे दो परसेंट कमीशन को जोड़ो | फिर कागज़ बनवाने के साथ
अथॉरिटी से कागज़ निकलवाने का खर्चा जोड़ो | और फिर असली कीमत तो तय होगी मालिक के
साथ टेबल पर |”

जिन्होंने  भी फ़्लैट खरीदे  हैं या प्रयास किया है वो सब इस दौर से गुज़रे
होंगे | कहानी यहीं नहीं रूकती | उसका फैलाव उन खेतों तक पहुँचता है जिन पर भू
माफियाओं की नज़र है | जहाँ किसान की मजबूरी खरीदी जा रही है या उन्हें बड़े सपने
बेच कर कृषि योग्य भूमि खरीदी जा रही है | बड़ी ही निर्ममता से हरी फसलों से लदे
खेतों को कंक्रीट के जंगलों में बदला जा रहा है | कृषि योग्य भूमि की कमी हो रही
है | किसान आत्महत्या कर रहे हैं | पर इसकी चिंता किसे है कि उपजाऊ जमीन और
अन्नदाता को मृत्यु की ओर धकेल कर वो भविष्य में खायेंगे क्या ? क्या ये ईट गारा
उनका पेट भर सकेगा ? दरअसल
 अपना घर का
सपना है ही इतना हसीन की हम सब उसके तिलस्म में बंधे दौड़ते चले जा रहे हैं | जो कल
होगा उसे कल सोचे कि जगह क्या ये जरूरी नहीं है कि हम उस पर आज सोचे और उस भयावह
कल से बच सकें | प्रखर का ‘लो बजट’ घर का सपना पूरा हुआ या नहीं ये तो आपको कहानी
पढ़ कर ही पता चलेगा | पर इस कहानी को पढने के बाद आप घर का सपना देखते लाखों लोगों
की समस्याओं, सरकारी तंत्र और प्रॉपर्टी डीलर्स की मिली भगत और कृषियोग्य भूमि पर
भूमाफियाओं की लपलपाती जीभ के सत्य से अवश्य रूबरू होंगे |


 ‘मन्नत टेलर्स’ इस संग्रह की
सातवीं कहानी है पर इसकी बात पहले इसलिए कर रही हूँ क्योंकि ये कहानी आज की
लोकप्रिय कहानियों में अपना स्थान बना चुकी है
| इस कहानी की विशेषता है इसका बाजारवाद
और उपभोक्तावाद का सटीक चित्रण
| ये कहानी आज के समय की कहानी है | हम सब इस कहानी को अपने आस पास देख भी रहे
हैं और कुछ हद तक जी भी रहे हैं
| कहानी पुराने कारीगरों और हुनरमंद लोगों को बाज़ार द्वारा लील
लिए जाने के अवसाद से शुरू होती है
| यहाँ इसे दर्शाने का माध्यम बनते हैं
रशीद भाई जो
मन्नत टेलर्सनाम से दर्जी की दुकान चलाते थे | समीर द्वारा “मन्नत टेलर्स के रसीद भाई
को याद करते हुए उस समय को याद किया गया है जब ग्राहक और दुकानदार के बीच रिश्ता
महज कीमत चुकाओ और सामान खरीदों जितना सतह तक सीमित नहीं था
| ये रिश्ते बड़े
आत्मीय थे
| जो एक दूसरे को पारिवारिक स्नेह के बंधन में बांधते थे | कहानी में आज के
स्लिम फिट युग में रेगुलर फिट की चाह  रखते
हुए समीर  उसी समय को याद कर जब मन्नत
टेलर्स को खोजता तो साथ में समेटता चलता  है आत्मीय रिश्तों से भरी उन दुकानों की यादों
को जहाँ सामान  खरीदने का मतलब खुद ही किसी
ढेर से अपनी पसंद की चीज उठा कर  काउंटर पर
बिल पे कर देना भर ही नहीं होता | एक दृश्य देखिये …
“ऐसा करिए मास्साब ! अलग –अलग पीस के
बजाय एक ही थान ले लीजिये | गुप्ता जी की दूकान से मेरा नाम लेकर |” अचकचाकर  उन्हें देखते हुए पिताजी बोले “यार हँसी उड़वाओगे
हमारी ? लोग शादी में सिर्फ एक थान के परिवार की वजह से याद रखेंगे |”
उस समय रसीद भाई ने मायूसी के बादल
छांटते हुए कहा,”इत्मीनान रखें आप !एक थान आपको सस्ता पड़ेगा और मैं ऐसा बना दूँगा
कि कोई बता ना पायेगा कि कपड़ा एक है …और दु कानदार को पैसा देने की जल्दी न
कीजियेगा | शादी का मामला ठहरा, सौ खर्च होंगे घर के, मैं बात कर लूँगा |”
समीर ये सब याद करते हुए वहाँ पहुँचता
है जहाँ तब “मन्नत टेलर्स हुआ करती थी,  और
वहाँ जो वो देखता है उसमें जो ख़ुशी और दुःख का जो सम्मिश्रण है वो कहानी की जान है
| इस अवसाद को पकड़
पाना इतना सहज नहीं है
| इसमें छिपा है हुनरमंद कारीगरों का दर्द जो बाजारवाद के हत्थे
चढ़ गए
| हम भी कहाँ
सोचते हैं चमचमाते हुए शो रूम से कुछ खरीदते समय उनके बारे में जिनके हुनर को इन
बाजारों ने खरीद लिया है
| इस कहानी की विशेषता ये है कि वो शब्दों से निकल कर दृश्य रूप
ले लेती है …और घटनाए सामने घटने लगती है
| कथाकार की विशेषता होती है कि वो एक
शब्द या पंक्ति में बहुत कुछ अनकहा कह दे
| ऐसा ही एक शब्द मेरे जेहन में उभर रहा
है वो है पॉलीथीन की चुररम चू …यह चुररम चू बहुत कुछ कह देती है जिसे समीर छिपाना
चाहता है


‘बतकुच्चन’ एक सॉफ्ट
सी कहानी है जो दो बहनों की फोन पर बातचीत के माध्यम से आगे बढती है | इस कहानी को
पढ़कर आप अपने रिश्तों की गर्माहट को जरूर महसूस करेंगे | महिलाओं पर अक्सर आक्षेप
लगते रहते हैं कि वो बुराई करती रहती हैं या निंदा रस में मशगूल रहती हैं | पर
यहाँ इस बुराई को भी बहुत सकारात्मक  रूप
में लिया गया है | दरअसल रिश्तों में रहते हुए हम छोटी –छोटी बातों पर आहत होते
रहते हैं और ये बात ना सिर्फ आपस में कहते भी रहते हैं बल्कि ये भी कहते रहते हैं
कि, “अब हम उनके यहाँ नहीं जायेगे”, “उनसे बात नहीं करेंगे”| लेकिन ये गुस्सा केक
के ऊपर  लगे चेरी की तरह केवल सतह पर सीमित
रहता है | अंदर अभी भी प्यार का दरिया बह रहा होता है | जिसे इंतज़ार रहता है कि
कोई जरा सा बस पूछ ले और हम इस नाराज़गी का झूठा खोल फाड़ कर एक बार फिर प्यार से
गले मिल लें | प्रज्ञा जी ने इस कहानी के माध्यम से प्यार के इस दरिये के बहाव में
मन को ऐसा बहाया कि भावनाओं का सागर उसे अपने अंक में भर लेने को मचल पड़ा | इस
कहानी को पढने के बाद आपको अपने उन रिश्तों की जरूर याद आएगी जिनसे छोटे –मोटे
गिले –शिकवे हैं पर जिन्हें आपने और उन्होंने अहंकार का प्रश्न बना लिया है | बस
ये ख्याल आते ही देखिएगा कि कैसे ये दीवार भडभडा कर गिरेगी | आज जब रिश्ते जरा –जरा
सी बात पर टूट रहे हैं ऐसे में प्रज्ञा जी इस कहानी माध्यम से उसकी दिली गहराई को
फिर से स्थापित करती हैं |जो बहुत सुखद है | इसके लिए उन्हें बधाई |

रिश्तों पर आधारित एक अन्य कहानी है “उलझी
यादों के रेशम”
| ये कहानी इतनी बेहतरीन है कि इसे पढने के बाद मेरी भावनाओं
का ज्वर भाटा तो फूटा ही,
  मुझे दो दिन तक
कुछ और पढने का मन नहीं किया | किसी के लिए अपने पिता को खोना एक बहुत बड़े दर्द का
सबब होता है | लेकिन समय के साथ इंसान उस दर्द से निकलता है परन्तु अगर किसी के
पिता लापता हो जाएँ तो… ? यकीनन उसकी रेशमी यादें अन्तकालीन इंतज़ार में उलझ कर
रह जाती हैं | ऐसी ही एक बेटी है बिट्टू …जिसके वृद्ध पिता अचानक से कहीं चले गए
हैं और वो अपने लापता पिता के वीरान पड़े आशियाने में अपना वही पुराना घर ढूँढने
आती है जिसमें गुज़रते वक्त की गर्त में जाले लग गए हैं …और उन जालों में उलझ कर
रह गयीं हैं रेशमी यादें | ये कहानी एक लापता पिता के माध्यम से बुजुर्गों के
अकेलेपन और उससे उपजी समस्याओं से दो –चार कराती चलती है | आखिर क्या –कारण है कि
तीन बच्चों के पिता आज अकेले वीरान पड़े घर में जीवन काट रहे हैं ? जिन्होंने अपने
तीनों बच्चों को पालने में पूरा जीवन लगा दिया उनके जीवन के अंतिम पड़ाव में सब
इतने व्यस्त हो गए कि उनके पास अपने पिता के हाल –चाल पूछने का समय भी नहीं रहा | पिता
के अचानक से गुम हो जाने पर बच्चे जिस गिल्ट से भरते हैं, जिस तड़प से गुज़रते हैं
उस कारण ये कहानी बुजुर्गों पर लिखी अन्य कहानियों से बिलकुल अलग हो जाती है | इस
घनघोर नकारात्मकता के पीछे भी सकारात्मकता प्रज्ञा जी खोज लेती हैं | बच्चे बुरे
नहीं हैं …बस जिन्दगी की भागदौड़ में आगे और आगे दौड़ते हुए पिता पीछे छूटते चले
गए | ये कब और कैसे हुआ समझ ही नहीं आया | सफलता की दौड़ में आगे दौड़ते हुए हम
बहुमूल्य रिश्तों की कितनी बड़ी कीमत चुकाते हैं ये कहानी उसी पर प्रकाश डालती है |
भावनाओं के ज्वार से निकलने के बाद जब आप ठहर कर सोचेगे तो अब तक पाया हुआ बहुत
कुछ बेमानी लगने लगेगा | ये बेमानी लगना और रिश्तों की अहमियत को समझना ही इस
कहानी की सफलता है |

अगर आप के बच्चे टीन एजर हैं या हाल ही में
उन्होंने इस उम्र को पार किया है तो
“तेरहवीं दस्तक’ कहानी आपको अपने घर की
कहानी लगेगी | सारी
 घटनाएं आपके अपने घर
की घटनाएं होंगी जो आपकी स्मृति की रील में एक बार फिर से घूम जायेंगी | “हमारी भी
तो यही उम्र थी कभी, पर हम तो ऐसे नहीं थे” कहकर जब हम आज के उदंड,वाचाल, मनमौजी
और कुछ हद तक अवज्ञा करने वाले बच्चों पर लगाम लगाना चाहते हैं तो एक तरह से हम
उनके साथ बातचीत करने के सारे द्वार बंद कर देते हैं | एक माता –पिता के रूप में
हम सब किशोर बच्चो के व्यवहार से परेशान हैं पर क्या कभी हम इसकी गहराई में उतर कर
देखना चाहते हैं कि आज के बच्चे किन तनावों से गुज़र रहे हैं | उन पर पढाई का,
साइंस स्ट्रीम लेने का, प्रतियोगी परीक्षाओं का दवाब तो है ही , आज सोशल मीडिया के
कारण सार्वजानिक जीवन का विस्तार हो जाने के कारण सुंदर दिखने, पॉपुलर होने, हर
क्षेत्र में बेस्ट होने का जो दवाब है उससे बच्चे कितने तनाव के शिकार हो रहे हैं
ये कहानी उन मुद्दों को भी उठाती है | प्रोफेशनेलिज्म की अंधी दौड़ में हमने बच्चों
को अपने सपनों की रेस का घोड़ा बना दिया है | हम ये तो कह देते हैं कि बच्चों में
सहनशीलता नहीं रही वे जरा सी बात पर आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं | पर क्या ये
बात जरा सी होती है है या तनाव का एक ढेर जिस पर वो बैठे हैं उस पर एक छोटा सा
तनाव भी उनकी सहनशक्ति को तोड़ देता है ? ये कहानी बच्चों के साथ आपसी संवाद पर जोर
देती है …साथ ही आगाह करती है कि संवाद के लिए एक दोस्ती नुमा माहौल हमें ही
बनाना पड़ेगा |
 

कभी आप के किसी परिचित का फोन आने के बाद वो कहे
कि, “उसकी तो जिन्दगी ही बर्बाद हो गयी है”, “आज का दिन उसकी जिन्दगी का सबसे खराब
दिन था” और उसके बाद फोन कट जाए | लाख मिलाने पर भी ना मिले, तो आप क्या सोचेंगे ?
जाहिर है एक से एक बुरे ख्याल आपके जेहन में तैरने लगेंगे | हो सकता है भगवान् भी
मनाने लगें | प्रार्थना उपवास भी मान लें | किसी आकस्मिक मदद के लिए पैसे भी निकाल
लें | ऐसी ही भावनाओं की जद्दोजहद से गुज़रती है कहानी
‘तबाह दुनिया की दास्तान
| लेकिन जब कहानी मुकम्मल होती है तो …आप अपने साथ घटे किसी ऐसी
  एक वाकये को जरूर याद करेंगे |

“एक झरना जमींदोज” में
किस्सागोई इतनी बेहतरीन है कि आप उसके प्रभाव में आये बिना नहीं रह सकते | इस तरह
की किस्सागोई साधना कोई आसान काम नहीं है | लेकिन जिस तरह से उसे साधा गया है वो
वाकई काबिले तारीफ़ है |  किस्से के माध्यम
से हम मिलते हैं एक प्रश्न पूछती  स्त्री
और निरुत्तर होते पुरुष से|  ये किस्सा है
दो प्रेमियों गुल और बहार का | जहाँ  एक के
लिए इश्क कोरी लफ्फाजी है तो दूसरे के लिए समर्पण |  जब सच सामने आता है तो क्या इंसान वहीँ खड़ा रह
सकता है ? रिश्तों में सिर्फ लफ्फाजी  नहीं
चलती, कितनी भी बहारे हों, कितने भी गुल खिले हों पर झूठ पर ऐतबार का मौसम बीतना
ही होता है | कई बार  सच के साथ जीने की
ख्वाइश में झूठ से उपजाई गये भावनाओं के झरने को जमींदोज करना ही पड़ता है ….थोड़ा
आगे बढ़  कर कहूँगी कि करना ही चाहिए |  

“अँधेरे के पार” पढ़ते हुए
मुझे बार-बार एक गीत याद आ रहा था…

”दुनिया में कितना गम है,मेरा गम कितना कम है,
औरों का गम देखा तो,मैं अपना गम भूल गया ||

यूँ तो  हम
सब को अपना दुःख ज्यादा लगता है | लेकिन कई बार आप दूसरे के दुःख को देखंगे तो
पायेंगे कि सबके आँगन में दुःख पसरा हुआ है | कई बार जो व्यक्त नहीं करते उनका
दुःख भी बहुत बड़ा होता है | जीवन जीने का एक तरीका ये भी है और यहीं से होती है
सच्ची सहानुभूति
 की शुरुआत | अँधेरे के
पार देख पाना आसान नहीं है पर प्रज्ञा जी ऐसे बिम्ब रचती हैं कि उस पार साफ़ दिखाई
देने लगता है | ये कहानी है दो ऐसे बुजुर्गों (एक स्त्री एक पुरुष ) की जो पड़ोस
में रहते हैं | जिनके जीवनसाथी बहुत पहले उन्हें छोड़ कर चले गए थे | एक दूसरे की मित्रवत
मदद करते हुए उन्होंने अपने बच्चे पाले, बड़े किये लायक बनाये और फिर …| ये कहानी
दो मुद्दों को लेकर आगे बढती है | एक तरफ तो ये उन बुजुर्गों की बात करती है जिनके
बच्चे उन्हें अकेला छोड़ कर अपनी जिन्दगी में व्यस्त हो गए औरे दूसरी तरह ये उन
बुजुर्गों की समस्या पर भी बात करती है जिनके बच्चे उनके साथ रह रहे हैं पर उन पर
आश्रित है | जिन बुजुर्गों के बच्चे उनके पास हैं पर किसी न किसी कारण से आश्रित
हैं उन्हें वृद्धवस्था में भी जिम्मेदारियों से मुक्ति नहीं मिल पाती | यहीं पर ये
कहानी बुजुर्गों के अकेलेपन पर लिखी हुई तमाम कहानियों से अलग हो जाती है | अँधेरे
के उस पार के जिस सूत्र पर प्रज्ञा जी संवेदनाओं की रोशिनी डाली है उसके लिए वो
बधाई की पात्र हैं |

जब हम पितृसत्ता की बात करते हैं तो हम इसका सीधा
मतलब पुरुषों द्वारा
  स्त्रियों पर  किये गए अत्चाचार समझ लेते हैं | लेकिन सत्ता तो
सत्ता ही होती है और अगर ये सत्ता एक स्त्री के हाथ में हो तो… तो एक स्त्री भी
पितृसत्तावादी सोच
 में ढल जाती है और
दूसरी स्त्रियों के प्रति सामन्ती व्यवहार करने लग जाती है | अक्सर इसके ऊपर जो
कहानियाँ लिखी गयीं वो जा तो मालिक और मुलाजिम के रिश्ते पर थीं या सास-बहु,
नन्द-भाभी आदि रिश्तों पर | लेकिन क्या माँ-बेटी का रिश्ते में भी ऐसा हो सकता है
?
“परवाज़” कहानी कुछ ऐसी ही कहानी है जिसका अंत एक झटका देता है | ये
फार्मूला कहानी नहीं है | ये सच्चाई के करीब की कहानी है | अगर आप आज की युवा
लड़कियों से बात करेगी तो कई का सच (भले ही उनके कारण अलग –अलग हों ) इस कहानी के
करीब है | पितृसत्ता का जो स्त्री चेहरा उभर कर आया है ये कहानी उस और ध्यान
आकर्षित करती है |

कहानी ‘पिछली गली’ बढ़ते मॉल कल्चर के लोकल
हाट पर प्रभाव को दर्शाती है | जहाँ पहले साप्ताहिक सब्जी बाज़ार लगता था वहां अब
मॉल बनना है | इसलिए तमाम सब्जी वाले वहाँ
 से विस्थापित  कर पिछली गली में वो बाजार लगाने को विवश है |  किस तरह से वो वहाँ पर समस्याओं से जूझते हैं
इसका सटीक चित्रण है | विकास के नाम पर पूंजीपतियों की जेब भरने के क्रम में
सर्वहारा गरीब जनता का रोजगार किस तरह से छीना जा रहा है | एक दृश्य देखिये …
“क्या हम ही
बदनुमा दाग हैं इस शहर पर? सड़क सिर्फ इन गाड़ियों के लिए है ? हम कहाँ जायेंगे ?”
“जाने दो ना मम्मा ! ऑनलाइन सब मिलता है | यू
डोंट वरी न !न कहीं जाने का झंझट न कोई परेशानी और आपको खुद ही लाना है तो कितने
वीजी स्टोर्स भी हैं न ?”

“जिन्दगी के तार”कहानी दो
स्त्रियों की कहानी है जिनकी जिन्दगी के तार समस्याओं में उलझ गए हैं | उनमें से
एक हिम्मत कर के खुद ही निकलती है फिर दूसरी के लिए प्रेरणा भी बनती है | अगर दमन
स्त्री से जीवन का एक सच है तो तो उससे निकलने की जद्दोजहद भी उसी को करनी होगी |
किसी मसीहा की प्रतीक्षा करने के स्थान पर उसे खुद ही संघर्ष करके अपनी गृहस्थी को
संवारना होगा | और वो ऐसा कर सकती है बस उसे अपने ऊपर और अपनी मेहनत पर विश्वास
करना सीखना होगा |


और अंत में मैं यही कहूँगी कि प्रज्ञा जी के इस
कहानी संग्रह ‘मन्नत टेलर्स’में हर कहानी किसी समस्या के प्रति संवेदना जगाने में और उसके समाधान
को खोजने के प्रयास में है | ये कहानियाँ काल्पनिक नहीं हैं | ये आम जीवन की
कहानियाँ हैं जिसे हम-आप रोज देखते हैं, सुनते हैं, जीते हैं पर सोचते नहीं हैं |
इनके प्रति
 गंभीरता से चिंतन करने को विवश
करती प्रज्ञा
 जी एक सच्चे साहित्यकार के
धर्म का पालन करती हैं | ये कहानियाँ
 किसी
एक व्यक्ति की कहानी नहीं हैं ये एक विशाल वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं | इस
संग्रह की खास बात ये हैं कि हर कहानी एक दूसरे से भिन्न है | इनमें कहीं भी
दोहराव नहीं है | साहित्य भण्डार से प्रकाशित 148 पन्नों में सिमिटी 11 कहानियों
को आप एक झटके में आसानी से नहीं पढ़ पायेंगे | क्योंकि हर कहानी आपको रोकेगी, अपने
मंथन का एक जरूरी समय लेगी | उस ठहराव के बाद ही आप अगली कहानी पर बढ़ पायेंगे |

अगर आप सार्थक साहित्य के अनुरागी हैं तो ये “मन्नत टेलर्स”  आपके लिए मुफीद है |


मन्नत टेलर्स – कहानी संग्रह
लेखिका –प्रज्ञा
प्रकाशक –साहित्य भंडार
पृष्ठ -148
मूल्य – 125 (पेपर बैक )
किताब मँगवाने  का पता –
साहित्य भंडार
5, चाह्चंद (जीरो रोड ),
प्रयागराज -211003  
मोबाईल –09335155792,9415214878

समीक्षा -वंदना बाजपेयी

                                         

समीक्षक -वंदना बाजपेयी
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1 thought on “मन्नत टेलर्स –मानवीय संवेदनाओं पर सूक्ष्म पकड़”

  1. अद्वितीय समीक्षा।आप ऐसी समीक्षा कर देती हैं,कि पढ़ पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्कंठा पैदा हो गई।मंगवाना ही पड़ेगी।

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