लिट्टी-चोखा व् अन्य कहानियाँ –धीमी आंच में पकी स्वादिष्ट कहानियाँ

लिट्टी-चोखा व् अन्य कहानियाँ –धीमी आंच में पकी स्वादिष्ट कहानियाँ
आज मैं आप के
साथ बात करुँगी गीताश्री जी के नए कहानी संग्रह लिट्टी-चोखा के बारे में |
लिट्टी-चोखा बिहार का एक स्वादिष्ट व्यंजन है | किसी कहानी संग्रह का नाम उस पर रख
देना चौंकाता है | लेकिन गौर करें तो दोनों में बहुत समानता है | एक अच्छी कहानी
से भी वही तृप्ति
  मिलती है जो लिट्टी-
चोखा खाने से | एक शरीर का भोजन है और एक मन का | और इस मन पर
  पर तरह –तरह की संवेदनाओं के स्वाद का असर ऐसा
पड़ता है कि देर तक नशा छाया रहता है | जिस तरह से धीमी आंच पर पकी लिट्टी ही
ज्यादा स्वादिष्ट होती है वैसे ही कहानियाँ भी, जिसमें लेखक पूरी तरह से डूब कर मन
की अंगीठी
  में भावनाओं को हौले –हौले से
सेंक कर पकाता है | गीताश्री जी ने इस कहानी संग्रह में पूरी ऐतिहात बरती है कि एक
–एक कहानी धीमी आंच पर पके | इसलिए इनका स्वाद उभरकर आया है |
 
 
ये नाम इतना खूबसूरत और लोक से जुड़ा है कि इसके ट्रेंड सेटर बन जाने
की पूरी सम्भावना है | हो
  सकता है आगे
हमें दाल –बाटी, कढ़ी, रसाजें, सरसों का साग आदि नाम के नाम कहानी संग्रह पढने को
मिलें | इसका पूरा श्रेय गीताश्री जी और राजपाल एंड संस को जाना चाहिए |
कहानीकारों से आग्रह है कि वो भारतीय व्यंजनों को ही वरीयता दें | मैगी, नूडल्स,
पिजा, पास्ता हमारे भारतीय मानस के अनकूल नहीं | ना ही इनके स्वाद में वो अनोखापन
होगा जो धीमी आँच में पकने से आता है | भविष्य के कहानी संग्रहो के नामों की खोज
पर विराम लगाते हुए बात करते हैं लिट्टी –चोखा की थाली यानि कवर पेज की | कवर पेज
की मधुबनी पेंटिंग सहज ही आकर्षित करती है | इसमें बीजना डुलाती हुई स्त्री है |
सर पर घूँघट. नाक में नाथ माथे पर बिंदिया | देर तक चूल्हे की आंच के सामने बैठ
सबकी अपेक्षाओं पर खरी उतरने वाली, फुरसत के दो पलों में खुद पर बीजना झल उसकी बयार
में सुस्ता रही है | शायद कोई लोकगीत गा रही हो | यही तो है हमारा लोक, हमारा असली
भारत जिसे सामने लाना भी साहित्यकारों का फर्ज है | यहाँ ये फर्ज गीताश्री जी ने
निभाया है |
 
गीताश्री जी लंबे अरसे तक पत्रकार रहीं हैं, दिल्ली में रहीं हैं |  लेकिन उनके अन्दर लोक बसता है | चाहें बात
‘हसीनाबाद’ की हो या ‘लेडीज सर्किल’ की, यह बात प्रखरता से उभर कर आती है | शायद
यही कारण है कि पत्रकारिता की कठोर जीवन शैली और दिल्ली निवास के बावजूद उनके अंदर
सहृदयता का झरना प्रवाहमान है | मैंने उनके अंदर सदा एक सहृदय स्त्री देखी है जो
बिना अपने नफा –नुक्सान का गणित लगाए दूसरी स्त्रियों का भी हाथ थाम कर आगे बढ़ाने
 में विश्वास रखती हैं | साहित्य जगत में यह गुण
बहुत कम लोगों में मिलता है | क्योंकि मैंने उन्हें काफी पढ़ा है इसलिए यह दावे के
साथ कह सकती हूँ कि उन्होंने लोक और शहरी जीवन दोनों ध्रुवों को उतनी ही गहनता से
संभाल रखा है | ऐसा इसलिए कि वो लंबे समय से दिल्ली में रहीं हैं | बहुत यात्राएं
करती हैं | इसलिए शहर हो या गाँव हर स्त्री के मन को वो खंगाल लेती है | सात
पर्दों के नीचे छिपे दर्द को बयान कर देती हैं |जब वो स्त्री पर लिखती हैं या
बोलती हैं तो ऐसा लगता है कि वो हर स्त्री के मन की बात कह रही हैं | उनके शब्द
बहुत धारदार होते हैं जो चेहरे की किताबों के अध्यन से व गहराई में अपने मन में
उतरने से आते हैं | उनकी रचनाओं में बोलते पात्र हैं पर वहाँ हर स्त्री का अक्स
नज़र आता है | यही बात है की उनकी कहानियों में स्त्री पात्र मुख्य होते हैं |
हालांकि वो केवल स्त्री पर ही नहीं लिखती वो निरंतर अपनी रेंज का विस्तार करती हैं
| भूतों पर लिखी गयी ‘भूत –खेला ‘इसी का उदाहरण है | अभी वो पत्रकारिता पर एक
उपन्यास ‘वाया
 मीडिया’ ला रही हैं | उनकी
रेंज देखकर लगता है कि उन्हें कहानियाँ ढूँढनी नहीं पड़ती | वो उनके अन्दर किसी
स्वर्णिम संदूक में रखी हुई हैं | जबी उन्हें जरूरत होती है उसे जरा सा हिला कर
कुछ चुन लेती हैं और उसी से बन जाता है उनकी रचना का एक नया संसार | वो निरंतर लिख
कर साहित्य को समृद्ध कर रही हैं | एक पाठक के तौर मुझे उनकी कलम से
  अभी और भी बहुत से नए विषयों की , नयी कहानियों
की, उपन्यासों की प्रतीक्षा है |
 

लिट्टी-चोखा व् अन्य कहानियाँ –धीमी आंच में पकी स्वादिष्ट कहानियाँ   

 
लेखिका गीताश्री

 

 
 
“लिट्टी-चोखा” कहानी संग्रह में गीताश्री जी दस कहानियाँ लेकर आई हैं
| कुछ कहानियाँ अतीत से लायी हैं जहाँ उन्होंने झाड़ पोछ कर साफ़ करके प्रस्तुत किया
है | कुछ वर्तमान की है तो कुछ अतीत और वर्तमान को किसी सेतु की तरह जोडती हुई | तिरहुत
मिथिला का समाज वहाँ
  की बोली, सामाजिकता,
जीवन शैली और लोक गीत उनकी कहानियों में सहज ही स्थान पा गए हैं | शहर में आ कर
बसे पात्रों में विस्थापन की पीड़ा झलक रही है | इन कहानियों में कलाकार पमपम
तिवारी व् राजा बाबू हैं, कस्बाई प्रेमी को छोड़कर शहर में बसी नीलू कुमारी है , एक
दूसरे की भाषा ना जानने वाले प्रेमी अरुण और जयंती हैंअपने बल सखा को ढूँढती रम्या
है और इन सब के बीच सबसे अलग फिर भी मोती सी चमकती कहानी गंध-मुक्ति है | एक खास
बात इस संग्रह किये है कि गीताश्री जी ने इसमें शिल्प में बहुत प्रयोग किये हैं जो
बहुत आकर्षक लग रहे हैं | जो लगातार उन्हें पढ़ते आ रहे हैं उन्हें यहाँ उनकी कहन
शैली और शिल्प एक खूबसूरत बदलाव नज़र आएगा |
 
अक्सर मैं किसी कहानी संग्रह पर लिखने की शुरुआत उस कहानी से करती हूँ
जो मुझे सबसे ज्यादा पसंद आई होती है |
  पर
इस बार दो कहानियों के बीच में मेरा मन फँस गया | ये कहानियाँ हैं
 “नजरा गईली गुइंयाँ” व् “गंध मुक्ति”| बहुत देर
सोचने के बाद शुरुआत मैं गंध मुक्ति
  से कर
रही हूँ | ये एक ऐसी कहानी है जिसकी गंध बहुत देर तक जेहन पर छायी रहेगी |
 
 
रूप, रस, श्रुति, स्पर्श और गंध ..हमारा पूरा जीवन अपने समस्त ज्ञान,
समस्त स्मरण के लिए इन पांच माध्यमों पर ही निर्भर है | हम सब की एक गंध होती है |
हर घर की एक खास गंध होती है जो दूसरे घर की गंध से अलग होती है | कितनी चीजों
 को आँख बंद करके हम उनकी गंध से पह्चान लेते हैं
…ये पुष्प है , ये कोई स्वादिष्ट भोजन है, ये तेल है ये घी है और ये…. कैरोसीन
| जीवन में तरह तरह की गंध होती है पर अनिम गंध होती है मृत्यु गंध | इन सबसे इतर
 क्या कोई ऐसी भी गंध होती है जो खींचती है, जिसे
हम पहचानते हुए भी नहीं पहचानते हैं …ये होती है विस्मृत स्मृति की गंध | यहाँ
खुलते हैं मानव मन के अवचेतन के कई रहस्य | अवचेतन यानि की स्टोर रूम | जहाँ हर
देखी, सुनी, पढ़ी बात दर्ज होती रहती है , हम चाहे या ना चाहें | हमारी चेतना के
 मष्तिष्क
से इसका कोई संबंध  नहीं होता | हम
चाह
  कर वहाँ हाथ डालकर कुछ नहीं निकाल
सकते | परन्तु अनचाहे कुछ अस्पष्ट
  सा
अचानक सामने आ जाता है | पूरा स्वप्न विज्ञान इसी पर आधारित है | पूरा मनोविज्ञान
इसी की पड़ताल करता है | आज के ज़माने में लोकप्रिय self_healing इसी की गहराई में
उतरने का नाम है | सत्य ये है कि जो दिखायी देता है वो हमेशा सच नहीं होता | मानव
मन की कई लेयर्स होती है | जिन्दगी उन्हीं लेयर्स में कई बार फंस कर रह जाती है |
उनमें कैद होती है कोई गंध |
  अफ़सोस
साहित्य में इसकी गंध बहुत कम है | इस कहानी को रचते हुए गीताश्री इसकी गहन पड़ताल
करती हैं और ले आती हैं गंधमुक्ति | ये कहानी अवचेतन की गांठों को खोलने की कोशिश
करती एक ऐसी लड़की सपना की कहानी है जिसे एक अजीब सी गंध परेशान
  करती है …एक तेज तीखी गंध | इसलिए वो हर तेज
गंध से भागती है | एक गंध है, एक धुएं की लकीर और बहुत कुछ अनकहा | उसके आस –पास
कोई तेज परफ्यूम भी लगा ले तो वो बेचैन हो जाती है | वो गंध को पकड़ने के लिए उसके
पीछे चुम्बक की तरह खिंची चली जाती है पर हर बार वो गंध उसे कुछ दूर ले जाकर
अतृप्त सा छोड़कर अस्पष्ट हो जाती है |
 
 
सपना  जिसकी माँ की बचपन में
ही मृत्यु हो चुकी है | जिसकी सौतेली माँ और पिता ने उसे उसे अपने पास रखने से
इनकार कर दिया है | चाचा-चाची के पास पली बढ़ी इस लड़की के लिए बहुत जरूरी है कि वो
जल्दी से जल्दी अपने पैरों पर खड़ी हो जाए | पर ऐसे समय में ये गंध उसे और परेशान
कर रही है | वो अपनी सहेलियों से पूछती है कि क्या उन्हें भी गंध आती है …पर
नहीं कहीं कोई गंध नहीं | फिर उसे क्यों परेशान
 कर रही है ?
 
गंध शब्द पढ़ते ही मुझे  शेक्सपीयर के ‘मैकबेथ’ में लेडी मैकबैथ की याद आ
जाती है , जो अपने हाथ बार –बार धोती है वो कहती है कि, “ अरब के सारे इत्र भी
मेरे हाथों से इस गंध को नहीं निकाल सकते |” वहां उसे पता है ये हत्या की गंध है |
लेकिन क्या किसी गंध के माध्यम से किसी हत्या का सुराग ढूँढा जा सकता है ? सपना
मनोवैज्ञानिक के पास भी जाती है | उसको सुलझाने जो उलझ गया है | कहानी रहस्य के
साथ आगे बढती है | अंत में रहस्य सुलझता है | सुलझता है दृश्य, श्रव्य, गंध का
मनोविज्ञान | बेटी और मृत माँ के बीच के रहस्य को जोडती एक ऐसी गंध,
  एक ऐसा दर्द जिस पर पाठक का मन भी चीत्कार कर
उठेगा | हो सकता है आप संवेदना को झकझोर कर रख देती इस मार्मिक कहानी फिर से पढ़ें
| अवचेतन के मनोविज्ञान पर आधारित एक बहुत ही खूबसूरत कहानी जिसका शिल्प और शैली
भी उतनी ही खूबसूरत है |कहानी मन के स्तर पर चलती है इसलिए भाषा का अनावश्यक
सौन्दर्यीकरण ना करके उसे बिलकुल सामान्य रखा गया है | जो मन को लुभाता है |
 कहानी में नायिका को गंध से मुक्ति भले ही मिल
गयी हो | पर आपके जेहन को इस कहानी की गंध से मुक्ति नहीं मिलेगी |
 
 
 “नजरा गईली गुइंयाँ” २०१८ में
साहित्य आजतक में प्रकाशित हुई थी और खासी चर्चित हुई थी | ये कहानी हकपड़वा नामक
ऐसी प्रथा पर प्रकाश डालती है जो अब लुप्तप्राय है | इसके कुछ वीडियो जरूर आपको यू
ट्यूब पर मिल जायेंगे | इस कहानी को पढने से पहले जरूरी है
  कि इस प्रथा को जान लिया जाए | हंकपड़वा बिहार
में मुज्जफरपुर और उसके आस-पास के क्षेत्रों में पायी जाने वाली एक प्रथा है |
इसको निभाने वाले
  निम्न श्रेणी  के ब्राह्मण होते हैं जो मृत्युभोज के समय
बुलाये जाते हैं | ये पहले वहां उपस्थित परिवार के लोगों की खिचाई करते हैं और फिर
मृतक
  का यशगान करके माहौल को ग़मगीन बना
देते हैं | इसके एवज में उन्हें भारी ईनाम मिलता था | यही उनकी जीविकाका साधन है
 | मुख्य रूप से ये कलाकार होते हैं  | आशु कवि | जो तुरंत कविता बनाकर सुना देते हैं
 | साथ ही ये गायक भी होते हैं और तेज सुर
में गाते हैं | किसी जमाने में मृतक के भोज में इनका जाना बहुत भाग्य की बात समझी
जाती थी | इन्हें वहीँ धन और
 मान सम्मान
भी बहुत मिलता था | यही इनकी जीविका का साधन था | आर्थिक स्थिति
 अच्छी होते हुए भी इनकी सामाजिक स्थिति अच्छी
नहीं थी | मृत्यु भोज में गाने के कारण लोग इन्हें अपनी बेटी देने को तैयार नहीं
होते थे | जैसे –जैसे भौतिकता समाज पर हावी हुई, कला और कला की कद्र घटने लगी |
धीरे धीरे ये प्रथा भी लुप्तप्राय हो गयी | सुखद ये है कि आज हम अपने अतीत को
खोजते हुए उनके महत्व को समझ रहे हैं और उन्हें पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहे
हैं | ऐसा ही प्रयास गीताश्री जी ने अपनी कहानी में किया है |
 
“पर्ची पढ़ते ही उनके चेहरे का रंग उड़ गया | गोरा चेरा तपने लगा था | चेहरे की झुर्रियां कांपने लगी थीं | वो पर्ची अपनी मुट्ठी में दबाये दबाये आँगन की तरफ चले गए | ललुआ ने नोट्स किया , पैरों में जान नहीं बची थी |”
 
 
ये कहानी है हंकपड़वा के कलाकार पमपम बाबू, रिया और उसकी माँ की | नजरा
गईली गुइंयाँ का अर्थ है बचपन की सखी को नज़र लग गयी | किसी समय हंकपड़वा के
प्रसिद्द कलाकार रहे पमपम बाबू की ये गुइयाँ या बाल सखी है रिया की माँ | जिसके
बारे में किसी को भी नहीं पता | रिया को भी नहीं | रिया की माँ वो सखी हैं
जिन्होंने अपना पूरा जीवन पति की इच्छाओं और उनके दवाब के आगे नतमस्तक हो कर गुज़ार
दिया | परन्तु वो अपनी बेटी को इन सबसे दूर रखना चाहती हैं | वो चाहती हैं कि बेटी
अपनी मर्जी की जिन्दगी जी सके
  | इसके लिए
वो उसे स्वप्न के पंख भी देती हैं और पंख पसारने का अवसर भी | ३६ की उम्र पार कर
चुकी रिया पर वो विवाह का दवाब भी नहीं बनाती | इस कारण वो अपने बेटों का विद्रोह
झेलती हैं | धीरे –धीरे उनकी जिन्दगी उनके अपने ही घर की ऊपरी मंजिल पर अपनी एक
सहायिका और रिया के फोन के साथ सिमिट जाती है |
 
 
रिया की माँ  की मृत्यु के बाद
उनके गद्दे के नीचे रखी फ़ाइल से रिया के सामने अपनी माँ के अतीत का राज खुलता है |
बालसखा पमपम तिवारी और उनकी मित्रता का राज | जिनके छोटी श्रेणी के ब्राह्मण होने
के कारण ये मित्रता विवाह में नहीं बदल पायी | माँ अपने सारे सपने दफ़न करके ससुराल
चली आयीं | उनसे मिलने आये पमपम तिवारी को पिता अपमानित करके निकाल देते हैं |बेटी
को लिखे पात्र में माँ अपनी अंतिम इच्छा व्यक्त करती हैं कि एक बार अपमानित किये
गए पमपम तिवारी को सम्मान के साथ उनके मृत्युभोज पर कविता गाने के लिए बुलाया जाए
| वो अपने पिता द्वारा दी गयी जमीन भी उसके नाम कर चुकी हैं | एक मुश्किल ये है कि
ये काम उसे अपने भाहियों से छुपा कर करना है | दूसरी मुश्किल ये है कि अब
पमपम
  बाबू हंकपड़वा का काम छोड़ चुके हैं |
क्यारिय ये सब मैनेज कर पाएगी ? क्या पमपम बाबू अपनी बाल सखी को दिया वचन निभाएंगे
? ये तो आप कहानी पढ़ के जानेंगे | लेकिन ये कहानी उन कहानियों में से है जो आपको
गूगल सर्च करने पर विवश करती है | एक लुप्तप्राय प्रथा को जीवित करती है | इन सब
के साथ ये एक जीवत स्त्री और उसके छिपे हुए विद्रोह को भी परिभाषित करती है | एक
ऐसा विद्रोह जो उसने अपनी मृत्यु के बाद अपनी सशक्त बेटी से करवाने की ठान
रखी
  थी | लोक की भाषा और गीत के साथ ये
कहानी पूरा परिद्रश्य रचती है और पाठक के आगे उसे जीवंत कर देती है |
 
‘’कब ले बीती अमावस की रतियाँ “’एक ऐसी स्त्री की कहानी है जिसका पति
उसे विवाह वाले दिन ही छोड़कर मणिपुर चला जाता है | वो अपनी पत्नी का मुँह भी नहीं
देखता | उसे क्रोध इस बात का है कि उसकी माँ ने उससे बिना पूछे उसका विवाह क्यों
कर दिया | अपनी मर्जी से अपनी जिन्दगी जीती
 पितृसत्ता का प्रतीक ये सोचे बिना भी कि वो कहाँ
जा रहा है बस चल देता है | बस चल देने की जितनी सुविधा पुरुष को है उतनी स्त्री को
नहीं है | पत्नी उमा को मायके वाले भी नहीं अपनाते | उमा एक संघर्षशील स्त्री है |
वो धीरे –धीरे अपने को शिक्षित करती है | अपने हुनर से चार पैसे और गाँव भर में
इज्ज़त कमाती है | वो अपने साथ जोड़कर अन्य स्त्रियों को भी सशक्त करती है | ये
कहानी उस मुक्ति की बात करती है जो एक दूसरे का हाथ थामने
  से आती है | पितृसत्ता की जंजीरों को तोड़ने का
एकमात्र उपाय भी शायद यही है |
 
 
अपनी दूसरी पत्नी की मृत्यु के बाद  एकाकी जीवन से त्रस्त होकर उमा को अपराधबोध के
साथ नहीं हक के साथ लेने आये उसके पति के सामने रखी गयी शर्त कहानी की जान है | और
छोड़कर जाने वाले पतियों के लिए एक आह्वान भी | कहानी का शिल्प बहुत ही सुंदर है |
पाठक उसमें बह जाता है |
 
 
‘सुरैया की चिंता ना करो टिल्लू’ और ‘खोये सपनों का द्वीप’ , दोनों
कहानियाँ उस सशक्त स्त्री को दिखाती हैं जो प्रेमी के आगे घुटने नहीं टेकतीं | दोनों
के परिवेश अलग –अलग हैं | एक गाँव
  की
स्त्री है और
 एक शहर की परन्तु दोनों ही
आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं | आर्थिक स्वतंत्रता उन्हें अपने फैसले लेने का संबल
देती है | पहली कहानी में जब कस्बे से शहर आया प्रेमी उस पर साथ चलने का दवाब
बनाते हुए उसे देवानंद सुरैया का उदाहरण

देते हुए, माँ के कारण जीवन भर कुवारी रहने का भय दिखाता है तो दूसरी में
नायका के सामने अपने प्रेमी की करतूतों का ऑनलाइन पर्दाफाश होता है |  ‘सुरैया की चिंता ना करो
टिल्लू’ का शिल्प जहाँ चुटीला है वहीँ खोये सपनों का द्वीप’ का गंभीर और कलात्मक |
 
एक और कहानी जो अपने चुटीले  शिल्प के कारण गहरा प्रभाव उत्पन्न करती है वो
है “दगाबाज रे” ये कहानी है एक सोसायटी में कमोड साफ़ करने वाले कर्मचारी बंटी
कुमार की | बंटी कुमार अनपढ़ है पर उसके माता –पिता उसका विवाह उसका काम व् शिक्षा
छुपा कर एक पढ़ी लिखी स्त्री से कर देते हैं | नव विवाहित पत्नी की फरमाइश है हनीमून
की, अच्छे कपड़ों की,
  मोबाइल पर उससे बात
करने की, मायके जाने पर उसे चार चक्का गाडी में लाने की |
 पर बंटी के पास तो मोबाइल ही नहीं | हो भी तो
नंबर मिलाना कैसे आये ? उसकी तनख्वाह भी इतनी नहीं | फिर भी बंटी अपनी पत्नी
की
  नज़रों में छोटा नहीं बनना चाहता | वो
मोबाइल खरीदने के लिए पैसों की जुगाड़ में सीवर में उतर जाता है, अपना काम बढ़ा देता
है | पत्नी से दूर
 रहते हुए रुपये जोड़ते –जोड़ते
त्रस्त हुआ जा रहा है | वो कुछ रुपयों का इंतजाम करता भी है पर दोस्त ये जानकार उस
भोले –भाले युवक में पितृसत्ता का अभिमान भरते हैं | और पत्नी को खुश करने वाले
हाथों के आढे नाक आ जाती है |
 
स्वाधीन वल्लभा एक ऐसी जोड़े की कहानी है जो एक दूसरे की भाषा नहीं
जानते पर प्रेम में भाषा कब आढे आती है | प्रेम

में तो परिवार आढे आता है | अरुण जानता है कि उसका परिवार उसके और नीलंती
के प्रेम विवाह को स्वीकार नहीं करेगा इसलिए वो नहीं चाहता कि नीलंती उनसे मिले |
प्रेम उसे भीरु बना रहा है | वहीँ नीलंती उनसे मिलने को आतुर है | दुभाषिया अथिरा
के साथ वो बिहार जाती है | वहां अरुण के परिवार की शर्ते ही शर्ते हैं | दुभाषिया
अथिरा  दुविधा में है | पर नीलंती 
 का प्रेम उसे वहां अपनी बात
रखने का साहस देता है | प्रेम पुरुष को भीरु बनाता है और स्त्री को निर्भीक |अपने
फैसले लेने की हिम्मत करने वाली इस स्वाधीन वल्लभा नायिका को पाठक सैल्यूट करता रह
जाता है |
 
किताब के शीर्षक के नाम वाली कहानी यानि की लिट्टी –चोखा बचपन के
स्वाद और साथ को ढूँढने की कहानी है | मुज्ज्फ्फर पुर के रामवचन दीक्षित अपना सत्तरवां जन्मदिन मना
 रहे हैं | इसकेलिए
उन्होंने रामधन नामक इलाके के प्रसिद्द हलवाई को बुलाया है | रामधन की हैवी बुकिंग
चलती है | जिनको मिल जाए वो भाग्य सराहते हैं | रामवचन दीक्षित भाग्यवान रहे | भाषा
की बानगी देखिये …
“ “आज से औरत सभ को चूल्हा चौकी से फुर्सत …तुम लोग मौज करो , हंसी
ठिठोली करो…गीत नाद गाओ ..तीन दिन रामधन के हाथ के खाने का स्वाद लीजिये आप लोग
|”
 
 
इसी जलसे में रावचन की बेटी रम्या दिल्ली से आती है और रामधन के साथ
आता है राजा बाबू उर्फ़ चंदुआ | चंदुआ पेशे से तो हलवाई का काम करता है पर है
कलाकार | हलवाई के काम से ज्यादा मन उसका जनान खाने में औरतों के पैरों की मालिश
और अपने गीत सुनाने में लगता है | औरतों में भी वो बहुत लोकप्रिय है | रम्या के
पैर दाबते हुए ऐसा गीत गाता है कि रम्य को अपने बचपन के साथ की स्मृति ताज़ा हो
जाती है | ये गीत राजा बाबू को ट्रेन में एक यात्री ने सिखाया था | जैसा की मैंने
पहले कहा था ये कहानी स्वाद और साथ को ढूँढने की कहानी है | कहीं न कहीं हम सब के
अंदर रम्या बसती है जो बिसरे
  आतीत को फिर
से पा लेना चाहती है | वो उसे खंडहरों में ढूढती है, स्वाद में ढूंढती है ,
इन्टरनेट पर ढूंढती है | क्या ये खोज पूरी हो पाएगी | क्या हमें पता है ? शायद
नहीं | इसलिए इस कहानी का अंत खुला छोड़ा गया है | आशा और निराशा के मद्य पेंडुलम
सा लटकता | राजा बाबू जैसा रोचक चरित्र रचते हुए लेखिका ने कहानी के माध्यम से
पूरा लोक खड़ा कर दिया है |
 
 
अंत में मैं यही कहूँगी कि राजपाल एंड संस से प्रकाशित ११२ पेज के
कहानी संग्रह की कहानियाँ लिट्टी –चोखा की तरह ये बहुत
 स्वादिष्ट हैं | कुछ लिट्टी की तरह मजबूत कथ्य
के साथ तो कुछ चोखे की तरह नर्म मुलायम चटपटे
 शिल्प के साथ | शिल्प के बारे में एक बात और
कहना चाहूंगी कि गीताश्री जी ने इन कहानियों में शिल्प में बहुत प्रयोग किये हैं |
ये प्रयोग बहुत खूबसूरत हैं | एक रचनाकार के रूप में उन्होंने अपनी रेंज का
विस्तार किया है | बोली भाषा बानी में उन्होंने लोक को जीवंत कर दिया है |
अगर आप लिट्टी चोखा के दीवाने हैं तो ये संग्रह आपके स्वाद और
स्वास्थ्य के लिए बेहतरीन है |
 
 
लिट्टी –चोखा व् अन्य कहानियाँ  –कहानी संग्रह
लेखिका –गीता श्री
प्रकाशक –राजपाल एंड संस
पेज -112 (पेपर बैक )
मूल्य -१६० रुपये
समीक्षा -वंदना बाजपेयी
 
                      
समीक्षक -वंदना बाजपेयी

 

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