फ्रीज के दरवाजे के अंदरूनी रैक पर एक पारदर्शाी डब्बे में बेहद मंहगा खजूर रखा हुआ था। दरवाजा खोलते वक्त वह दिख जाता तो मैं दो-चार अदद खा लेता। पत्नी भी अक्सर ऐसा ही कर लेती थी। मगर फ्रीज के निचले ड्रावर से सब्जियां निकालते वक्त कामवाली की नजर रैक पर पड़ जाती तो वह अपने बच्चे के लिए एक-दो अदद खजूर मांगने से नहीं हिचकती। मुझे या पत्नी को मजबूरन एक-दो अदद खजूर देना पड़ता।
मांगने की यह अप्रिय घटना हर दूसरे-तीसरे दिन घटित हो जाती। हमें यह बुरा लगता था। आखिर एक दिन पत्नी ने खजूर के उस डब्बे को फ्रीज के बिलकुल पीछे के स्थान पर छुपा कर रख दिया। अब फ्रीज खोलते वक्त खजूर नहीं दिखता तो हम उसे खाना भूल जाते। पत्नी भी भूल जाती। देखते-देखते दो माह निकल गए।
एक दिन अचानक पत्नी को खजूर का खयाल आया। उसने खजूर फौरन बाहर निकाला। खजूर खराब हो चुका था और उससे बदबू छूट रही थी। उसे फेंकने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। पत्नी खजूर लेकर डस्टबीन की तरफ बढ़ी। मैंने यह देखा तो कहा, ‘‘खजूर के कुछ पीस कामवाली को देने पर हमें मलाल होता था। मगर अब इन्हें फेंकने पर क्या मलाल नहीं हो रहा ?’’
पत्नी ने स्वीकार किया और कहा, ‘‘हां, कसक तो हो रही है।’’
इसपर मैंने पूछा, ‘‘अब आगे से क्या करोगी ?’’
पत्नी ने विश्वास भरे स्वर में कहा, ‘‘कोई कारगर उपाय जरूर करूंगी।’’
कुछ दिन बाद पत्नी दूसरा खजूर ले आई। मैंने पूछा, ‘‘खजूर कहां रखा है ?’’
उसने कहा, ‘‘बस वहीं। फ्रीज के दरवाजे के भीतरी रैक पर ही।’’
मैंने पूछा, ‘‘मगर मुझे दिखा नहीं।’’
पत्नी ने आंखों में चतुराई भरकर कहा, ‘‘अरे, धीरे बोलो। मैंने इस बार उसे एक काले रंग के डब्बे में छुपाकर रखा है। कामवाली समझ नहीं पाएगी। तुम याद कर चुपके से खा लिया करना।’’
जहां देश के सैनिक बिना सुरक्षा के सीमा पर सीना तानकर रहते हैं, वहीं महज खजूर की रक्षा के लिए की गयी इस चालाक व्यवस्था पर मैं भौंचक रह गया।
-ज्ञानदेव मुकेश
न्यू पाटलिपुत्र काॅलोनी,
पटना-800013 (बिहार)
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