कृष्णा सोबती समय से आगे रहने वाली हिंदी साहित्य की ऐसी अप्रतिम साहत्यिकार थीं जिन्होंने नारी अस्मिता को उस दौर में रेखांकित किया था जब नारी विमर्श की दूर दूर तक आहट भी नहीं थी। उन्होंने सात दशक तक लगातार लिखा और एक से बढ़कर एक कई कालजयी रचनाएं दीं। उनकी कृतियों में एक ओर जिंदगीनामा जैसा विशाल काव्यात्मक उपन्यास है तो वहीं उनकी रचना-सूची में मित्रो मरजानी और ऐ लड़की जैसी छोटी कृतियां भी हैं। उनकी रचनाओं ने नए शिखर बनाए। उनकी रचनाओं में इतनी विविधता रही है कि उन पर व्यापक विमर्श किसी एक आलेख में कठिन है। हम कह सकते हैं कि उनकी रचनाओं में समय का अतिक्रमण है। विविधता और प्रासंगिकता ऐसी चीजें हैं, जो लंबे समय तक उनके साहित्य की महिमा बनी रहेगी। उन्होंने साहित्य में इतना योगदान किया है कि लंबे समय तक वह अपनी मौजूदगी का अहसास कराती रहेंगी।
कृष्णा सोबती -एक बेबाक रचनाकार
कृष्णा सोबती ने अपनी रचनाएं बेबाकी से भी लिखीं। उनकी रचनाओं मे बोल्ड भाषा अपनाए जाने और भदेस होने के आरोप भी लगे। लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की और अपनी सृजनात्मकता को नया आयाम देती रहीं। उन्होंने साबित कर दिया कि वह नारी अस्मिता से सरोकार रखने वाली संभवतः पहली साहित्यकार हैं। उनकी खूबियों में स्वाभिमान, स्वतंत्रता, निर्भीकता आदि भी शामिल हैं। अपनी जिद को लेकर वह अमृता प्रीतम के साथ लंबे समय तक मुकदमे में भी उलझी रहीं। उम्र बढ़ने के बाद भी समसामयिक घटनाओं से उनका सरोकार कायम रहा और वह असहिष्णुता का विरोध करने वालों में प्रमुखता से शामिल रहीं। व्हील चेयर पर होने के बाद भी उन्होंने असहिष्णुता के विरोध में 2015 में नयी दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लिया जहां उनके संबोधन की खासी प्रशंसा हुयी। उनकी भाषा हिंदी-उर्दू-पंजाबी का अनोखा मिश्रण है। अपनी तमाम आलोचनाओं के बीच उन्होंने जता दिया था कि वह अपनी शर्तों पर लिखेंगी और साहित्य जगत में अपना अलग स्थान बनाएंगी। उन्होंने अपने सृजन, साहस और मानवीय संवेदना से जुड़े सरोकारों के दम पर न सिर्फ मूर्धन्य और कालजयी रचनाकारों में अपना स्थान सुनिश्चित किया बल्कि हिंदी साहित्य को एक नयी दिशा भी दिखायी। उनकी शैली में लगातार बदलाव दिखा। इसका असर पाठकों पर भी दिखा और लेखिका तथा कई पीढ़ी के पाठकों के बीच आत्मीय नाता बना रहा।
कृष्णा सोबती भारत के उस हिस्से से आती थीं जो बाद में पाकिस्तान बना। इसका असर उनकी रचनाओं में दिखता है और पंजाबियत उनकी भाषा में सहज रूप से दिखती है। हर बड़े रचनाकार की तरह ही उनकी एक अलग भाषा है जिसकी अलग ही छटा दिखती है। उनकी रचनाओं में विविधता भी खूब है। पंजाब से लेकर राजस्थान, दिल्ली और गुजरात का भूगोल उनकी कृतियों में है। वह लिखने के पहले काफी तैयारी या यों कहें कि होमवर्क करती थीं। दिल ओ दानिश कहानी इसका जीवंत उदाहरण है। पुरानी दिल्ली की संस्कृति, आचार-व्यवहार, भाषा, परंपरा आदि को शामिल कर ऐसी रचना की कि पाठक पात्रों के साथ उसी दौर में पहुंच जाता है। उनकी कृति हम हशमत ऐसी रचना है जिसमें उन्होंने अपने समकालीनों के बारे में आत्मीयता के साथ ही बेबाकी से लिखा है। इस रचना के जरिए उन्होंने एक नयी दिशा को चुना। सममुच यानी यथार्थ के पात्रों का ऐसा बारीक चित्रण किया कि लोगों ने उनकी इस किताब को अपने समय की चित्रशाला करार दिया। सामाजिक और राजनीतिक घटनाक्रम को लेकर वह हमेशा सजग रहतीं। कई मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त करने के लिए उन्होंने समाचार पत्रों में लेख भी लिखे। भारत का विभाजन उन्हें हमेशा खलता रहा। संभवतः यही कारण था कि वह सामाजिक समरसता की पक्षधर थीं। वह स्वयं बंटवारे का शिकार थीं। संभवतः इसी वजह से वह समाज को विभाजित करने वाली गतिविधियों से वाकिफ थीं और ऐसी गतिविधियों के विरोध में लगातार आवाज बुलंद करती रहीं।
वह संभवतः हिंदी साहित्य की ऐसी रचनाकार रहीं जिन्होंने सबसे ज्यादा ऐसे नारी चरित्रों को गढ़ा जो न सिर्फ नारी की पारंपरिक छवि को तोड़ने वाली थीं बल्कि स्वाधीनता, संघर्ष और सशक्तता के मामले में पुरूषों के समकक्ष खड़ी थीं। कृष्णा सोबती ऐसी लेखिका थीं जिन्होंने शायद ही कभी अपने को दोहराया। उनकी रचनाओं में तथ्य के साथ ही वस्तु और शिल्प का बेहतरीन प्रयोग दिखता है। उनकी लोकप्रियता का यह आलम था कि पाठकों को उनकी अगली कृति का इंतजार रहता। पाठकों को उम्मीद रहती कि उनकी नयी कृति में कुछ नया पढ़ने को मिलेगा और कुछ नयी चीज प्राप्त होगी। साहित्यकारों से पाठकों की ऐसी उम्मीद विरले ही दिखती है। समय के साथ साथ उनकी रचनाएं और उनका व्यक्तित्व दोनों यशस्वी होते गए। अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीने वाली कृष्णा सोबती मानवीय मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध रहीं। यही वजह है कि समय के साथ उनकी प्रतिष्ठा भी बढ़ती रहीं। किसी लाभ या लोभ के लिए वह कभी अवसरवादी नहीं रहीं। उनके व्यक्तित्व के बारे में कहा जा सकता है कि वह समकालीन हिंदी साहित्य की माॅडल यानी आदर्श रचनाकार थीं। उनके जीवन, उनकी लेखनी से युवा काफी कुछ सीख सकते हैं और अपनी नियति तय कर सकते हैं।
कृष्णा सोबती ने आम नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों को लेकर भी कलम चलायी और उनके अधिकारों को बचाने का प्रयास किया। उन्होंने अपनी लेखकीय गरिमा से लोगों को शक्ति देने की कोशिश की और जताया कि लेखन एक लोकतांत्रिक कार्य है। लोकतांत्रिक व्यवस्था और भारतीय संविधान में गहरी आस्था रखने वाली कृष्णा सोबती लेखकों के लिए किसी विशेष अधिकार की पक्षधर नहीं थीं। लेकिन उनका मानना था कि लेखक को संविधान से आजादी और नागरिकता के अधिकार मिले हैं। किसी व्यवस्था, सत्ता या समुदाय को इसमें कटौती करने का अधिकार नहीं है। बहरहाल, कृष्णा सोबती 94 साल की लंबी उम्र जीने के बाद अब हमारे बीच नहीं हैं। हमें इस सचाई को आत्मसात करना होगा।
सिनीवाली
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फोटो क्रेडिट –DW.COM
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