ऊँट किस करवट बैठता है यह बहुत ही प्रसिद्द मुहावरा है | ये एक संदेह की स्थिति है | दरअसल वो परिणाम जो हमें पता नहीं होते हैं | फिर भी मर्जी तो ऊँट की ही चलती है | ये कहानी भी कुछ ऐसी ही हैं | जहाँ पुरुष या पितृसत्ता की तुलना ऊँट से की गयी है | कयास लगाए जाते हैं पर मर्जी उसी की चलती है | ये कहानी वैसे तो १९६१ की हैं पर स्त्री -पुरुष के समीकरण में बहुत अंतर नहीं आया है | आइये जानते हैं दीपक शर्मा जी की मार्मिक कहानी से …
ऊँटकी करवट
यह घटना सन् इकसठ की है किन्तु उसका ध्यान आते ही समय का बिन्दु-पथ अपना आधार छोड़ कर नए उतार-चढ़ाव ग्रहण करने लगता है.
बीत चुके उन लोगों के साए अकस्मात् धूप समान उजागर हो उठते हैं और मेरे पीछे चलने की बजाय वे मेरे आगे चलने लगते हैं.
और कई बार तो ऐसा लगता है उस घटना को अभी घटना है और बहुत बाद में घटना है…..
अभी तो उस घटना के वर्तमान में मेरा आना बाक़ी है…..
कौन कहता है कोई भी व्यक्ति समय से आगे या पीछे पहुँचकर भविष्य अथवा अतीत के अंश नहीं देख सकता?
यदि प्रत्येक बीत रहे अनुभव का समय बोध वाले वर्तमान में घटना ज़रूरी हैं तो फिर तो स्मृति क्या है? अन्तर्बोध क्या है?
“देखो” अपनागौना लाए जब खिलावन को दो सप्ताह से ऊपर हो गए तो माँ ने बागीचे से ढेर सारी अमिया तुड़वायीं और खिलावन से कहा, “गुलाब को आज इधर बँगले पर भेजना. अमिया कद्दूकस कर देगी. आज मैं मीठी चटनी बनाऊँगी.”
उन दिनों बँगले पर तैनात हमारे दूसरे नौकरों की पत्नियों के ज़िम्मे माँ ने अनन्य काम सौंप रखे थे : माली हरिप्रसाद की पत्नी फ़र्श पर गीला पोंछा लगाती और रसोइए पुत्तीलाल की पत्नी घर का कपड़े धोया करती.
“मैं बताऊँ मालकिन?” खिलावन थोड़ा खिसिया गया, “गुलाब के घर वालों ने मुझसे वादा लिया है उससे बँगले का काम न करवाऊँगा.”
“ऐसा है क्या?” ‘न’ सुनने की माँ को आदत न थी किन्तु खिलावन उनका चहेता नौकर था. पाँच साल पहले सत्रह वर्ष की आयु में उसने यहाँ जो काम सीखना शुरू किया था सो अब वह बहुत काम का आदमी बन गया था. उसकी फुरती और कार्यकुशलता देखने लायक रही. मिनटों-सैकंडों में वह जूठे बर्तनों की ढेरी चमका देता, चुटकियों में पूरा बँगला बुहार लेता; तिस पर ईमानदार इतना कि सामने रखे सोने को देखकर भी उसका चित्त डुलाये न डोलता.
“जी, मालकिन,” खिलावन ने अपने हाथ जोड़े, “गुलाब ग़रीब घर की ज़रूर है मगर उसके यहाँ औरत जात से बाहर का काम करवाने काप्रचलन नहीं.”
दोपहर में माँ ने मेरे पिता से यह बात दोहरायी तो माँ की झल्लाहट में सम्मिलित होने की बजाय वे हँस पड़े, “देखने में ज़रूर अच्छी होगी.”
मेरे पिता अत्यन्त सुदर्शन रहे जब कि माँ देखने में बहुत मामूली. मुझेयक़ीन है माँ मेरे धनाढ्य नानाकी यदि इकलौती सन्तान न रहीहोतीं तो मेरेपिता कदापि उनसे शादी न करते.
“देखने में अच्छी है,” जवाबी वारमें माँ का जवाब नथा, “तभी तो काम में फिसड्डीहै.”
काम के मामले में मेरे पिता खासे चोर रहे. साड़ियोंके विक्रेता मेरे नाना की दुकान पर वेकभी-कभार ही बैठते. बस, उनके हाथ बँटाने के नाम पर केवल साड़ियों को उठाने या पहुँचाने का कामही करते; वहभी इसलिए क्योंकि उस काम में हरतिमाही-छमाही रेलपर घूमनेका उन्हेंअच्छा अवसर मिल जाता. कभी बनारस तो कभी कलकत्ता और कभी हैदराबाद तो कभी त्रिवेन्द्रम. वरना इधर तो आधा दिन वे सजने-सँवरने मेंबिताते औरआधा रात की नींद पूरी करने में. रात को क्लबमें देरतक शराब पीनेऔर ब्रिज खेलने की उन्हें बुरी लत रही. रात का खाना वे ज़रूर घर पर लेते. कभीग्यारहबजेतोकभीसाढ़ेग्यारहबजे. अकेले.
खिलावन की मदद लेकर माँ उन्हें खाना परोसतीं ज़रूर किन्तु स्वयं कुछ न खातीं.
असल में माँका रात में रोज़ व्रतरहता.
“भली मानस तेरी माँ तेरे पिता को तो दण्ड दे नहीं सकती,” रात में जल्दी सोने की आदत की वजह से विधुर मेरे नाना ठीक साढ़े आठ बजे मेरी बगल में खाने की मेज पर अपना आसन ग्रहण करते ही रोज़ कहते, “इसीलिए खुद को दंड दे रही है.”
नौ साल पहले मेरे पिता को मेरे नाना के पास बी. ए. में पढ़ रही माँ ही लायी रहीं, “इनसे मिलिए. हमारे इलाके के एम. पी. के मँझले बेटे.” सन् बावन के उन दिनों में हाल ही में संगठित हुई देश की पहली लोक सभा का रुतबा बहुत बड़ा था और मेरे नाना उनके परिचय के‘क्या’, ‘कितना’ और‘क्यों’ के चक्कर में न पड़े थे.
वैसे माँ मेरे पिता को क्लब के लॉन टेनिस टूर्नामेंट के अन्तर्गत मिली रहीं. उनकी तरह माँ भी टेनिस की बहुत अच्छी खिलाड़ी थीं. दोनों ने एक साथ मिक्स्ड डबल्स कीकई प्रतियोगिताओं में भाग भी लिया.
आप चाहें तो सन् तिरपनकी कुछ अख़बारों में उन दोनों की एक तस्वीर भी देख सकते हैं. राजकुमारी अमृत कौर के हाथों एक शील्ड लेते हुए.
“कहो जगपाल,” अगले दिन सुबह गोल्फ़ के लिए मोटर में सवार मेरे पिता ने ड्राइवर को टोहा, “खिलावन के क्या हाल हैं?”
मोटर में उस समय मैं भी रहा. मेरे पिता का गोल्फ-ग्राउण्ड मेरे स्कूल के समीप था.
“बंदर के हाथ हिरणीलग गयी,” जगपाल ने अपने दाँत निपोरे, “वह गुलाब नहीं गुलनार है, सरकार!”
“दूर से ही लार टपकाते हो या कभी पार भी गए हो?”
मेरे पिता और जगपाल के बीच असंयत ठिठोली का सिलसिला पुराना था. हरिप्रसाद और पुत्तीलाल की पत्नियों के बारे में लापरवाह बातें करते हुए भी मैं उन्हें अक्सर पकड़चुका था. हरिप्रसाद की पत्नी को वे ‘चिकनिया’ कहते और पुत्तीलाल की पत्नी को ‘लिल्ली घोड़ी’.
“आप कहें तो आजमाइश करें, सरकार?” जगपाल ने अपना सिर पीछे घुमाया- मेरे पिताकी दिशा में- “आप के लिए यह भी सही-”
“आजमाइश नहीं, तुम निगहबानी करना. पहरा रखना.”
“रखवाली किसकी करनी है, सरकार? उसकी या आपकी?”
स्कूल पर पहुँच जाने की मजबूरी के कारण उसी समय मुझे मोटर से उतरना पड़ा और अपने पिता का उत्तर मैं जान न पाया.
मगर स्कूल से लौटते ही खाना खाने के उपरान्त मैं बाग़ीचे की तरफ़ आ निकला.
हमारे नौकर लोगों के कमरे हमारे पिछवाड़े के बागीचे की तरफ़ रहे. हमारे निजी कुएँ के एकदम सामने. म्युनिसिपैलिटीकीजल-सप्लाईअभीतकहमारेक्षेत्र में न पहुँची थी और हम उसी कुएँ का पानी प्रयोग में लाते थे.
“भैयाजी, अमरुद खाएँगे?” अमरुद के पेड़ से जगपाल अमरुद तोड़ रहा था.
“नहीं,” अपनी नज़र मैंने खिलावन के कमरे केदरवाज़े पर जा टिकायी.
दरवाज़े पर खिलावन की पत्नी अमरुद खा रही थी.
निस्संदेह वह बहुत सुन्दर थी. कुछ-कुछ उन दिनों पुनः प्रदर्शित हुई फ़िल्म ‘महल’ की मधुबाला जैसी : निर्धन, गोपनीय तथा निश्चयी.
“अमरुद मीठा है,” मेरी ओर देख कर लाल चूड़ियों वाले अपने हाथ उसने नचाए, “भैयाजी, खा लीजिए…..”
“देखिएगा, भैयाजी,” मुझे स्कूल छोड़ने और वापस लाने का काम जगपाल के ज़िम्मेरहता था और वह जब-तब मुझ पर अपना स्नेह उंडेल दिया करता, “हम आपके लिए इस पेड़ का सबसे ज़्यादा मीठा अमरुद तोड़ेंगे.”
“अपने दाएँ हाथ देखिए,” खिलावन की पत्नी अपने दरवाज़े से उठ कर हमारे समीप चली आयी, “उधरएक अमरुद बहुत बढ़िया पका है…..”
“वाह!” जगपालनिर्दिष्ट दिशामें झपटा,“कैसी तोते की आँख पायी है!”
“हमारी आँख तोते की नाहीं,” खिलावन की पत्नी ने अपनी साड़ी के छोर से अपनी हँसी दबायी, “हम आँख नाहीं फेरते…..”
“किससे?” जगपाल खुलकर हँसा.
“जो कोई, चाहे जो.”
“सच?”
“मेरा अमरुद लाओ.” मैं चिल्लाया. उनके वार्तालाप में अपनी ग़ैर-हाज़िरी मुझे खली.
“लीजिए भैयाजी, लीजिए-” ताज़ातोड़ा वह अमरुद जगपाल ने मेरे हाथ में आ थमाया.
अपने सिर को एक ज़ोरदार झटका देकर बाग़ीचे से बँगले की ओर अपने क़दम मैं बढ़ा ले गया.
छठे-सातवें दिन अपने स्कूल से लौटते समय जगपाल की मोटर की जगह मुझे हरिप्रसादकी साइकल दिखायी दी.
“जगपाल कहाँ है?” मैंने पूछा.
“बताते हैं, अभी बताते हैं. आप पहले बैठिए तो सही.”
“बताओ,” साइकल की हत्थी पर मैं बैठ लिया, “अब बताओ.”
“जगपाल के साथ एक हादसा हो गया है,” साइकल आगे बढ़ने लगी.
“क्या?”
“सुबह वह कुएँ में गिर पड़ा…..”
“कैसे?”
“मालूम नहीं भैयाजी. सुबह का वक़्त था. हम गेट पर बाग़ीची की एक फूल वाली क्यारी गोड़ रहे थे कि पिछवाड़े से अचानक खिलावन की औरत की चीख़ सुनाई दी. जिस किसी ने सुनी, वही कोई हाथ का काम छोड़-छाड़ कर उधर दौड़ लिया. मगर हमारे पहुँचने तक जगपाल लोप हो चुका था, नीचे कुएँ में….. जब तक बड़े बाबूजी ने टेलीफ़ोन से पनडुब्बे गोताखोर मँगवाए, जगपालका दम टूट चुका था. उसकी मिट्टी के साथ बड़े बाबूजी खुद उसके गाँव गए हैं. भाड़े की एक बंद गाड़ी में उसका साइकलवा भी साथ ले गए हैं…..”
सोलह मील दूर अपने गाँव से जगपाल रोज़ सुबह अपनी साइकल से हमारे बँगले परआता था और अपनी ड्यूटी ख़त्म होने पर अपने गाँव लौट जाता था.
दोपहर में जितने भी लोग पूछताछ के लिए आए, सभीसे माँ ही मिलीं. मेरे पिता नहीं.
वे अपने कमरे में सोए रहे.
इसी बीच खिलावन माँ के पास आया, “मालकिन! अब हम यहाँ न रहेंगे. हमें छमा कर दें…..”
“गुलाब ने कुछ बताया क्या?” माँ काँपने लगीं.
“नहीं, मालकिन. वह कुछ नहीं बता रही. बस वही ज़िद पकड़े है, वह प्राण दे देगी मगर यहाँ अब न रहेगी…..”
“ठीक है,” माँ ने अपने बटुए से दस के दो नोट निकाले, “लो, यह लो…..”
“नहीं, मालकिन. यह बहुत है. हमें तो सिर्फ़ तीन रूपया चाहिए. हमारी बस का भाड़ा. इतना रूपया हम न लेंगे. आपका पिछला करजा भी हमने अभी कहाँ उतारा है?”
“तुम्हारा करजा तुम्हें माफ़ है…..”
“आप हमारी माई-बाप हैं, मालकिन,” खिलावन माँ के पैरों पर लोट गया, “हमेंछमा कर देना…..”
“क्षमा तुम्हें नहीं, हमें माँगनी चाहिए…..”
“बाबूजी की वापसी नहीं हुई क्या?” रात में जब मेरे पिता क्लब से लौटे तो मैं अपने बिस्तर पर जाग रहा था.
“नहीं,” रसोई में माँ मिट्टीके तेल वाला स्टोव जला रही थीं. रसोई की गैस अभी न आयी थी.
“खिलावन कहाँ है?” मेरे पिता अपने मृदुतम स्वर में बोले, “खाना उसे गरम करने दो. तुम यहाँ आओ. मेरे पास बैठो.”
“खिलावन को मैंने भेज दिया है. घर में एक हत्या काफ़ी है.”
“जगपाल की हत्या नहीं हुई. वह अपनी मौत मरा है…..”
“चतुर मत बनिए. मैं सब जानती हूँ,” माँ का स्वर चढ़ आया, “जाने से पहले गुलाब सबउगल गयी है…..”
“तुम क्या बक रही हो?” मेरे पिता की आवाज़ भी रसोई में चली गयी.
“जगपाल अपनी मौत नहीं मरा. उसे कुएँ में आपने धकेला. अपनी लम्पटता में उसकी सहभागिता आपसे निगली नहीं गयी…..”
“क्या….. या….. या…..?”
रसोई में पहुँचने पर ही मुझे पता चला माँ पर जिस चीज़ के गिरने की आवाज़ मुझतक आयी थी वह वही स्टोव था जिसे जलाते समय माँ उसमें हवा भरती रही थीं…..
माँ की नायलॉन की साड़ी से स्टोव की लपट में बढ़ती हुई और देखते-देखते माँ की समूची देह ने अविलम्ब आग पकड़ ली.
माँ की चीख़ों में जब मैंने अपनी चीख़ें सम्मिलित करनी चाहीं तो मेरे पिता जबरन मुझे बाहर पोर्टिको में ले आए, “मैं नहीं चाहता तुम उसे मरते हुए देखो…..”
माँ का सम्पूरित दाह-कर्म मेरे नाना की वापसी पर हुआ. अगले दिन.
बताना अनावश्यक है, मेरी एवँ मेरे नाना के कलेजे की हूक की चिकोटी शीघ्र ही मेरेपिता के लिए असह्य हो गयी और एक यथेष्ट अन्तराल के बाद वे हमसे अलग रहने लगे.
उनकी दूसरी पत्नी ने उनके हिस्से आयी भू-सम्पत्ति पर सन् तिरसठमेंजोआलीशानहोटलबनवाया, वह आज भीउन्हेंअच्छालाभांशदे रहा है.
तदनन्तर मिट्टी के तेलकास्टोव कई अन्य स्त्रियों की आकस्मिक मृत्युका भी निमित्त बना किन्तु उसरात हुई माँ की अपमृत्यु हमारे शहरकी अभूतपूर्व घटना थी.
दीपक शर्मा
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डॉ.सिताबो बाई -समीक्षा (उपन्यास )
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