गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे |

गुज़रे हुए लम्हे -परिचय

गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार

गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6

अब आगे ….

 

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 –महानगरीय जीवन का आरंभ

(दिल्ली1978 से 86 तक)

हम लोग ज्यादातर सामान शोलापुर में पैक करके रख आये थे ओर काफ़ी कुछ बेच भी दिया था। बस सूटकेस में कपड़े लेकर दिनेश भैया के यहाँ चले आयेथे।मकान मिलने में कुछ समय लगना था। बाकी लोग रमा दी, चाची जी वगैरह वहाँ से जा चुके थे। दिनेश भै़या को भी सूरत मैडिकल कालेज में नौकरी मिल गईथी तो वह भी चले गयेथे, जयश्री दिल्ली में ही रही, कभी कभी सूरत चली जाती थी। यह मकान कुछ दिन रख तो सकते ही थे। जयश्री भी ज्यादातर अपने माता पिता के पास रहने लगी थी, इसलिये मकान उनका होते हुए भी घर हम ही चला रहेथे। जैसे जैसे दिन बीत रहे थे,सरकारी मकान मिलने और तनु का स्कूल में दाख़िलाकरवाने कीचिंता मन पर बहुत हावी हो रहीं थी।

 

हम दोनों ही महानगरों में अभी तक नहीं रहे थे। छोटे शहरों और महानगरों की जीवन शैली में बहुत अंतर होता है। इनकी पोस्टिंग रेलवे बोर्ड में हुई थी। जुलाई आते आते सरोजनी नगर के रेलवे बोर्ड के ट्राँज़िट फ्लैट में हमें घर मिल गया था। घर छोटा था परंतु बहुत सुविधाजनक था। आउट हाउस और छोटा सा लॉन भी था। सरोजनी नगर का बाज़ार बहुत पास था। अब तो इसबाज़ार की गिनती दिल्ली के मुख्य बड़े बाज़ारों में होती है।

 

घर के सामने रिंग रेलवे की लाइन थी और उसके पार कुछ दूर पर ही नेवल पब्लिक स्कूल था।  तनु का दाख़िला वहीं करवाना था। प्रधानाचार्य से जाकर पहले ही बात कर ली थी। हालाँकि उन्होंने बहुत सहृदयता दिखाई और बिना कोई परीक्षा लिये दाख़िला देने को तैयार हो गईं परंतु  दूसरी कक्षा में लिया, क्योंकि उनके अनुसार तीसरी कक्षा में जगह नहीं थी। तनु शोलापुर से दूसरी कक्षा उत्तीर्ण करके आई थी। हमने ये भी स्वीकार कर लिया क्योंकि हमारे पास कोई और विकल्प था ही नहीं। किसी दूर के स्कूल में दाख़िल करवाते तो और बहुत सी कठिनाइयाँ सामने आती।

 

आउट हाउस वाली नौकरानी इसे स्कूल में कक्षा तक पहुँचा कर आती थी और वापिस भी लाती थी। मैं ब्रेक में नाश्ता लेकर जाती थी और देख लेती थी कि कोई और ज़रूरत तो नहीं है। दो तीन महीने बीतने के बाद इसकी कक्षा अध्यापिका श्रीमती मित्तल ने कहा कि इसको तो सब आता है, समझाने से पहले ही काम पूरा कर देती है। मैंने उन्हें बताया कि इसे तीसरी कक्षा में होना चाहिये था। श्रीमती मित्तल ने प्रधानाचार्य  से बात की और इसे तुरंत तीसरी कक्षा में भेज दिया गया था। इस प्रकार बेवजह एक साल बर्बाद होने से बच गया। नेवल स्कूल पास था यह सुविधा थी ही ,स्कूल में पढ़ाई भी अच्छी थी और सभी अध्यापिकायें तनु का ध्यान रखती थीं। अध्यापिकायें स्कूल के बाहर भी पिकनिक पर और अन्य दर्शनीय स्थानों पर बस में पूरी ज़िम्मेदारी से ले जाती थीं। प्रिंसपल ने कई साल तक इसके क्लास को भूतल पर ही रखा था।

 

इस समय हम तीनों के अलावा जयश्री भी हमारे साथ रह रही थी। मोती बाग़ में उसके माता पिता रहते थे ,वहाँ आती जाती रहती थी। सूरत से दिनेश भैया दूसरे तीसरे महीने आ जाते थे , उनकी गृहस्थी एक जगह जम नहीं पा रही थी। जयश्री का तनु पर बहुत लाड़ था। तनु भी चाची से, उसके पहनावे से, पर्स व सैंडिल इत्यादि से बेहद  प्रभावित रहती थी। वह घर से बाहर जाती थी तो सलीके से साड़ी पहनती थी जबकि मैं तो घर में रहती थी,  इतना व्यवस्थित नहीं रहती थी। जयश्री जब कोई नयी सी या बढ़िया साड़ी पहनकर तैयार होती तो तनु समझ जाती थी कि आज चाची डिसपैंसरी से सीधी घर नहीं आयेगी। दिनेश भैया का आना भी इसे अखरता था क्योंकि चाची पर एकाधिकार जो नहीं रहता था।  हम हमेशा की तरह दीवाली पर तो ग्वालियर जाते ही थे, साल में एक बार लखनऊ भी चले जाते थे। अधिकतर सुरेन भैया और उनके परिवार से भी वहीं मिलना हो जाता था। ग्वालियर में नीता मैडिकल कालेज में पढ़ रही थी।

 

सरोजनी नगर के इस छोटे से घर में मेहमानों का आना जाना बहुत रहता था।  उस समय तक लोग रिश्तेदारों के यहाँ बेखटके रहने आ जाते थे।  आजकल लोग अपने काम से आते हैं तो होटल में रुकते हैं, उस समय रिश्तेदारों का रुकना, बिना कहे आना सब सामान्य था।  शोलापुर से आकर ये सब हमें अच्छा लग रहा था। शोलापुर तो कम ही लोग पहुँचते थे। हमारे सरोजिनी नगर के घर से सुरेन भैया की बड़ी बेटी अपर्णा की सगाई का एक शुभ  कार्य भी संपन्न हुआ। दरअसल यह रिश्ता हमने हीतय करवाया था। वर उमा दी की ननद का बेटा अशोक था। लड़के वाले उमा दी के घर ठहरे थे, लड़की वाले हमारे यहाँ।  एक प्रकार से रिश्ता भाई बहन की ससुराल के परिवारों के बीच हुआ था।हमारे यहाँ आकर लड़की लड़के को देखने की औपचारिकताओं के बाद दोनों तरफ़ से ‘हाँ’ हो गई और अगले दिन ही सगाई हो गई। सब कुछ घर में ही हो गया। यहाँ तक कि खाना भी घर में ही बना दोनों तरफ़ केपरिवारके लोग ही थे। अन्य रिश्तेदारों या मित्रों को नहीं बुलाया था। अपर्णा की शादी भी 80 की मई में लखनऊ से भैया के घर से संपन्न हुई।

 

इस समय तक हमारे पास स्कूटर ही था। कभी कभी उमा दी के घर हम तीनों स्कूटर पर ही चले जाते थे । ये ऑफिस कभी कभी बस से भी चले जाते थे। उन ही दिनों एक मज़ेदार वाकया हुआ जो संस्मरण क रूप में मैंने लिखा था। वह उद्धरित कर रही हूँ-

 

आर यू रैड्डी

(संस्मरण-1)

सरोजनी नगर में श्री रामचंद्रन हमारे पड़ौसी थे। रामचंद्रन जी और भटनागर साहब को एक ही समय एक ही दफ़्तर में जाना होता था। कुछ दिनों तक दोनों एक ही स्कूटर से जाने लगे थे।  रास्ता अच्छा कट जाता था ,पैट्रोल की बचत के साथ पर्यावरण सुरक्षा की ओर बढ़ाया एक क़दम भी था। श्री राचनद्रन का रोज़ का नियम था कि वह निश्चित समय पर भटनागर  साहब को फोन करते और कहते ‘’आरयूरैड्डी (ready) ? भटनागर साहब कहते ‘’यसआइऐम।’ये दो मिनट का वार्तालाप रोज़ की बात थी फिर दोनों ऑफिस जाने के लिये निकल पड़ते।

एक बार मेरे देवर आये हुए थे ।रोज़ की तरह श्री राचनद्रन ने फोन किया ‘’आर यू रैड्डी (ready)?‘’फोन मेरे देवर ने उठाया और जवाब दिया ‘’नो आई ऐम नौट रैड़्डी (Reddy), आइ ऐम भटनागर हिज़ ब्रदर डॉ. भटनागर।’

श्री रामचंद्रन के उच्चारण में Reddy और ready में भेद कर पाना किसी के लिये भी मुश्किल था।

 

एक और संस्मरण तनु के स्कूल से ये दोनों संस्मरण किसी न किसी पत्रिका में प्रकाशित हो चुके हैं।

 

चित्रकला

(संस्मरण2)

तनुजा मेरी बेटी उस समय तीसरी या चौथी कक्षा में थी। वह बड़ी होनहार, शांत स्वभाव और बुद्धिमान भी है, पर जिस विषय में सब बच्चों की रुचि होती है चित्रकला वह उसे बिलकुल आती ही नहीं थी, आती ही नहीं थी तो उस  में रुचि कैसे हो सकती है। चित्रकला के अंक परीक्षा में जुड़ते भी नहीं थे, इसलिये तनुजा को कोई चिन्ता भी नहीं थी। सब लोग सब काम तो कर नहीं कर सकते! चित्रकला की कक्षा में वह चुपचाप बैठी रहती या कभी कुछ आड़ी टेढ़ी लाइने बनाकर समय काटती थी या कभी कोई किताब लेकर बैठ जाती थी ।

 

चित्रकला की अध्यापिका श्रीमती सरकार के साथ उसका हमेशा 36 का आँकडा रहता। श्रीमती सरकार भी बच्चों को चित्रकला के लिये ऐसे ऐसे विषय दे देतीं थी कि चित्रकला में होशियार बच्चों के लिये भी बनाना कठिन होता था। बच्चे कहते ‘’मैम आप बोर्ड पर बनाकर दिखाइये’’ तो वह कहती ‘’ तुम सबअपनी कल्पना से बनाओ।‘’

 

एक दिन श्रीमती सरकार ने सोचा कि बच्चे चित्रकला पर ध्यान नहीं देते क्योंकि उसकी परीक्षा नहीं होती। उन्होंने कक्षा में ऐलान किया कि वह चित्रकला का टैस्ट लेंगी। टैस्ट के लिये उन्होंने विषय दिया 26 जनवरी गण तन्त्र दिवस की परेड का चित्र । कुछ बच्चे टैंक बनाने लगे कुछ झाँकियाँ बनाने की कोशिश कर रहे थे। अपनी अपनी क्षमता और कल्पना के सहारे पूरी कक्षा चित्र बना रही थी। अब तनुजा  क्या करे!  उसने स्केल से दो ढाई इंच की दूरी पर दो समानान्तर रेखाएँ खींच दी बीच में बड़ा सा राजपथ लिख दिया। भीड़ दर्शाने के लिये राजपथ के दोनों ओर छोटे छोटे घने घने गोले बना दिये। अब एक कोने में कुछ इस प्रकार लिखा जैसे कोई रेडियो या टीवी. की कंमैंट्री सुनाता है। उसने लिखा, ‘दर्शकों राजपथ पर आपका स्वागत है परेड आरंभ होने में बस कुछ मिनट बाकी हैं आप टीवी. के पर्दे पर यहाँ का हवाई चित्र देखिए।‘

 

सोचिये श्रीमती सरकार ने तनुजा को कितने अंक दिये होंगे ! पूरे 10 में से 10 !

 

इन दिनों जयश्री हमारे साथ ही रहती थी, जुलाई 81 में उसके बेटी हुई जिसका नाम सौम्या है। पूरे नौ महीने जयश्री काम पर जाती रही। बच्ची के होने के बाद वह अपने माता पिता के साथ रहने चली गई। सौम्या के दुनिया में क़दम रखने के साथ ही मैं गर्भवती हो गई।  तनु बड़ी हो रही थी उसे भाई बहन की कमी लगने लगी थी, अपने सब काम कर लेती थी, इसलिये दूसरे बच्चे के लिये यही समय ठीक था। परिवार वाले तो कह कह कर निराश हो चुके थे। हमने ये सूचना फिलहाल जयश्री के अलावा किसी और को नहीं दी थी। घरवालों को देर से बताने का यही कारण था कि इतने साल बाद यह ख़बर सुनकर सब यह मतकरना, वह मत करना, आराम करना जैसी पाबंदियाँ लगा देंगे। मेरी तबीयत भी ठीक थी। हम पहले से ही हरिद्वार और ऋषिकेश जाने का कार्यक्रम बनाये बैठे थे जो हमने  स्थगित नहीं किया।  हरिद्वार में तो हर की पौड़ी और गंगा आरती देखी। ऋषिकेश में पैदल भी बहुत चले और ताँगे की सवारी भी की। ताँगे की सवारी तो तनु के समय में ग्वालियर में भी काफी करनी पड़ी थी। लक्ष्मण झूला ही ऋषिकेश का मुख्य आकर्षण है।

 

बच्चे का जन्म सन् 82 में अप्रैल में होना था उससे पहले भैया की बेटी दीपिका की शादी में जनवरी में लखनऊ भी जाना था। सब कुछ सामान्य चल रहा था इसलिये जाने में कोई रुकावट नहीं थी। शादी से संभवतः एक महीने पहले मैं गर्म कपड़े धोकर बाहर सुखाने ले जा रही थी तो पीठ के बल गिर गई।  चोट लगी पर बच्चे को या मुझे कोई नुकसान नहीं पहुँचा और शादी के समय तक मैं ठीक हो गई थी। हम लोग शादी में गये भी और बहुत मज़े किये। दीपिका की शादी संभवतः आख़िरी ऐसी शादी थी जहाँ हलवाई को बिठाकर शादी का खाना बना हो। सब सामान हलवाई को ख़ुद देना पड़ता था। घर के किसी अनुभवी सदस्य की देखरेख में खाना बनता था।  जनवरी के महीने में हर जगह मटर के ढेर लगे रहते थे परिवार के सदस्य और घर में रुके हुए मेहमान मटर छीलतेही दिखते थे।

 

दीपिका की शादी के बाद हम दिल्ली वापिस आ गये।  शुरू से ही मैं ऐल. ऐन. जे. पी. अस्पताल की डॉक्टर को दिखा रही थी जिन्होंने जयश्री को मौलाना आज़ाद मैडिकल कालेज में पढ़ाया भी थी। सौम्या और उससे पहले रमा दी के बेटे ने भी उनके ही हाथों से जन्म लिया था और परिवार के तीसरे बच्चे को दुनिया में सही सलामत लाने की ज़िम्मेदारी भी उन ही की थी। बाद में जयश्री का बेटा भी उनकी ही देख रेख में जन्मा था।उस समय हमारे पास स्कूटर ही था और हमेशा उसी पर अस्पताल जाते थे। ये तो पार्किंग में ही समय बिता देते थे डॉक्टर के पास साथ में कभी नहीं आते थे। इनको इतनी महिलाओं के बीच में जाने में बड़ी हिचकिचाहट होती थी। जहाँ तक स्कूटर पर जाने का सवाल है तो कभी दिक़्कत नहीं हुई, न ग़लत लगा क्योंकि तनु के समय तो ग्वालियर में ताँगे के अलावा कोई और साधन था ही नहीं।

 

यद्यपि मैं बिलकुल ठीक थी परंतु हमारी डॉक्टर ने कुछ कारणों की वजह से यह पहले ही निश्चित कर लिया था कि बच्चे का जन्म सिज़ेरियन सैक्शन से ही होगा। ये सरकारी अस्पताल था जहाँ निजी लाभ की कोई संभावना नहीं थी, जयश्री को उन डॉक्टर पर भरोसा था और जयश्री के भरोसे पर हम को भरोसा था। अतएव डाक्टर की नीयत पर शक करने का कोई सवाल ही नहीं था।अनुमानित समय से एक महीना पहले ही मम्मी आ गईं थी उनके साथ सुरेन भैया की दूसरी बेटी पूजा भी थी जिसने किसी कारण से बी. ए.  के बाद एक साल का गैप ले लिया था। घर का काम तो सब सुचारु रूप से चल ही रहा था। पूजा ने तनु को पढ़ाने की ज़िम्मेदारी  अपने ऊपर ले ली थी। पूजा से तनु अच्छी तरह पढ़ने लगी थी।  पूजा ने ही पुराने कपड़ों में से मम्मी के निर्देश में आने वाले बच्चे के लिये कपड़े बना दिये थे। पुराने कपड़ों को भी थोड़ी बहुत कढ़ाई करके आकर्षक  बना दिया था।  मम्मी  को ही कुछ काम अपने लायक दिखता नहीं था,वे मुझसे आराम करने को कहती रहती थीं।मैं उनके लिये कुछ काम छोड़ती ही नहीं थी तो वो थोड़ा नाराज हो जाती थीं ये देखकर मुझे अच्छा लगता था क्योंकि मैं भूली नहीं थी कि वे मुझे कितना निकम्मा समझती थीं।

 

मम्मी को जब यह पता चला डॉक्टर ने पहले से ही सिज़ेरियनसैक्शन करना निश्चित कर रखा है तो वे बहुत घबरा गईं, उन्होंने ऐसा कभी सुना ही नहीं था। उनके पोता  पोती तो घर में कुशल दाई के हाथों पैदा हुए थे। उन्होंने दोनों भाभियों को चिट्ठी लिख दी कि ’’ 16 अप्रैल को बीनू का ऑपरेशन से बच्चा होगा।‘’ भैया  भाभी भी आ गये और आशा भाभी भी आ गईं। उधर डॉक्टर ने कहा कि एक हफ्ता रुक जाते हैं, सर्जरी 23 तारीख़ को करेंगे। किसी के  पास काम तो कुछ था नहीं, मैंने सब  को दिल्ली दर्शन वाली बस में बिठा दिया। मम्मी मुझे अकेला छोड़कर जाने को तैयार नहीं हुईं थीं। ग्वालियर से नीता को भी बुला लिया था, क्योंकि वह डॉक्टर थी। जयश्री सौम्या को अपनी मम्मी के पास छोड़कर आती रहती थ।23 अप्रैल को हमारे पुत्र का जन्म हुआ।

 

अस्पताल में मेरे पास ज्यादातर जयश्री ही रुकती थी, कभी नीता या मेरी दोनों भाभियों में से कोई रुक जाती थीं। घर पर आये हुए मेहमान ही घर चला रहे थे। जब हम अस्पताल में ही थे तब मेरे एक जेठ जी(ताऊ जी के पुत्र) आये और उन्होंने अपूर्व नाम का सुझाव दिया जो हमें पसंद आ गया और हमारे पुत्र उस दिन से अपूर्व हो गये। ये एशियाड का साल था इसलिये कुछ लोग अप्पू कहने लगे क्योंकि एशियनगेम्स का शुभंकर अप्पू ही था। घर आने के बाद नामकरण संस्कार और हवन भी हुआ जिसके लिये ग्वालियर से चाचा  जी और चाची जी भी आ गये। छोटा सा घर मेहमानों से भरा था। नामकरण के बाद लखनऊ वाले मेहमान तो चले गये पर बाकी रुके रहे और बड़ी ननद भी गर्मियों की छुट्टी के कुछ दिन बिताने आ गईथीं।  दिनेश भैया सूरत से आये थे, वह भी आते जाते रहते थे, ठहरे तो वह अपनी ससुराल में थे क्योंकि जयश्री अपनी बेटी के साथ वहीं रह रही थी।  अपूर्व लगभग 3 सप्ताह का था तब उसेबहुत ज़बरदस्त डायरिया हो गयाथा। डॉक्टर ने मुझे कहा कि बच्चे के जन्म पर इतने लोगों को नहीं इकट्ठा करना चाहिये क्योंकि जितने ज़्यादा लोग होंगे सब संक्रमण की संभावना उतनी ही ज्यादा होती है। मैंने कहा मेहमान बुलाये नहीं थे, अति उत्साह में सब आ गये थे।

 

अपूर्व के बचपन का ,उसकी छोटी छोटी शैतानियों का हम तीनों ने बहुत आनंद लिया। ये बाये हाथ की दो उँगलियाँ चूसता था साथ में दूसरे हाथ से किसी चादर या रज़ाई का कोना हाथ में पकड़ लेता था। पापा जब ऑफिस से  आते तब लपक कर उनके पास जाता था, बाये हाथ की दो उँगलियाँ मुंह में चली जाती थीं और दाहिने हाथ से उनकी टाई पकड़ लेता तब बेहद शांत और सुरक्षित महसूस करता था। पापा की अनुपस्थिति में भी पुरानी टाइयाँ काम आती थीं। टाई पकड़ कर पापा के होने का अहसास होता था। मेरेपास होने पर यह मेरी कोहनी के पास खुजाता था जो आदत काफ़ी बड़े होने तक भी बनी रही। अपूर्व का बोतल से दूध पीना मैंने जल्दी ही छुड़ा दिया था, उँगली चूसना भी छुड़ा दिया था पर टाई पकड़ने की, या किसी कपड़े का कोना पकड़ने की आदत काफ़ी दिन तक बनी रहीथी ।

 

एक बार जब अपूर्व केवल आठ महीने का था तब मैंने इसे इसके पापा और नीता भुआ के साथ  ग्वालियर भेज दिया था । बगैर माँ के इतने छोटे बच्चे को ले जाने की इनकी हिम्मत देखकर सब

चकित थे। सुबह को उठते ही सबसे पहले इसे दूध चाहिये होता था उसमें देर इसे बर्दाश्त नहीं थी। ग्वालियर में दो दिन तो ठीक रहा, तीसरे दिन दूध मिलने में देर हो गई, ताज़ा दूध के इंतज़ार में, तो ये बहुत रोया। इसका रोना देखकर ये एक दिन पहले ही इसे वापिस लेकर आ गये थे। जाते समय तो नीता साथ थी वापसी में तो ये अकेले ही बच्चे को लेकर आये थे ।

 

इन दोनों की गैरहाज़िरी में मैंने और तनु ने कमल सिनेमा में ‘निकाह’ मूवी एक लम्बे अरसे के बाद देखी थी। कमल सिनेमा तो कुछ दिन बाद बंद भी हो गया था। अपूर्व ने अपना पहला क़दम भी ग्वालियर के एक उद्यान में उठाया था। आमतौर पर ग्वालियर में कहीं घूमने नहीं जाते थे, ज़्यादा से ज़्यादा सब के साथ कोई मूवी देख ली या बाज़ार हो आये। शायद ये पहली बार ही हुआ था कि एक छोटी सी पिकनिक मनाने गये थे और अपूर्व हरी घास में बिना सहारे  दो तीन क़दम चला था।  उस समय ये 13 महीने का था। जब अपूर्व  ने बोलना  शुरू  किया  तब ये ‘फ’अक्षर  का बहुत प्रयोग करता था जैसे लिहाफ़ को लिफाफ कहना! ख़ुद को फुद्दा कहता था। सुबह दूध तकिये पर चढ़कर थोड़ा ऊँचाई पर बैठकर पीना पसंद करता था। दूध पीने के बाद तकिये पर से दो चार बार कूदना और हँस कर कहना ” फुद्दा फुदा दिया’’ दिनचर्या का हिस्सा था। फुद्दा यानी ये ख़ुद और फुदा दिया मतलब कि कुदा दिया! अपूर्व कुछ महीने का ही था तब से तनु को छोड़ने जो नौकरानी जाती थी उसके साथ स्कूल जाता था, पहले गोद में उठाकर ले जाती थी, जब चलने लगा तो उसकी उँगली पकड़कर ले जाती थी।

 

मार्च अप्रैल 1983 में मम्मी नीरू के साथ यू.ऐस. गईं थी। क़रीब 4 महीने वे वहाँ रहीं और बड़े आराम से वहाँ के रंग ढंग में ढल गई, टी शर्ट ट्राउज़र पहनने लगीं, विदेशियों से बेहिचक टूटी टूटी इंगलिश और इशारों में  संवाद करने लगी थीं । बीबी के पड़ौस में एक अमरीकन महिला से उन्होंने दोस्ती कर  ली थी, अपनी टूटी फूटी इंगलिश के साथ,कुछ इशारों के साथसंवाद हो जाते थे,उनसे मिलने अकेली ही चली जाती थीं। खाने पीने की दिक्कतों को उन्होंने अपने ढंग से सुलझा लिया। वहाँ आलू के सूखे फ्लेक्स मिलते हैं जिन्हें  पानी लगा के गूंध लिया उसकी टिक्की बना लीं, फ्रोजन मटर छौंककर बना लीं, बाकी दही, दूध और फल से काम चल जाता था। वे वहाँ काफ़ी रिश्तेदारों से मिली ,फ्लौरिडा का डिज़नी लैंड और नियाग्रा फॉल भी देखकर आईं। भारत वापिस आते समय भी उन्होंने अपनी वेशभूषा नहीं बदली। यहाँ आकर भी वे पैंट टी शर्ट पहनती रहीं। सभी मिलने वालों को यह बदलाव दिखाना जो था! भैया भाभी उन्हें लेने दिल्ली आये थे, उनके साथ वे लखनऊ ट्रेन में भी उन ही कपड़ों में गईं। यही नहीं जब सुरेन भैया के पास शारदा नगर जैसी छोटी जगह जाना था तब भी उन्होंने वही कपड़े पहने……… बेझिझक…….. ग़जब का आत्मविश्वास था उनमें।

 

मम्मी की ग़ैरहाज़िरी में भैया भाभी ने अपने बेटे शिवेंद्र जिसे सब आशू कहते हैं उसका रिश्ता तय कर दिया था। यह रिश्ता दयालबाग़ के सत्संगी परिवार में तय हुआ था। यह पहला अवसर था कि रिश्ता तय करते समय परिवार के सत्संगी होने को प्राथमिकता दी गई थी। वधु हर तरह से योग्य और सुशील ढूँढी गई थी। यह सगाई समारोह भी हमारे सरोजनी नगर के घर में ही हुआ था । मम्मी उस समय तक वापिस नहीं आईं थी। मम्मी को कहीं न कहीं यह बात आहत कर गई थी कि उनकी गैर हाजिरी में भैया भाभी ने इतना बड़ा निर्णय  कैसे ले लिया ! मैंने उन्हें ही समझाया था कि उन्होंने अपने बच्चों के लिये निर्णय लिये, अब वे भैया भाभी को अपने बच्चों के साथ मिलके निर्णय लेने दें।

 

सत्संगी  तो मम्मी और नानी भी थीं, पर वे उसमें इतनी लिप्त नहीं थी। हर बात में मालिक की मर्जी की बात करना, उठते बैठते राधास्वामीराधास्वामी कहना मैंने नहीं सुना था। न हर समय दयालबाग़ या गुरु जी की चर्चा होती थी। साल में एक बार वे दयालबाग़ जाती थी। किसी निजी समस्या के बारे में गुरु जी से सलाह लेने वे कभी नहीं गईं थी। अपने चारों बच्चों की शादी तय करते समय  दूसरे पक्ष को सत्संगी होने के कारण वरीयता दी गई हो, ऐसा कभी नहीं हुआ। पिछले पन्नों में मैंने अपनी दो भतीजियों दीपिका और अपर्णा की शादी का जिक्र किया था, इन दोनों की शादी सत्संगी परिवारों में नहीं हुई थी। शिवेंद्र की शादी के साथ ही सत्संगी परिवारों में शादी होने का सिलसिला शुरू हुआ था।

 

1983 सितम्बर में एक प्रशिक्षण के लिये इन्हें यू.ऐस. जाना था, तीन महीने का कार्यक्रम था। इनकी पहली विदेश यात्रा और पहली ही विमान यात्रा थी।  रेलवे की नौकरी में जब पास मिलते हों तो लोग रेल यात्रा ही करते हैं , हवाई यात्रा आपात कालीन परिस्थितियों में ही करते थे। हम तीनों  इन्हें एयरपोर्ट तक छोड़ने गये थे। उस समय अंदर तक जा सकते थे, शीशों से विमान भी देखा जा सकता था।  ये तीन लोग एक साथ गये थे और किसी एक शहर में इन्हें नहीं रुकना था। हर दूसरे तीसरे दिन यात्रा पर निकल पड़ते थे। काम के साथ साथ लगभग पूरा देश उत्तर से दक्षिण और पश्चिम से पूर्व घूम लियेथे। वहाँ बीबी भाई साहब, ललिता रज्जू भैया, अपने एक कज़िन के अलावा और कई रिश्तेदारों और दोस्तों से मिले, सभी ने बहुत स्वागत सत्कार किया। अधिकतर दर्शनीय स्थल भी देख लियेथे। उस समय संचार का साधन केवल पत्र थे।  ये सप्ताह में एक बार पत्र भेज देते थे। मुझे  तो पता ही नहीं होता था कि ये कब कहाँ होंगे फिर भी संभावित कार्यक्रम के अनुसार मैं भी पत्र भेज तो देती थी।  यहाँ पर अकेलापन ज़रूर लगता था, पर कोई दिक्कत नहीं हुई। पड़ौसी बहुत अच्छे थे। कुछ समय नीता भी हमारे साथ रही उसने मूलचंद अस्पताल में नौकरी कर ली थी। दिसम्बर में ये वापिस आ  गये थे। इनके पीछे ही नीता की शादी भी तय हो गई थी। सगाई का कोई बड़ा समारोह नहीं हुआ था अगले वर्ष सीधे शादी ही हुई। नीता की म.प्र. सरकार की नौकरी थी, वर नागपुर के पास कोयला खदानों के अस्पताल में नेत्र विशेषज्ञ थे। नीता ने वहाँ का तबादला ले लिया था क्योंकि वह इलाका म. प्र. में ही था।  नीता का ससुराल का परिवार रायपुर में था।

 

अमैरिका से आने के कुछ महीने बाद ही मम्मी के स्ट्रोक हो गया था । धीरे धीरे कुछ सुधार हुआ परन्तु बहुत नहीं,  घिसट घिसट कर चलने लगीं थी। बातचीत बहुत अच्छी तरह नहीं कर पाती थीं,  बस जिंदगी कट रही थी।  भैया भाभी  ने हमेशा की तरह उनका बीमारी में बहुत ख़याल रखा , यही समय था जब परिवार एक और मुसीबत से जूझ रहा था भैया की पहली धेवती दीपिका की बेटी एक साल की उम्र में स्प्लीन के कैंसर से लड़ रही थी लखनऊ  से बंबई के चक्कर लगते रहते थे। अंत में उस नन्ही सी जान को भी नहीं बचाया जा सकाथा।

 

मैंने पहले भी जिक्र किया था कि जब अपूर्व बीस दिन का था तो इसे ऐसा डायरिया हुआ था कि अस्पताल में भरती करना पड़ा था, ड्रिप लगानी पड़ी थी और एक सप्ताह अस्पताल में रखना पड़ा था। ये डेढ़ दो साल का हुआ तब फिर इसे डायरिया हुआ। कुछ भी खा पी नहीं रहा था पानी भी नहीं ले रहा था।  पहले के अनुभव ने हमें डरा दिया था तो हम इसे लेकर रेलवे अस्पताल में आपात कालीन विभाग में ले  गये । वहाँ डॉक्टर ने देखा इलाज शुरू ही किया होगा तो इसे भूख प्यास सब लगने लगी। कोल्ड  ड्रिंक पीकर इतनी भाग दौड़ शुरू की कि नर्स ने कहा आप दवाई ले  लें यहाँ रखने की ज़रूरत नहीं है। ये घर पहुँचे ही थे हमारा सामान लेकर दोबारा अस्पताल आने के लिये कि मैंने वहीं से फ़ोन कर दिया कि भरती नहीं हुआ है, हम वापिस आ रहे हैं।

 

एक बार मैं तनु और अपूर्व लखनऊ गये थे। ये नहीं जा पाये थे। वापिस आने से पहले रात में इनसे फ़ोन पर बात हुई थी और इन्होंने कहा था कि सुबह ये स्टेशन पर मिल जायेंगे। सुबह ट्रेन पर लेने ये नहीं आये और एक अन्य व्यक्ति मिला जिसने बताया कि साहब की तबीयत ख़राब है इसलिये हमें लेने उस व्यक्ति को भेजा है। मुझे काफ़ी घबराहट हुई कि रात तक तो ठीक थे अब अचानक क्या हो गया। घर पहुँचे तो बाहर दिनेश भैयाका स्कूटर सुबह सुबह देखकर घबराहट और भी बढ़ गई। अंदर जाकर देखा तो दिनेश भैया सिर हाथ पैर क्या पूरे बदन को ही ठंडे पानी के तौलियों से स्पंज का रहे थे। बुखार 106 डिग्री तक पहुँच रहा था इंजैक्शन दे चुके थे। दिनेश भैया भी घबराये हुए थे। रात को सोने के बाद इन्हें लगा कि बुखार तेज़ है तो थर्मामीटर लगाया 105 डिग्री देखकर इन्होंने ऊपर वाले पड़ौसी को बुलवा लिया दवा ली, उन्होंने ठंडी पट्टियाँ भी माथे पर रखी। फ़ोन करके दिनेश भैया को भी बुलवा लिया उन दिनों वो गुरु तेग बहादुर अस्पताल में थे, उसी प्रांगण में रहते भी थे जैसे ही ख़बर मिली आ गयेथे । बुखार कुछ कम हुआ तो अस्पताल लेकर गये, वहाँकरीब 7,8 दिन भरती रहे, दरअसल मलेरिया के साथ टायफाइड भी हो गया था।अपूर्व काफ़ी छोटा था पहली बार तनु को और उसे आउट हाउस वाली नौकरानी के भरोसे छोड़ा था। उन दिनों कूलर हुआ करते थे, डर लगा रहता था कि कहीं उसमें उँगली न घुसा दे। तनु को भी बहुत हिदायतें दी थी, जिन्हें इसने पूरी ज़िम्मेदारी से निभाया था।

 

1985 में अपूर्व तीन साल का हो रहा था इसलिये स्कूल में दाख़िले की चिंता थी। आजकल जितने मुश्किल हालात तो नहीं थे फिर भी बच्चे का साक्षात्कार कोई मामूली बात नहीं है! चाहें जितना सिखा पढ़ा लो बच्चे मन के मालिक होते है। मन होगा तो बोलेंगे नहीं चाहेंगे तो आप सर पटक लो वे नहीं बोलेंगे। हम चाहते तो यही थे कि नेवल स्कूल में दाखिला मिल जाये, उम्मीद भी थी  फिर भी ग्रीन फील्ड स्कूल ग्रीन पार्क का फार्म भी भर दिया था। ग्रीन फील्ड से बुलावा पहले आ गया। वहाँ तो ये हमारी गोदी में चढ़ गये और सिर पीछे कर लिया किसी की बात का जवाब देने का तो सवाल ही नहीं था।  हम सोच रहे थे कि यहाँ तो दाख़िला मिलेगा नहीं परन्तु स्कूल  ने लोअर के. जी. की जगह इसे नर्सरी में ले लिया जबकि आयु तो एल.के. जी. के लिये ही सही थी।  हम भी हाथ में आई चीज़ को छोड़ना नहीं चाहते थे इसलिये दाख़िले की औपचारिकताओं को पूरा कर दिया। तनु वाली कहानी फिर दोहराई जा रही थी।

 

जब नेवल स्कूल में दाखिले की औपचारिकताओं के लिये बुलाया गया तो अपूर्व कोपता हीनहीं लगा कि वहाँ उसे क्यों ले जाया गया है, वह चारदीवारी इतनी जानी पहचानी थी कि साक्षात्कार के लिये चुपचाप चला गया, वहाँ क्या पूछा गया, क्या इसने बताया हमें नहीं पता परन्तु स्कूल में एल. के. जी. में प्रवेश मिल गया।

अपूर्व का पहला सप्ताह स्कूल में

(संस्मरण3)

एल. के.जी. मे स्कूल में कोई यूनिफोर्म नहीं थी। उस दिन अपूर्व लाल और सफ़ेद रंग कीधारियों वाली टी शर्ट और लाल रंग की नेकर में, बस्ता और पानी की बोतल लेकर तैयार था। उसके कपड़े मुझे याद हैं………… अरे मेरी याददाशत इतनी अच्छी नहीं है, उस दिन की एक फोटो है……………….. जब मैं अपूर्व को स्कूल छोड़ आई वह कुछ गंभीर तो था पर रोया नहीं ।स्कूल में अध्यापिका की बात सुनना, मानना जरूरी है, इतना ज्ञान उसे था ही नहीं। एक जगह बैठना ही मुश्किल लग रहा था तो गुस्से में अपनी टी शर्ट पर लगा आई कार्ड निकाल के फाड़ दिया। अध्यापिकाओं को बच्चों के नाम से पहचानने में कुछ समय लगता है, इस बात का इसने फ़ायदा उठाया।

 

लोअर के जी और अपर के जी के सभी सैक्शन पास पास थे। किसी न किसी सैक्शन की लाइन बाहर लगी होती थी, खेल के मैदान में या ऐक्टिविटी रूप में जाने के लिये। ये चुप चाप किसी भी लाइन में लग जातता था। आख़िर कब तक ये ऐसा कर पाता, नया आई कार्ड भी बन गया और अध्यापिकायें भी पहचानने लगीं थीं

 

जब अध्यापिका ब्लैकबोर्ड पर लिखती तो ये चुपके से भाग जाता झूले की तरफ…………….. तो कोई नौकरानी पकड़कर लाती थी ।ये अपनी आदतों से बाज़ नहीं आ रहा था, परन्तु अध्यापिका को क्रोध नहीं आता था। एक दिन क्लास से भागने की अच्छी तैयारी की, भागते भागते क्लास के कमरे की कुँडी लगा दी अध्यापिका  और बच्चों को कमरे में बंद करके झूले पर भाग गया, ग़नीमत ये थी कमरे में एक और दरवाज़ा भी था ।

अगले 6 महीने में स्कूल मे

(संस्मरण –4)

अपूर्व बचपन में बहुत दुबला पतला था परन्तु बेहिचक किसी पर हाथ उठा लेता था। संभवतः इसकी क्लास के बच्चों ने कभी शिक्षिका से शिकायत भी की हो पर उन्होंने इसके ढाई पसली के शरीर को देखकर ध्यान न दिया होगा। इसने एक बार एक तगड़े से लड़के पर हाथ जमा दिये, वो बेचारा रोते हुए मैम के पास गया कि अपूर्व ने उसे पीटा तो मैम ने कहा वह क्या तुम्हें पीटेगा इतना पतला सा है। अब उस लड़के के सब्र का बाँध टूट गया और अगले दिन अपूर्व काफ़ी ठुके, पिटे और सूजे हुए घर आये। मैंने जब इनकी शिक्षिका से इनकी चोटों के बारे में पूछा तब पूरी बात पता चली।  इस घटना के बाद बेवजह बच्चों को पीटने की आदत भी छूट गई।

 

पहली कक्षा तक आते आते इस तरह की शैतानियाँ छूट गईं थी पर पढ़ाई में ज्यादा ध्यान नहीं था, हर समय खेलना चाहता था। बॉल से खेला जाने वाला हर खेल पसंद था।  खिलौनों के नाम पर बस टेबल टैनिस की बॉल के आकार की रबर की बाल से लेकर फुट बॉल के अलावा कोई और खिलौने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी। किसी भी बॉल से ज़मीन पर टप्पे मारकर या दीवार पर टप्पे मारकर बहुत लम्बा समय निकाल सकता था।

 

अब कुछ समय परिवार के अन्य सदस्यों की तरफ रुख़ करती हूँ। सुरेन भैया की बेटी पूजा का रिश्ता तो काफ़ी पहले तय हो चुका था पर सगाई और शादी के बीच बड़ा अंतराल रहा क्योंकि वर शादी तय होने के बाद लीबिया चला गया था और वहाँ से जल्दी नहीं लौट रहा था। हमारे घर के लोगों को शंका भी हुई कि यह लोग शादी  करना भी चाहते हैं या नहीं परन्तु उनके परिवार  से हमेशा आश्वासन मिला कि शादी तो यहीं होगी। अंत में 1985 में ये शादी संपन्न हुई।  इस शादी में बीबी भाई साहब भी शामिल हुए थे।  पूजा की सास और कुछ अन्य सदस्य दयालबाग़ के सत्संगी अवश्य थे पर शादी  सामान्य सनातनी तरीके से हुई क्योंकि बड़े परिवार में सभी लोग दयालबाग़  वाली शादी के पक्ष में नहीं थे। मम्मी के जीवन काल की ये अंतिम शादी थी।

 

मम्मी की बीमारी के दौरान ही मैं एक बार लखनऊ में थी तभी अचानक मम्मी एक जोड़ी झुमकी निकाल कर लाईं और मुझे दे दिया । कुछ देर बाद फिर उन्होंने कहा कि उन्हें वह झुमका वापिस चाहिये क्योंकि अभी उन्हें सुरेन भैया की  तीसरी बेटी चारु के लिये ज़ेवर बनवाने हैं। मैंने उन्हें वह वापिस दे दी और कहा कि मैंने तो आपसे कभी कुछ भी माँगा ही नहीं,   आप जिसे चाहें दे दें। भाभी शायद ये सुन रही थीं और उन्होंने मम्मी से कहा कि बेटियों को देकर वापिस नहीं लेते चारु के लिये सब हो जायेगा। दरअसल उनके दिमाग़ पर भी बीमारी का असर था।

 

अपूर्व को इन ही दिनों मुंह में एक गाँठ निकल आई थी। देखकर ऐसा लगता था कि मुंह में कोई टॉफ़ी दबा रक्खी है। दर्द बुखार कुछ भी नहीं था। जब दिनेश भैया को दिखाया तो वह  भी कुछ घबरा से गये, उन्होंने अपने किसी सीनियर को दिखाने की बात की, उनको भी दिखाया तो उन्होंने एक सप्ताह बाद  बाइऐप्सी की बात की, बीच में कई टैस्ट हुए। मैं बहुत घबरा जाती थी ,मेरी घबराहट देखकर मुझे व्यस्त रखने के लिये ये कभी ढ़ेरों टमाटर लाकर डाल देते कि सॉस बनाओ, कभी कोई अचार बनाओ। मुझे गुस्सा आता  कि बच्चे की हालत ख़राब है और तुम्हें अचार सॉस सूझ रहे हैं……………………… यहाँ रोज़ की दाल रोटी बनाना मुश्किल हो रहा है। तब इन्होंने मुझे काफ़ी डाँटा और कहा ‘’कुछ नहीं हुआ है अपूर्व को, खेल रहा है स्कूल जा रहा है, बेकार में बुरा बुरा  नहीं सोचना चाहिये।‘’ दरअसल साल भर पहले ही दीपिका की बेटी को कैंसर से खोने के बाद बाइऐप्सी नाम ही भंयकर लग रहा था।  एक सप्ताह बाद जब डॉक्टर को दिखाया तो उन्हे लगा गाँठ छोटी हो रही है। अब बायऐप्सी की ज़रूरत नहीं है। धीरे धीरे वह गाँठ अपने आप समाप्त हो गई।इसी बीच मम्मी को स्ट्रोक पुनः हो गया, इससे पहले उन्हे अपूर्व की बाइऐप्सी की सूचना मिल चुकी थी, दीपिका की बेटी के जाने के हादसे की पृष्ठभूमि की वजह से वह भी बहुत परेशान सी थीं। स्ट्रोक के बाद उन्हे होश आया ही नहीं कि हम बता पाते कि अपूर्व ठीक है। इसी चिंता के साथ वो चली गईं। मेरी जीवन कथा का एक सितारा आसमान का सितारा बन गया।

 

मम्मी  की एक ख्वाहिश और अधूरी रह गई थी ।जैसा कि मैं पहले  भी लिख चुकी हूँ कि हम तीनों भाई बहनों के पास उनके जाने तक अपना कोई मकान नहीं था।  सभी सरकारी नौकरियों में थे अच्छे बड़े सरकारी मकानों में रह रहे थे , उनकी पीढ़ी ने भी अपना मकान नहीं बनाया था। बस अमरीका में बीबी का मकान था। 86 में उनके जाने के बाद लखनऊ में 93 तक हम तीनों भाई बहनों के मकान बन गये पर उनके सामने यह नहीं हो सका और इस अधूरी ख़्वाहिश के साथ वे चली गईं। यह सोच कर कभी कभी दुख होता है परंतु हर ख्वाहिश यहाँ किसकी पूरी होती है ! मम्मी के निधन के समय तनु की नवीं कक्षा की वार्षिक परीक्षा चल रही थी, अतः ये तनु के पास रुके रहे और मैं ही लखनऊ जाकर वापिस आई। अंतिम संस्कार से पहले तो नहीं पहुँच पाई थी, रोके रखने को भी मैंने ही मना कर दिया था। सत्संग के बाद मैं वापिस आ गई।

 

किसी के ………………….. किसी के भी जाने के बाद उसके परिवार से संवेदना व्यक्त करने आना, संवेदना व्यक्त करने के लिये फोन करना या पत्र भेजना एक सभ्य सामाजिक व्यवहार है, जो असभ्य व्यक्ति भी दर्शाने से नहीं चूकते परन्तु मेरी ससुराल से एक भी व्यक्ति संवेदना प्रकट करने न आया, न कोई पत्र न फोन! मेरी तकलीफ़ को इस बात ने बढ़ा दिया था, घाव खुरच दिये थे। लिखने बैठी हूँ तो सच लिखूँगी। कुछ समय के लिये सब के लिये मेरी भावनायें मर गईं थी।

 

मैं रो धो नहीं रही थी पर दुखी तो थी ही। कुछ दिन बाद होली थी इन्होंने कहा कि चलो इस बार होली पर ग्वालियर चलते हैं। मेरा सोया हुआ ज्वालामुखी लाव उगलने लगा था।  ज़ाहिर है कि होली मनाने हम ग्वालियर नहीं गये।  बेटियों की ससुराल में किसी के गुज़रने पर हमारे पास हिदायत आ जाती थी कि वहाँ जाना और मायके की तरफ़ से सब रस्मों के लिये कुछ सामान या लिफ़ाफ़ा देकर आना है। हम हमेशा संवेदना प्रकट करने गये पर रस्म पूर्ति नहीं की क्योंकि दुख के समय मायके वालों का रस्में निभाने की परम्परा को मुझे तोड़ना ही था।

 

खैर वहाँ से तो संवेदना प्रकट करने की परम्परा तोड़ी गई………….. बहु के मायके के परिवार के लिये……………………… उनकी इच्छा ! वह समय अलग था अब मैं दूसरों की बात पर ध्यान नहीं देती। समय के साथ दृड़ता और परिपक्वता आ ही जाती है।

 

 

 

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 बीनू भटनागर 

 

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