अनामिका चक्रवर्ती की स्त्री विषयक कवितायें

अनामिका चक्रवर्ती आज कविता में एक सशक्त हस्ताक्षर हैं | यूँ तो वो हर विषय पर कवितायें लिखती हैं पर उनकी कलम से स्त्री का दर्द स्वाभाविक रूप से ज्यादा उभर कर आता है | आज आपके लिए उनकी कुछ ऐसी ही स्त्री विषयक कवितायें लेकर आये हैं |इन कविताओं को पढ़ते हुए कई बार लोकगीत “काहे को ब्याही विदेश” मन में गुंजायमान हो गया | कितनी पीड़ा है स्त्री के जीवन में जब उसे एक आँगन से उखाड़कर दूसरे में रोप दिया जाता है | पर क्या पराये घर में उसे अपनी बात कहने के अधिकार मिल पाते हैं उड़ने को आकाश मिल पाता या स्वप्न देखने को भरपूर नींद | आधुनिक पत्नी में वो कहती हैं ..

क्योंकि जमाना बदल गया है
औरतों के पास
कई कई डिग्रियाँ होती हैं

कुछ डिग्रियों की तख़्तियाँ

उनके ड्राइंग रूम की शान होती है
साक्षरता के वर्क से सजी हुई

लड़की पढ़ी लिखीं चाहिए समाज को दिखने के लिए पर उसकी डिग्री ड्राइंग रूम का शो केस बन कर रह जाती हैं |किस तरह से पति गृह में बदलती जाती है एक स्त्री | कहीं पीड़ा की बेचैनी उनसे कहलवाती है कि औरतें तुम मर क्यों नहीं जाती तो कहीं वो क पुरुष कहकर पुरुष को ललकारती हैं | समाज में हाशिये से भी परे धकेली गयीं बदनाम औरतों पर लिखी उनकी रचनायें उनके ह्रदय की संवेदना पक्ष को उजागर करती है | कम से कम स्त्री तो सोचे उनके बारे में …जिनके बारे में ईश्वर  भी नहीं सोचता |

अनामिका चक्रवर्ती की स्त्री विषयक कवितायें

आधुनिक_पत्नी

जमाना बदल गया है
तकनीकी तौर पर गाँवों का भी
शहरीकरण हो चुका है

कच्ची सड़कों पर
सीमेंट की वर्क बिछा दी गई है
और सड़क की शुरूआत में
टाँग दी गई है एक तख्ती
उस सड़क के उदघाटन करने वाले
किसी मंत्री का नाम पर

क्योंकि जमाना बदल गया है
औरतों के पास
कई कई डिग्रियाँ होती हैं

कुछ डिग्रियों की तख़्तियाँ
उनके ड्राइंग रूम की शान होती है
साक्षरता के वर्क से सजी हुई

तकनीकी तौर पर ये आज की
आधुनिक औरतें कामकाजी कहलाती हैं
मगर इनका अपनी ही जेबों पर
खुद का हक़ नहीं होता
इनको महिने भर की कमाई का
पूरा पूरा हिसाब देना पड़ता है
अपने ही आजाद ख्यालात परिवारों को

घर के बजट में ही होता है शामिल
उसके खर्चों का भी बजट
जबकि उसके कंधे भी ढोते हैं
बजट भार की तमाम जिम्मेदारी
मगर उन कंधों को देखा जाता है केवल
आंचल संभालने की किसी खूंटी की तरह

ये औरतें भी गाँव की
उन कच्ची सड़कों जैसी होती हैं
जिनपर बिछा दी जाती हैं सीमेंट की वर्क
जिनका उदघाटन उनके पतिनुमा मंत्री ने किया होता है

और परिवार के शिलालेख पर लिखा होता है
आधुनिक पत्नी के आधुनिक पति का नाम।

बदलाव 

उसे लहसुन छीलना
आसान लगता था
प्याज काटना तो
बिलकुल पसंद नहीं था

रह-रहकर नहीं धोती थी मुँह अपना
जबकि सूख जाता था
चेहरे पर ही पसीना
आँखें तो रगड़कर पोछना
बिलकुल पसंद नहीं था

पीते पीते पानी
ठसका भी नहीं लगता था
न होती थी नाक लाल
बीच में चाहे कुछ भी कर ले बातें
चुप रहना तो बिलकुल पसंद नहीं था

उसे अब
प्याज काटना बहुत पसंद है
मुँह भी धोती है रह-रहकर
पोछती है आँखें रगड़कर
पीते पीते पानी लग जाता है
अक्सर अब ठसका
जबकि चुपचाप ही पीती है
नाक भी दिख जाती है लाल

वो अब भी बहुत बोलती है
अब तो खत्म होने लगा है
जल्दी काजल भी
पसंद करने लगी है मगर
चुप रहना…..

वेश्याएँ आखिर कितनी वेश्या ?

मोगरे की महक जब मादकता में घुलती है
शाम की लाली होंठों पर चढ़ती है
वेश्यायें हो जाती है पंक्तियों में तैयार
कुछ लाल मद्धम मद्धम रोशनी में थिरकती हैं
दिल के घाव पर मुस्कराहट के पर्दे डालकर
झटकती है वो जिस्मों के पर्दों को
जिसमें झाँक लेना चाहता है हर वो मर्द
जिसने कुछ नोटों से अपना जमीर रख दिया हो गिरवी
और कुछ चौखटों पर दिखती हैं तोरण सी सजी
अपने अपने जिस्म को
हवस की थाली में परोसने के लिए

लगाती है इत्र वो अपनी कलाइयों में
उस पर बाँधती है चूड़ा मोगरे का
आँखों के कोने तक खींचती है वो काजल
और काजल के पर्दे से झाँकती है
औरत होने की असिम चाह
जिनके नसीब में सुबह भी काली होती है

मगर जिस्म बन कर रह जाती हर बार
हवस की थाली लिये मर्द नामर्द
हवस के भूखे भेड़िये नहीं होते
क्योंकी भेड़िया हवस का भूखा नहीं होता
वे होते है किसी के खसम, भाई, दद्दा, बेटा
जो घर की औरतों को इज्जत का ठेका देते हैं
और बाजारों में अपनी हवस मिटाने का लेते है ठेका
फिर भी नहीं मिटती उनकी भूख कभी
न देते है औरत को औरत होने का हक़ कभी

आस मिटती नहीं, आँखें छलकती नहीं
फिर हर बार बनती है वो वेश्या
सजती सवँरती है लगाती है इत्र फिर
गजरे बालों में बांधती रखती गालो में पान
ऐसे श्रृगाँर से रखना चाहती दूर वह
अपनी बेटीयों को,
जिनके नसो में बहता नाजायज बाप का खून
मगर सर पर साया नहीं रहता कभी
न होते है जन्मप्रमाण पत्र पर
हस्ताक्षर कोई

औरत न होने की पीड़ा लिये
जीती है ऐसी माएँ वेश्या की आड़ में तब तक
झुर्रियाँ उसकी सुरक्षा का कवच न बन जाए जब तक ।

 सच है, स्त्रियाँ नहीं कर सकतीं

पुरुष की बराबरी
क्या हुआ अगर उसी ने
जन्म दिया है पुरुषों को
कोई हक़ नहीं उसे
अपनी भूख को मिटाने का

खाने का आखिरी निवाला भी वह
पुरुष की थाली में ही परोस देती है
चाहे फिर उसे भूख से समझौता ही क्यों न करना पड़े
खाने के साथ साथ
अपनी कामनाओं से भी कर लेती है समझौता

बेहद जरूरी होता है पुरुष का पेट भरना, मन भरना
जब तक कि उसको न दोबारा भूख लगे
क्यों हर भूख को मिटाना पुरुष के लिये ही होता है
परन्तु भूख तो स्त्रियों की भी उतनी ही होती है
पुरुष की संतुष्टि से तृप्त नहीं होतीं स्त्रियाँ
मगर वह खुशी से जीती हैं अपनी ज़िन्दगी
अपनी असंतुष्टि और अतृप्त पीड़ा को लेकर
नहीं करतीं वह बातें इस बारे में खुद से भी

नहीं चाहतीं वह हर कीमत पर अपनी भूख मिटाना
क्योंकि वह जानतीं है दायरे में रहना
चाहे फिर ये बात हो अलग कि
भूख का कोई दायरा नहीं होता

फिक्र होती है दुनियाँ को औरत के मरने पर
आदमी के भूख की
जरूरी हो जाता है इंतजाम करना
एक दूसरी स्त्री जो उसका निवाला बने
उसे तृप्त करे
मगर नहीं करता कोई फिक्र
जवान विधवा की भूख और उसकी कामनाओं की,
हर नजर का पहरा होता है उस पर
उसकी इच्छाओं पर

समाज में हर दायरा स्त्रियों के लिये ही होता है
पुरुष के लिये नहीं
भूख स्त्री या पुरुष नहीं होती
वो सिर्फ भूख होती है
हाँ मगर यही सच है
स्त्रियां नहीं कर सकतीं पुरुष की बराबरी।

#नोट ::= ये पोस्ट स्त्री के प्रति कुत्सित मानसिकता रखने वाले पुरुषो पर है ।
…………………………. #…………….

हे”कु” पुरुष !!

तुम कब तक और कितनी बार
स्त्री के चरित्र पर अपना पैर रखकर खड़े होगे
क्या तुम्हें अपने पैरों पर खड़ा होना नहीं आता

स्त्रियाँ चरित्रहीन होती है
ये कहते हुए तुम्हारा चरित्र अपने घर की
स्त्रियों के चरित्र को कहाँ स्थापित करता है

स्त्रीयों के निर्णय लेने पर तुम क्यों विचलित होते हो
क्या तुम्हारी कुंठा तुम्हारे जन्म पर भी कुंठित होती है
कि तुम्हें जन्म देने वाली एक स्त्री है
और उसी ने निश्चय किया था नौ माह अपनी कोख में
तुम्हें पालने का ।

हे कुंठित पुरुष !!

तुम्हारी हँसी में कितना विष है
कि तुम्हारी मदिरा भी मादक नहीं विषैली हो जाती है
तुम्हारे कंठ में उतरते ही
और तुम विष वमन करते हो स्त्रियों के चरित्र पर, उनकी
उनकी स्वतंत्रता पर, उनके सपनों पर

क्योंकि तुम देख नहीं पाते उन्हें
सफलता को अपने आँचल में बाँधकर
जीवन पथ पर लम्बे लम्बे डग भरते हुए

हे ईर्ष्यालु पुरुष!!

क्यों भर जाते हो तुम ईर्ष्या से
भार नहीं सम्भाल पाते तुम अपने रजत केशों के
क्योंकि यकायक तुम्हें जीवन की धूप तेज लगने लगती है
स्त्री को अपने लिये अपनी छाँव बनाता देखकर

स्त्री के पैरों तले जमीन खींचते खींचते
नहीं देख पाते हो तुम
कि तुम्हारी जमीन का जोड़ भी उसी में था
जिसे खीेंचने में तुम अपनी भी जमीन गँवा रहे हो।

हे पुरुष !!

कितने कुत्सित हो रहे हो तुम……….
जीवन के इस सुंदर संसार में

 स्त्री

————

मैं स्त्री हूँ,
इसलिए सजग हूँ।
मैं स्त्री हूँ,
इसलिए सहज हूँ।

मैं स्त्री हूँ,
इसलिए धैर्य हूँ।
मैं स्त्री हूँ,
इसलिए तृष्णा हूँ।

मैं स्त्री हूँ,
इसलिए प्रकृति हूँ।
मैं स्त्री हूँ,
इसलिए गर्भ हूँ।

मैं स्त्री हूँ,
इसलिए छाया हूँ।
मैं स्त्री हूँ,
इसलिए माया हूँ।

मैं स्त्री हूँ
इसलिए अंबर हूँ
मैं स्त्री हूँ
इसलिए धरा हूँ

मैं स्त्री हूँ,
इसलिए सुंदर हूँ।
मैं स्त्री हूँ,
इसलिए शक्ति हूँ।

मैं एक स्त्री हूँ,
इसलिए तुम पुरुष हो।
तुम एक पुरुष हो,
इसलिए मैं स्त्री हूँ।
तुम और मै,
हम हैं।
इसलिए जीवन है।

 #औरतें / #दुनियाकेकैलेंडरमें #8मार्च
————-

औरतें तुम जाकर कहीं
मर क्यों नहीं जाती हो

बार बार तुम
कभी चारे की तरह
कभी दूब की तरह
कहीं भी उग क्यों जाती हो

औरतें तुम बड़ी बवाल हो
अजीब सवाल हो
जी का जंजाल हो
तुम किसी भी आग में जलकर
कभी लोहा कभी सोना क्यों बन जाती हो

औरतें तुम आखिर किसकी कर्जदार हो
कैसी राज़दार हो
कब हक़दार हो
क्यों खबरदार हो
तुम हर बार विजेता हो
फिर तुम जीतकर भी हार क्यों जाती हो

औरतें तुम तो स्त्री भी हो पुरूष भी हो
एक ही कोख से दोनों को जन्म देने वाली
स्वयं की प्रसव वेदना हो

फिर भी तुम दोयम दर्जे की लकीर हो
पर्दे के पीछे खड़ी एक जिन्दा हसरत हो
तुम सबकी गढ़ी हुई तस्वीर हो
फिर भी तुम ही जननी हो

क्यों हालातों को अपनी
तुम तक़दीर मान लेती हो
और फिर भी टूटती दुनिया को
अपनी पीठ पर बाँध लेती हो

झुकती हुई कमर और सूखती छातियों से
ममता का बाँध कैसे बना लेती हो
घने पेड़ों से सूखी टहनियों सी टूटकर
गहरी नदी में खुद को नाव बना लेती हो

औरतें तुम भी न बस कमाल करती हो
सबके लिये हर पल जीती हो
और खुद के लिये रोज रोज मर जाती हो।

अनामिका चक्रवर्ती

धंधे वाली औरते बनाम कॉल गर्ल्स
******

धंधे वाली औरतों के पेट पर लात मारती हैं
शराफ़त के दुपट्टे से
ढके हुए चेहरे वाली काॅलगर्ल्स

ये जो धंधे वाली औरतें होती हैं
समाज की सेक्स वर्कर
यानि की एक तरह की मजदूर होती हैं
ये मजबूर औरतें ।
जो करती हैं मज़दूरी समाज के
एक नपुंसक जीवाणु जाति की,
जो लगातार फैल रहे हैं विषाणुओं की तरह

जबकि कमसिन फैशनेबल काॅलगर्ल्स
लाइफ को शाॅर्ट कट में
ज्यादा जीने वाली लड़कियों को
रोटी की भूख से ज्यादा होती है
सेक्स की भूख,
फैशन की भूख
हाई प्रोफाईल बनने की भूख,
बेहिसाब शोहरत की भूख
इनकी भूख इनके माँ बाप के संस्कारों और
खून पसीने की कमाई पर एक
बदनुमा दाग़ होती है

ये ग्राहक के नाम पर
नाजायज रिश्ते पाल कर रखती हैं
जो उम्र से तय नहीं होते
और जो दूसरे, ग्राहक होते हैं
उनके नाम नहीं होते ,
उनके सिर्फ टाईटल होते हैं
या वो सब टाईटल होते हैं

इन्हें नहीं होती जरूरत
किसी खास रेड लाईट टाईप की जगह की
इनके ग्रीन सिग्नल आसानी से मिल जाते हैं
रेपुटेटेड पॉर्लरो में, पबो में ,क्लबो में
और ऑर्गनाइज़ की हुयी पार्टियों में

इनकी अय्याशियों की पाॅकेटमनी
और मोबाईल रिचार्ज होते हैं
इनकी ब्लु ग्रीन लाइट्स की
वन डे वन नाईट स्टे पर …..
फिरभी बा-इज़्जत बरी रहती हैं
ये हमेशा समाज की कचहरी से
जबकि ताउम्र बदनाम रहती हैं
पेट के लिये रेड लाइट पर अभागी
और गुमनामी भरी जिन्दगी जीने को मजबूर
धंधे वाली औरतें।

 

लघु कवितायें 

(१)
पहाड़ अवसाद में है कि मैं पुरुष हूंँ।
नदियाँ रो रही है कि मैं स्त्री हूंँ।

समूची पृथ्वी,
अपनी स्त्री और पुरुष को देखकर भयभीत है।

 

(२)

स्त्रियाँ पुरुषों में डूबती पहले हैं तैरती बाद में हैं
किसी जलीय पुष्प की तरह
जिसकी जड़ें भीतर तक फैली होती हैं
जबकि पुरुष डूबते नहीं हैं
तैरकर दूसरे किनारे निकल जाते हैं
खोखली टहनियों की तरह।

 

(३)
स्त्रियाँ पुरुषों में डूबती पहले हैं तैरती बाद में हैं
किसी जलीय पुष्प की तरह
जिसकी जड़ें भीतर तक फैली होती हैं
जबकि पुरुष डूबते नहीं हैं
तैरकर दूसरे किनारे निकल जाते हैं
खोखली टहनियों की तरह।

स्त्री और प्रेम
————————-

एक औरत अपनी जिन्दगी में
दो पुरूषो को सबसे ज्यादा समझ सकती है
उनसे प्रेम करते हुए।
एक अपने बेटे को और दूसरा उसे
जिससे उसने बिना किसी शर्त सिर्फ
और सिर्फ प्रेम किया हो।

ये वो दो पुरूष होते हैं जिसमें
एक का जन्म उसकी कोख से होता है
और दूसरे का जन्म
उसके मन के कोख से होता है।

लेकिन ये दोनों ही पुरूष सबसे ज्यादा
इस बात से अनभिज्ञ होते हैं या
उनमें इस प्रेम को समझने की
क्षमता ही नहीं होती।

और यही एक रिश्ता ऐसा होता है जिसकी हर बात को हम मन से ही नहीं शरीर से, शिराओं से और अपनी त्वचा तक में महसूस कर पाते हैं
इसके लिए स्पर्श ही भाषा का नहीं,
भाषा भी स्पर्श की क्रिया करती है।

अनामिका चक्रवर्ती

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1 thought on “अनामिका चक्रवर्ती की स्त्री विषयक कवितायें”

  1. सवाल करती हुई, हालात बयां करती हुई भावुक कर देने वाली सशक्त कविताएं ♥️♥️
    बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं प्रिय अनु💐💐

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