किसी की मुस्कुराहटों पर हो निसार /किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार .. जीना इसी का नाम है |मासूम कहानी पढ़ते हुए सबसे पहले ये गीत ही जेहन में आया | कितने गरीब मासूम बच्चे सड़क पर रेस्तरा में ,आइसक्रीम , चाट के ठेलों के आस -पास खड़े मिल जाते हैं |क्या हम उनके लिए कुछ करते हैं ? अगर हम सब जरा सा सहयोग कर दें तो ना जाने कितने मासूमों की जिंदगी बदल जाए | आइए पढ़ें एक प्रेरणा दायक कहानी
मासूम
स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो सामान उठाने के लिए कोई भी कुली नहीं दिखा। जब कि डिब्बे के साथ – साथ कुली दौड़ते रहते हैं, जब तक गाड़ी रुक नहीं जाती। पता चला कि कुलियों की हड़ताल है।किसी तरह सामान डिब्बे से खींचकर बाहर निकाला।
इस शहर में करीब बारह वर्षों पश्चात् पति का प्रमोशन पर पुनः तबादला हुआ था। वह पहले ही यहाँ आ चुके थे। मैं उनके लेने आने का इन्तज़ार करने लगी । तभी सामने से एक लड़का आता दिखा। उसने कहा, ‘शायद आप किसी का इन्तजार कर रही हैं? चलिए,मैं सामने वाले स्टाॅल तक आपका सामान ले चलता हूँ , तब तक आप वहीं पर बैठिए।मैं आपका सामान बाहर तक पहुँचा दूँगा।’ मैने उसे संशय की दृष्टि से देखा। दूर – दूर तक कोई कुली दिखाई नहीं पड़ रहा था। मरता क्या न करता? ‘ठीक है’,मैंने कहा। उसने सामान उठा लिया और पास ही सामने वाले चाय के स्टाॅल के पास जाकर रख दिया। वहाँ पर रक्खी कुर्सी बैठने के लिए खींच दी। मै बैठ गई। उसने स्टाॅल पर खड़े लड़के से चाय लेकर मेरी ओर बढ़ा दी। मैंने चाय उसके हाथ से ले ली। सच कहूँ तो सफर से थक गई थी।चाय पीने की इच्छा भी हो रही थी। मैं उसे चाय के पैसे देने लगी किन्तु उसने लेने से इन्कार कर दिया। ‘आपने मुझे पहचाना नहीं पर मैंने आपको पहचान लिया है। ‘बारह साल पहले …. आइसक्रीम काॅर्नर पर ‘….. उसकी आँखें छलछला आईं थीं ।
उस ‘ आइसक्रीम कार्नर ‘ के ऊपर स्टेशनरी की दूकान धी।एक दिन जब लोग आइसक्रीम खा रहे थे और वह लड़का दौड़-दौड़ कर कप चाट रहा था, बच्चों की पढ़ाई से सम्बन्थित कुछ सामान लेने के लिए मेरे पति ने मुझसे ऊपर चलने को कहा।मैं नहीं जाना चाहती थी। यह जानकर कि मैं सीढ़ियाँ नहीं चढ़ना चाहती, वह बच्चों को लेकर ऊपर चले गए। मैं कुछ देर तक उस बच्चे को देखती रही। फिर किसी अनजान अन्तःप्रेरणावश मैंने उसे इशारे से पास आने के लिए कहा । वह आ गया। मैं पर्स खोल कर उसमे से उतने रुपये ढूँढने की कोशिश कर रही थी जिससे वह आइसक्रीम खरीद कर भरपेट खा सके। तभी मेरी निगाह ऊपर पड़ी। पति और बच्चे सामान लेकर दूकान से बाहर निकल रहे थे । पता नहीं क्यों , मै नहीं चाहती थी कि यह मुझे इस बच्चे को कुछ देते हुए देखें। खुले रूपये ढूँढ नहीं पा रही थी। मैंने घबराहट में सौ-सौ के नोट , जो आपस में लिपटे हुए थे , उसे दे दिए। मुझे नहीं पता कि उसमे सौ के कितने नोट थे। मैं मुँह फेर कर खड़ी हो गई और बच्चों को सीढ़ी से उतर कर आते हुए देखने लगी।
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बेहद खूबसूरत रचना ।बडी प्रेरणा देती
Wow beautifuly writen di.