जिंदगी क्या है ? पाप और पुण्य का लेखा -जोखा, चित्रगुप्त की वो डायरी जिसके अनुसार हमें स्वर्ग -नर्क या अगला जन्म मिलता है | या डाटा फ्लो डायग्राम – जिसमें हम बार- बार ऐसे निर्णायक मोड पर खड़े होते हैं | जहाँ हम एक फैसले से अपनी आगे की जिंदगी की दिशा तय करते हैं | स्टीव जॉब्स ने एक बार कहा था कि अगर आप अपनी जिंदगी के चित्र को पीछे की डॉटस मिलाते हुए बनाएंगे तो आप को पता चल जाएगा कि आज आप जहाँ हैं वो क्या -क्या करने या नहीं करने के कारण हैं | ये कहानी पाप -पुण्य की अवधारणा को इसी जन्म में किये गए कामों का फल बताती है | बिलकुल क्रिया की प्रतिक्रिया की तरह | जहाँ हम मुख्य घटनाओं को नहीं उनके परिणामों को बदल सकते हैं | आइए पढ़ें सशक्त रचनाकार श्रद्धा थवाईत की आध्यात्मिक टच लिए बेहतरीन कहानी ….
डाटा फ्लो डायग्राम है जिंदगी
कितनी सुन्दर है ये सड़क! सड़क के दोनों ओर गुलमोहर छाये हुए हैं। नीचे काली सड़क पर बिछी गुलमोहर की लाल पंखुडियां और ऊपर गुलमोहर का हरा-लाल शामियाना। मन को एक सुकून सा मिलता है, इस सड़क पर सैर से। दिन भर की दौड़-भाग भरी पुलिस की नौकरी में यह सुकून ही मेरी नियमित सैर का राज है। इस पर चलते हुए मैं अक्सर अपनी जिंदगी का सिंहावलोकन करने लगता हूँ।
कल ऑफिस में मुझसे मिलने निखिल आये थे। उनसे मिलने के बाद से मेरा मन कई प्रश्नों से मुठभेड़ में लगा हुआ है।
‘हमारी जिंदगी कौन बनाता है?’
रगों में बहती बात तो यही है, ईश्वर सबकी जिंदगी की स्क्रिप्ट पहले से लिख कर रखते हैं। यदि हां तो फिर ये क्यों कहते हैं, कि मरने के बाद कोई चित्रगुप्त हैं, जो जिंदगी में किये कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं, और इन्हीं कर्मों के आधार पर लोगों को स्वर्ग या नरक में भेजते हैं। कुछ अजीब नहीं है यह? जिंदगी की कहानी लिखी भी ईश्वर ने, फिर अपने ही एजेंट से इसकी एकाउंटिंग भी करा दी, और फिर ऑडिट भी, जबकि सब कुछ पहले से तय है, तो क्या स्वर्ग और नर्क के लिए फिक्सिंग है नहीं है ये?
अच्छा तब क्या, जब कोई ना माने कि ईश्वर होता है तो? तो कौन कहता है यह कहानी? कौन लाता है निर्णय की परिस्थिति? रगों में बहती बात छोड़ दूँ तो मेरे तार्किक दिमाग के आधार पर हम जिंदगी मेहनत और कर्मों के तानों-बानों से खुद बुनते हैं। तो सच क्या है? पहले जिंदगी की कहानी लिखी गई, या पहले जिंदगी जी गई, कि किश्तों में लिखी जाती है जिंदगी की कहानी.
इस हरियाले शामियाने में मन के प्रश्नों के इस ऑक्सीजन सिलेंडर ने मुझे यादों के सागर में गहरे उतार दिया है। निखिल से जुडी यादें जेहन में कौंध रही हैं। जिनके साथ मैं अपने इन प्रश्नों के, किसी नायाब मोती से उत्तर की खोज में गोते लगाये जा रहा हूँ।
तब मैं बिलासपुर में पुलिस अधीक्षक था। नयी-नयी नौकरी थी। दुनिया बदल देने का, समाज के लिए कुछ कर गुजरने का जूनून था। मैं हर सप्ताह सोमवार को पुलिस ग्राउंड में, कभी शामियाना लगाकर, तो कभी नीम के पेड़ के नीचे, अपनी टेबल-कुर्सी लगवा कर बैठ जाता। ये मेरा जनता दरबार होता। जिसमें हर वो आम आदमी जो मुझसे मिलना चाहता हो, आकर मिल सकता था। कार्यालय के औपचारिक माहौल से दूर होने के कारण शायद बाकी दिनों की अपेक्षा सोमवार को मिलने वालों की भीड़ बहुत ज्यादा होती।
वे ठण्ड के दिन थे, जब नीम के नीचे मेरा जनता दरबार सजा हुआ था. उस सोमवार वह मेरे सामने आ खड़ा हुआ। उम्र ज्यादा नहीं थी, लेकिन वह सिर्फ हड्डियों का ढांचा भर था; जैसे किसी ने उसकी त्वचा के नीचे सक्शन पम्प लगा कर सारी चर्बी निकाल ली हो। सिर्फ हड्डियाँ और चमड़ी बची रह गई हो। मैंने एक नजर में उसे स्कैन कर लिया। स्कैनिंग जो हमारे प्रशिक्षण का हिस्सा होती है, जो हमारी रग-रग में बसी होती है। किसी आदमी को देख कर ही मैं बता सकता हूँ कि इस धरती पुत्र के पेट में बारूदी सुरंगें दबी हुई हैं या नहीं।
खैर उस दिन दिनेश कुछ तुड़ा-मुड़ा सा कागज पकड़े हुए था। उसने आकर हिचकते हुए दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया और कहा,
“साहेब एक अर्जी हे साहेब।”
“हां कहो।” मैंने मेरी आवाज का हिस्सा बन चुकी रौबीली संवेदनशीलता से कहा,
“साहेब! मोर संपत्ति कुरुक हो गिस हे। साहेब! आप ले बिनती हे, के आप ओला छुड़ा देवा, साहेब! हमर करा रहे बर भी जघा नई हे।” उसकी आवाज में कातरता थी.
“क्यों कुर्क हो गया ही तुम्हारा घर? कुछ कागज है तुम्हारे पास? दिखाओ।” मैंने पूरा मामला समझने के लिए अभिलेख देखने चाहे।
उस हड्डी के ढांचे में हरकत हुई। तुड़े-मुड़े दो पर्चे अब मेरे हाथ में थे। एक पर्चे पर दिनेश का कुर्की ख़त्म करने आवेदन था, तो एक में कोर्ट का कुर्की का आदेश।
आदेश को मैंने ध्यान से देखा। कोर्ट के आदेश पर ही कुर्की हुई थी।
“ये कुर्की क्यों हुई है?”
“साहेब में एक बरस तक घर के भाड़ा नई दे सकें, एकरे बर मकान मालिक ह मोर सम्पति कुरुक करा दिस।” उसकी आवाज में सच्चाई थी।
उसने किराया जमा नहीं किया था। कोर्ट के आदेश से कुर्की हुई थी। इसमें सब कुछ नियमानुसार ही था, इसलिए इसमें मेरे करने लायक कुछ नहीं था. मैंने यह बताते हुए उसे जाने का इशारा कर दिया, लेकिन वह जर्जर ढांचा कहता रहा,
“साहेब! बिनती हे साहब! मोर संपति ले कुरुकी के आदेश हटवा देवा साहेब। ईसवर आपके भला करही साहेब। बिनती हे साहेब!”
मैंने एक सिपाही को उसे सारी बात समझा देने के लिए कहा। सिपाही उसे समझाने के लिये दूर ले जाने लगा, लेकिन वह मुड़ मुड़ कर मुझ से कहने लगा,
“साहेब! बिनती हे, आप बस पांच मिनिट मोर बात सुन लेवा.” उसकी आवाज में दीनता थी, जिससे मेरा मन कुछ पिघल सा गया. मैंने कहा,
“पांच मिनट क्या, तुम दस मिनट अपनी बात कहो; कहो क्या कहना है?”
उसने भीड़ की तरफ देख किसी को पास आने का इशारा किया। एक मुंह बाँधी हुई वृद्धा और एक लड़की उसके पास आ कर खड़े हो गए। उनकी ओर इशारा करते हुए अब जो उसने कहा, वो सुन कर वहां मौजूद सभी का दिल सचमुच लरज उठा। आज भी वो आवाज कभी-कभी मेरे कानों में जस की तस गूंजती है।
“साहेब मोला कैंसर हे, ए मोर माँ हे एहू ला कैंसर हे, ए मोर छोटे बहिन हे । में घर में अकेल्ला कमईया हों, अउ ए कईन्सर के कारन बार-बार छुट्टी लेहे बर परथे, अउ इलाज में खरचा भी बहुत हे, एकरे कारन से में मकान मालिक ला पाछू एक बरस ले भाड़ा नई दे सके रहेंव, त मकान मालिक हर मोर संपति कुरुक करा दिस। साहेब बीस दिन ले हमन परछी म रहत हन। आस-पड़ोस के मन जो दे देत हें, ओ खात हन।”
जब दिनेश(सालों बाद अब भी यह नाम याद है मुझे) यह सब कह रहा था, तब उसकी माँ ने मुंह में बंधा रुमाल निकाल दिया। उसके होंठों के आसपास चार-पांच लगभग ठोड़ी तक लम्बे मस्से निकले हुए थे। ये मस्से उसकी साँस लेने की हलकी सी हलचल से भी हिल रहे थे। यह देख कर चोर-डाकुओं से आये-दिन सामना करने वाला, चम्बल के बीहड़ों में घुस उस खूंखार डाकू को धर-पकड़ने वाला मेरा दिल भी दहल गया, लेकिन नियम कानून की दुनिया में दिल का क्या काम। मैंने कोर्ट का कुर्की का आदेश फिर देखा। तभी एक संभावना का जुगनू दिखा- कोर्ट का यह आदेश एकपक्षीय था, दिनेश का पक्ष कोर्ट में रखा ही नहीं गया था।
उधर दिनेश ने आगे कहा,
“साहेब हर महिना के दू हजार के हिसाब ले एक बरस के चोबीस हजार भाड़ा होथे। मकान मालिक बियाज घलौको ले ले, त हद ले हद तीस हजार रुपिया बनथे, अउ ओ हर मोर दू लाख के संपति कुरुक करा दिस हे।”
“दो लाख की कैसे?” काली अंधियारी रात में जुगनू की चमक बढ़ कर एक दिए की चमक सी दिखने लगी। दुनिया में कभी-कभी जो दिखता है, वही सही नहीं होता। कभी-कभी सत्य धरती की परतों के अन्दर छुपा बैठा होता है, हीरे की तरह; या अंकुर की तरह किसी बीज के अन्दर; कभी बर्फ सा पानी में डूबा होता है।
“साहेब घर मा माँ के पांच तोला के सोन के गहिना हे, मोर मोटरसायकिल हे, टीवी, फिरिज अउ घर के बाकी के समान हे। ए सब के कीमत दू लाख ले उपरेच होही। साहेब मोर बिनती हे के कोरट मकान मालिक के तीस हजार लेहे, अउ हमर बाकी के समान ल वापिस कर देवे।”
दिनेश की बात सही थी, मानवता भी यही कहती थी, लेकिन कोर्ट का कुर्की का आदेश था। मैं सोच में पड़ गया। यूँ तो एक पुलिस अधीक्षक के बतौर मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती थी, लेकिन मानव और सक्षम मानव होने के नाते ऐसे मामलों में हमेशा मुझे अपनी जिम्मेदारी महसूस होती रही है। मैं अपनी इस जिम्मेदारी को पूरा भी करना चाहता था।
मैंने उसे थोड़ी देर इन्जार करने कहा। अपने एक टी.आई. निखिल को बुलवाया, जो एक अच्छा टी.आई होने से पहले एक अच्छा इंसान था। उसे दिनेश से मिलाते हुए कहा,
“ये दिनेश है। इसकी संपत्ति कुर्क हो गई है। इससे सारी बातें समझ लो और फिर देखो क्या कुछ हो सकता है, इसकी संपत्ति वापस दिलाने के लिए कुछ करो।”
निखिल उन लोगों को लेकर चला गया, लेकिंन कुछ ही देर बाद वह फिर वापस आया। उसने भी वही बात कही,
“सर! इस मामले में तो कुछ नहीं हो सकता। इसमें तो कोर्ट का आर्डर हो चुका है।”
मैंने कुछ पल तक निखिल को गहरी नज़रों से देखते हुए कहा,
“मुझे पता है निखिल, लेकिन कभी-कभी चीजों को सिर्फ क्षैतिज या लम्बवत नजर से देखने के बजाय उन्हें तिर्यक नजर से भी देखा जाना चाहिए। नियमानुसार इसमें कुछ नहीं किया जा सकता, लेकिन तुम्हें कुछ करना है। तुम ये देखो कि कोर्ट का निर्णय एक पक्षीय है। ये हालत के मारे हैं। इनके पास पैसा नहीं है। ये वकील नहीं कर सके हैं। ऐसा करो तुम अपनी तरफ से एक वकील रखो और कोर्ट में फिर से अपील करवाओ।”
निखिल को सब कुछ समझ आ गया। उसने अपने संपर्क का उपयोग कर ऐसा ही किया। कोर्ट ने उसके वकील के तर्कों से सहमत होकर, उनके सामान से तीस हजार के सामान जब्त कर, कुर्की ख़त्म करने का आदेश दे दिया। उन्हें उनका सामान मिल गया।
आज सोचता हूँ तो पता हूँ कि इस वक्त निखिल के पास दो विकल्प थे-
या तो वह उनकी मदद के लिए दिल से कोशिश कर सकता था,
या सरकारी लालफीताशाही में इसे टाल सकता था।
जैसे उसकी जिंदगी का कंप्यूटर प्रोग्राम अपने डाटा फ्लो डायग्राम के एक कंडीशनल लूप में ठिठका खड़ा था, उसे निखिल के विकल्प चुनने के निर्णय का इन्तजार था।
दिनेश और उसके परिवार की मदद की शुरूवात तो निखिल ने सिर्फ मेरे चाहने पर की थी, पर ये उसके अन्दर का सच्चा मानव था, जिसने आगे बढ़ कर राह बनाई। क्या होता यदि निखिल ने दिल से उस परिवार की मदद की कोशिश नहीं की होती तो?
खैर निखिल ने दिल से मदद की। इस प्रकरण से मुझे और निखिल दोनों को ही पुलिस की आपाधापी भरी जिंदगी में चुटकी भर सुकून मिला। ऐसा सोने सा बेशकीमती सुकून जो सिर्फ वैयक्तिक नहीं होता, अपितु जनता में भी व्यवस्था में विश्वास बनाये रखने का कारण बनता है।
मेरी निखिल और दिनेश की जिंदगी की यह एक कहानी यहीं इस सुकून के साथ ख़त्म हो सकती थी। तब मैंने यही सोचा था, कि पिछले जन्म में दिनेश ने निखिल के लिए कुछ किया होगा। चित्र गुप्त के लेखे में इसके समायोजन के लिए इस जन्म में निखिल से दिनेश की मदद कराई गई । मैं निमित्त बना, लेकिन जिन्दगी की कहानी इतनी आसान तो नहीं होती। यह कहानी भी यहीं ख़त्म नहीं हुई। शायद उसे बताना था कि सब कुछ यहीं है, इसी जन्म में है। कोई जिंदगी जैसी होती है, वैसे क्यों होती है?
उस रोज तेज वर्षा हो रही थी। बादल जैसे आतिशबाजी पर उतर आये थे। लगातार बिजली चमक रही थी। बिजली की लपक एक-एक बार हाथों की पहुँच तक आती महसूस हो रही थी, लेकिन महसूस होना अलग होता है, और होना अलग।
कई बार स्टेशन में भीख मांगते, नशे में पड़ते बच्चों को देख कुछ पुलिस वाले द्रवित हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि काश वे इन बच्चों को इस स्थिति से उबार सकते, इसके लिए वे कुछ सुधार कार्यक्रम भी जनता पुलिस के रूप में चला देते हैं, लेकिन ऐसे में यदि कोई बच्चा किसी सिपाही के साथ जाने के लिये उसका हाथ ही पकड़ ले तो?
उस दिन मेरे कार्यालय में भी ऐसा ही, न देखा, न सुना गया बच्चा- ‘दिनेश’ आ गया । उसे देख कर शासन तंत्र के भीषण ताप से सूखता मेरे दिल का एक कोना हरिया गया । मैंने इस पौधे को पानी दिया है, इसे जिलाया है। मेरे मन में सुकून था। मुझे लगा कि वह जरूर मुझे धन्यवाद कहने आया होगा,
उसके आते ही मैंने उसे बधाई दी,
“दिनेश! तुम्हारा काम तो हो गया। तुम्हें बहुत-बहुत बधाई।“
वह आभार में दोहरा सा हो गया।
“धनबाद साहेब! सब्ब आपके कारन हो सकिस, साहेब ।”
मैंने उसके आभार पर वही कहा जो मुझे कहना था।
“मेरे कारण नहीं दिनेश। सब करने वाला तो ईश्वर है। मैं तो उसका निमित्त मात्र था। मैंने कुछ नहीं किया है। तुम्हें धन्यवाद कहना है, तो ईश्वर को कहो।”
मेरी इस बात के जवाब में उसने कुछ नहीं कहा। उसके चेहरे में हिचकिचाहटों की बेल फैली हुई थी। जो हर गुजरते पल के साथ घनी होती जा रही थी । शीघ्र ही उस बेल से एक कली फूटी,
“साहेब एक अरजी अउ हे साहेब ।”
बेल में फल लग रहे थे ।
वह फिर मेरे सामने अर्जी लेकर हाजिर था, लेकिन अब तो उसका काम हो चुका था, फिर क्यों? मुझे तो कभी सपने में भी अहसास नहीं था कि, कभी मुझे ऐसी अर्जी भी मिल सकती है। यही तो है जिंदगी जो एक पल में एकदम अचंभित कर देती है। उसने कहा,
“साहेब में आपला बताए रहें, के मोला कईन्सर हे, मोर माँ ला भी कईन्सर हे। साहेब महिना भर में में मर जाहू, मोर माँ भी कुछ महिना मा मर जाही। साहेब मोर बहिनी अभी बाचे रही। साहेब अब मोर एके बिनती हे। साहेब में ओला आप के भरोस छोड़त हों। आप ओला सम्भाल लिहा।”
हिचकिचाहट की बेल अब सूख चुकी थी। उसके चेहरे पर अब तूफ़ान गुजर जाने के बाद की शांति थी।
वह तूफान अब मेरे दिल में प्रचंड चक्रवात बन डोल रहा था। मैं एकदम हिल गया। वह लड़की अठारह-उन्नीस साल की थी। यह एक तिल-तिल मरते आदमी की इच्छा थी। मुझ पर विश्वास किया था उसने। मैं उसका कोई नहीं था फिर भी। ठीक है यह काम मेरे काम से अलग था, लेकिन एक मानव के काम से तो अलग नहीं था। एक मरते आदमी को सुकून देना चाहा था मैंने।
मैंने हां कह दिया. वह मूसलाधार बरसते पानी में ही चेहरे पर अनोखी शांति लिए वापस चला गया। मैंने फिर निखिल को ही याद किया, और उस लड़की की जिम्मेदारी उसे सौंप दी। सच में वह आदमी कुछ ही दिनों में मर गया। उसकी माँ भी छः महीने बाद मर गई।
जब निखिल मुझे उसकी माँ की मृत्यु की खबर देने पहुंचा, तब मुझे शिद्दत से अहसास हुआ, कि अब वह लड़की दुनिया में अकेली है, उस लड़की की जिम्मेदारी अब मेरी है। उस लड़की को आर्थिक रूप से स्वावलंबी कर देने पर वह अपनी देखभाल खुद ही कर सकती थी। इसके लिए मैंने एक राह सोच ली। मैंने निखिल से पूछा,
“अभी कहाँ है वह लड़की. अब उस लड़की का क्या इंतजाम करोगे।”
मेरे इस प्रश्न का जो जवाब मिला, वह अप्रत्याशित ही था। निखिल ने कहा,
“सर! वह अपने घर में ही है। मैंने उसे अपनी राखी बहन बना लिया है। अभी वह एक स्कूल में पढ़ा रही है लेकिन सर एक बुरी खबर यह है कि उसे भी कैंसर हो गया है. ।”
यह सुन मैं कुछ पल ठिठका रहा, जिंदगी ये क्या लिख रही है? ठीक है निखिल ने अब तक मदद की थी लेकिन हमारे समाज में सिर्फ मानवीयता के नाते एक लड़की की लम्बे समय तक कोई मदद भी नहीं कर सकता। इस बात ने मुझे रास्ता खोजने विवश किया। मैंने कहा,
“एक काम करो उसे अपने ही थाने में दैनिक वेतन भोगी के किसी पद में रख लो।”
यह कह मैंने खुद के सर से जिम्मेदारी हल्की होती महसूस की। जी सर कह निखिल चला गया। इससे एक बात तो तय हो गई कि, निखिल ने वास्तव में दिल से मदद की थी सिर्फ खानापूर्ति नहीं. यदि निखिल ने सिर्फ इसे एक सीनियर का आदेश मान मात्र खानापूर्ति की होती तो?
कुछ ही दिन में मेरा भी स्थानांतरण हो गया। नयी जगह, नये अपराध, नयी जिम्मेदारियां। मैं उस लड़की को भूल ही गया। कुछ सालों बाद फिर मेरा स्थानांतरण राजधानी में हो गया। जब निखिल किसी काम से राजधानी आया, तो मुझसे मिलने आया। मुझे उस लड़की की भूली-बिसरी याद फिर आई,
“निखिल वो लड़की जिसके माँ और भाई को कैंसर था; बाद में उसे भी कैंसर हो गया था; अब कहाँ है? कुछ पता है?”
लेकिन निखिल के लिए ये कोई याद नहीं थी,
“सर! वो वहीँ के एक सरकारी स्कूल में शिक्षाकर्मी हो गई है।”
निखिल के आँखों में एक चमक थी, जो किसी अपने के बारे में बात करने पर ही चेहरे की जमीन पर उगती है।
“अब भी मिलना होता है उससे, या नहीं?” मैंने इस चमक का राज जानने पूछा, लेकिन जवाब से जिंदगी ने फिर मुझे अचंभित छोड़ दिया। वो रिश्ता अब भी निभ रहा था। निखिल ने कहा,
“जी सर! मैंने बताया था न आपको, कि मैंने उसे अपनी बहन बना लिया है। मेरी कोई बहन नहीं थी सर। अब भी वह हर रक्षाबंधन में मुझे राखी बांधने घर आती है। मेरे बेटे का नामकरण भी बुआ होने के नाते उसी ने किया। मैं हमेशा से आपको धन्यवाद देना चाहता था, कि आपने मुझे एक बहन दे दी, सर!”
निखिल की आवाज में कृतज्ञता झलक रही थी। अब तक निखिल को मैंने हमेशा एक अधीनस्थ की नजर से ही देखा था। उस दिन पहली बार मैं उसे सम्मान की नजर से देख रहा था। ऐसे ही कभी-कभार मिलते हुए समय बीतता गया.
कुछ सालों बाद निखिल ने बताया कि उस लड़की की तबियत बहुत बिगड़ गई थी। अंतिम समय में उसकी देखरेख के लिए निखिल ने एक केयर टेकर रख दी थी। निखिल और उसकी पत्नी खुद ही उसे अस्पताल ले जाते, उसकी देखभाल भी करते। निखिल को उस लड़की की जिम्मेदारी सौंपने के लगभग छः सालों बाद उस लड़की की भी कैंसर से मौत हो गई। निखिल ने यह भी बताया कि मौत के बाद जरुर उसके रिश्तेदारों का जन्म हो गया था।
ब्रम्हांड में सूरज, तारे, पृथ्वी सब गोल घूमते रहते हैं। इनके साथ समय का पहिया भी घूमता रहता है। हमारी जिंदगी इस समय के पहियों पर सवार हो अपनी अनिवार्य, अंतिम मंजिल की ओर बढती जाती है। इस सफ़र में निखिल भी सब इंस्पेक्टर से इंस्पेक्टर से डी.एस.पी होते हुए अंततः एडिशनल एस.पी के पद से सेवानिवृत्त हो गया। तब तक मैं भी डायरेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस हो चुका था।
जब सेवानिवृत्ति के बाद निखिल मुझसे मिलने आया हुआ था, तब ही एक बड़ी कंपनी के डायरेक्टर भी मुझसे मिलने आये। वे अपनी कंपनी के लिए एक आई. जी. रैंक के सेवानिवृत्त अधिकारी की सेवा लेना चाहते थे। वे मुझसे इसके लिए नाम का सुझाव चाह रहे थे। उन्होंने आई.जी. रैंक का ऑफिसर चाहा था, लेकिन मेरे मुंह से निकला कि आप को कोई अच्छा पुलिस ऑफिसर चाहिए, तो ये बैठे हैं निखिल। अभी-अभी एडिशनल एस.पी की रैंक से सेवानिवृत्त हुए हैं। आप चाहे तो इन्हें बेझिझक अपनी कंपनी की सेवा के लिए ले सकते हैं। निखिल भी सेवानिवृत्ति के बाद भी काम करने के लिए तैयार थे।
मानों निखिल के निर्णय पर जिंदगी का आगे का डाटा फ्लो डायग्राम बनना था। यदि निखिल उस वक्त मेरे ऑफिस में नहीं आये होते तो ? यदि उसी वक्त कंपनी के डायरेक्टर मुझसे मिलने नहीं आये होते तो? शायद उन दोनों का एक ही वक्त में, मेरे ऑफिस में मिलना, निखिल के किसी पहले के कंडीशनल लूप में लिए गए निर्णय का नतीजा था।
उस दिन मेरे सामने ही दोनों ने एक-दूसरे के मोबाइल नंबर ले लिए। कुछ देर बाद हम तीनों की जिंदगी एक कंडीशनल लूप में मिलने के बाद अपनी-अपनी राह पर चल पड़ी।
दो-तीन महीने बाद निखिल फिर मुझसे मिलने आये। वे बेहद खुश थे। वे कहने लगे कि सर! जितनी सैलरी मुझे अपने पूरे सेवाकाल में नहीं मिली, उसकी चार गुनी सैलरी अभी मिल रही है। आप के ही कारण। आप की ही वजह से मुझे इंतनी अच्छी नौकरी मिल गयी। वरना मैंने तो ऐसा कुछ सोचा ही नहीं था। पेंशन भरोसे ही जिंदगी चलनी थी। आपको बहुत-बहुत धन्यवाद सर! धन्यवाद सर!
उस दिन निखिल बार-बार मुझे धन्यवाद कहते रहे, फिर कुछ देर बाद चले गए। इसके बाद लम्बे अरसे तक हमारा मिलना नहीं हुआ। आज मैं सोच रहा हूँ कि निखिल की जिंदगी की कहानी क्या होती यदि निखिल ने सेवानिवृत्ति के बाद नौकरी करने से मना कर दिया होता तो ? यदि निखिल ने वे निर्णय नहीं लिए होते, जो उसने लिए तो? तो क्या होता?
दिन बीतते गए। ब्रम्हांड कुछ और विस्तारित हो गया, कलयुग में बुराइयां कुछ और बढ़ गईं, लोगों का अच्छाई में विश्वास और कम हो गया। बीच में पता चला कि उनकी पत्नी को कैंसर हो गया है। इलाज चल रहा है। समय का जहाज जिंदगी के समुद्र पर चलता रहा। किसी का आसानी से, किसी का डोलता हुआ।
एक लम्बे अरसे बाद निखिल कल मुझसे मिलने आये। मैंने निखिल से कहा, “बहुत दिनों बाद आये आप.”
उसने लम्बे अरसे से नहीं मिलने का स्पष्टीकरण देते हुए कहा, “सर! मेरी पत्नी को कैंसर हो गया था, इसीलिए मैं उधर ही व्यस्त हो गया था.”
मैं जिंदगी के इस अजब खेल पर दुखी था, कि जिसने कैंसर पीडित की इतनी मदद की, भगवान ने उसकी ही पत्नी को कैंसर दे दिया। मैंने खुद को संभाल कर कहा,
“ओह! अब कैसी है तबियत?”
लेकिन जवाब में निखिल के चेहरे में दुःख नहीं एक अनोखा भाव देखा मैंने, जाने क्यों मुझे दिनेश याद आया, अपनी बहन की जिम्मेदारी मुझे सौंप कर जाता हुआ।
“जी सर! कैंसर काफी बढ़ गया था, लेकिन अब वे ठीक हो गई हैं।”
मैं उसके चेहरे के अनोखे भाव में गुम कह उठा, “चलो अंत भला तो सब भला, अब भी रेगुलर चेकअप कराते रहना।”
निखिल मेरी बात का जवाब देने की जगह कह उठे, “सर! कैंसर का पता उस स्टेज में चला जब इलाज तो था, लेकिन बहुत महंगा था। वो इलाज एक रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी के बस के बाहर की बात थी सर। अंतिम आशा के बतौर डॉक्टर ने मेरी पत्नी को जो इंजेक्शन लगाने को कहा, वो लाखों का एक इंजेक्शन था। ऐसे छः इंजेक्शन उन्हें लगे। उनके इलाज में लाखों लग गए.”
निखिल एक पल को चुप हो गए, जैसे अस्पताल के किसी पल में गुम हो गए हों। मैं चुप, क्या कहूँ? यह सोचता, उनका चेहरा देखता रहा, वह आगे कहने लगे,
“सर! यदि आपने मुझे ये नौकरी नहीं दिलाई होती, तो मैं इतना महंगा इलाज किसी भी तरह नहीं करा सकता था। मेरी पत्नी के इलाज का सारा पैसा कंपनी ने दिया। आपके ही कारण मैं अपनी पत्नी को बचा सका।”
वह मेरे प्रति लबालब भरा आभार छलकाता रहा, मैं भाग्यविधाता कौन है? सोचता रहा।
सोचता रहा कि यदि निखिल ने अपनी ओर से उस परिवार की मदद की कोशिश नहीं की होती, यदि निखिल ने सिर्फ इसे एक सीनियर का आदेश मान खानापूर्ति की होती, यदि निखिल ठीक उसी वक्त मेरे ऑफिस में नहीं आये होते, यदि उसी वक्त कंपनी के डायरेक्टर मुझसे मिलने नहीं आये होते, यदि निखिल ने सेवानिवृत्ति के बाद नौकरी करने से मना कर दिया होता, तो क्या होता? क्या तब भी निखिल अपनी पत्नी को कैंसर के शिकंजे से बचा पाते? इतने कंडीशनल लूप्स में यदि निखिल ने वे निर्णय नहीं लिए होते, जो उसने लिए तो क्या होता? लेकिन निखिल ने ये ही निर्णय लिये।
यूँ सोचते- घूमते हुए मेरे से ठीक एक कदम आगे गुलमोहर की तलवार सी एक फली गिरी। ये किसने तय किया कि ये फली मुझसे सिर्फ एक कदम आगे गिरेगी? यदि मैं एक कदम आगे बढ़ चुका होता तो?
इस सुकूनदायक शामियाने में अपनी जिंदगी की इन लहरों में तिरते हुए मैंने पाया कि यह तो बहुत पहले तय हो चुका रहा होगा, कि फली मुझ से एक कदम आगे गिरेगी। जिंदगी अच्छाई के बहुत से विकल्प देती है, उन विकल्पों के चयन का पुरस्कार भी देती है। यह अपना डाटा फ्लो डायग्राम बनाते हुए हर कदम पर कंडीशनल लूप्स में हमें आजमाती है। हर कंडीशनल लूप्स में हमारे पसंद किये गए विकल्प के अनुसार हमारी जिंदगी की कहानी बदल जाती है। इस डायग्राम में हमारे द्वारा अपनाये गए विकल्पों का लेखा-जोखा ही हमारी जिंदगी होती है।
इस गुलमोहर के कालीन पर चलते हुए यादों की सीपी से निकल कर आये, अच्छाई पर विश्वास के ये मोती मुझे और भी सुकून से भर रहे हैं। सुबह की सैर से वापस लौटते हुए, मैंने पलट कर देखा, तो ये लाल-हरा शामियाना मुझसे कहने लगा,
“कल हम फिर आपके साथ होंगे एक नए सुकून की राह में।”
दरअसल निखिल ने अपनी पत्नी को बचाने की जिंदगी की किश्त तब ही लिख ली थी, जब उसने सच्चे दिल से दिनेश की, उसकी बहन की मदद की थी कि हमारे कर्म ही लिखते हैं हमारी ज़िन्दगी की कहानी.
श्रद्धा थवाईत
परिचय-
श्रध्दा थवाईत, रायपुर, छत्तीसगढ़,
भारतीय ज्ञानपीठ से कहानी संग्रह ‘हवा में फड़फड़ाती चिट्ठी’ प्रकाशित।
विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं जैसे कथादेश, नया ज्ञानोदय, परिकथा, दैनिक जागरण , वागर्थ आदि में
कहानियाँ प्रकाशित, भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार २०१६ प्राप्त एवं साहित्य अमृत युवा हिंदी
कहानीकार प्रतियोगिता २०१५ में प्रथम स्थान प्राप्त।
ई-मेल- shraddhathawait@gmail.com
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कहानी दिल दिमाग पर छा गई। कभी नहीं भूल सकती। श्रद्धा जी की प्रशंसा के लिए शब्द नहीं है। अटूट बंधन का आभार,ऐसी रचना से रूबरू कराने के लिए।