छतरी

 

दफ़्तर से मिल नहीं रही छुट्टी वगर्ना मैं /बारिश की एक बूँद बे-कार जाने दूँ .. अजहर फराग जी के इस शेर में बारिश की खूबसूरती छिपी है | सच ! बारिश  होते ही दिल बच्चा हो जाना चाहता है | वो पानी में भीगना, छप -छप करना कागज की नाव .. आह | पर एक उम्र बाद लड़कियाँ बारिश से परहेज करने लगती हैं | कपड़ों का  बदन से चिपक जाना और आस -पास घूरती नजरें, उन्हें चाहिए होती है एक छतरी | जिसके नीचे वो महफूज रह सकें | धीरे -धीरे जीवन में छतरियाँ बढ़ती जाती है | एक संघर्ष शुरू होता है इन छतरियों को पाने का, और जीवंतता खो जाने का | “छतरी” एक प्रतीकात्मक बिम्ब के साथ स्त्री जीवन की तमाम विद्रूपताओं पर गहरा प्रहार करती है, तो रास्ता भी दिखाती है |  आईये बारिश के मौसम में  पढ़ें डॉ. ज्योत्सना मिश्रा जी की एक खूबसूरत  कहानी 

छतरी 

 

                                वो रोज शाम पांच बजे लौटती ,धूप हो या सर्दी या बरसात । नहीं बरसात नहीं इस मौसम में कभी कभी देर हो जाती । बारिश कभी कभी जैसे उसके निकलने के समय की प्रतीक्षा में रहती और उसे अक्सर गेट की छतरी के नीचे खड़े इंतजार करना होता ,सब लोग निकल जाते साहब अपनी गाड़ी से और बाकी सब अपनी छतरियों के नीचे ।

छतरी उसे भी खरीदनी है ,ऐसा नहीं कि छतरी खरीदने को पति से उसने कहा नहीं ,कहा तो अप्रैल के शुरू में ही था कि अभी धूप से बचेगी फिर बारिश से । लेकिन बात आई गई हो गई ।
कहा आषाढ़ में भी था पर आजकल करते पूरा महीना बीत गया और सावन में तो सिवाय हल्की फुहार के बरसात हुई ही नहीं
पति ने भी कहा इस बार तो सीज़न बीत ही गया ,अब छतरी क्या लेना, अगले साल ले लेना
उसका बड़ा मन था कि जब छतरी ले तो सुन्दर रंगों वाली फ्रिल लगी ले जिसे समेटो तो कलाई भर की हो जाये और खटका दबाते ही आकाश सी फैल जाये

छतरी

आफिस की सारी महिला साथी पर्स में ही रख लेती थीं ऐसी छतरियां ।
अगले साल जरूर लेगी बस यह भादों पार हो जाये ।यह महीना तो जैसे पूरे चौमासे का हिसाब चुकाने पर लगा था रोज इतनी तेज , नकली लगने वाली बारिश जैसी फिल्मों में होती है ।
वो ऊब चूभ करती गार्ड के केबिन के बाहर खड़ी रहती और बारिश थमने का नाम न लेती ।उसे पति पर बहुत गुस्सा आता कि उसकी ज़रूरत की चीज़ो पर हमेशा टाल कर देते हैं ।
उसके घर में रिवाज़ था कि सभी अपनी तनख्वाह सासू मां को दे देते फिर जरूरत भर का वापस मिलता। उसे भी मिलता था दो तरफ का टैम्पो का किराया ।
आटोरिक्शा वाले पानी के छींटे उड़ाते उसके नज़दीक आ चिल्लाते, मैडम किधर जाना है ?
वो मन में ही पैसे गिनती जो बमुश्किल ग्रामीण सेवा टेम्पो के किराए भर के होते और न में जबाब दे देती।
बारिश नाराज़ हो और तेज हो जाती।कभी कभी उसकी आंखों में भी भर जाती ।
वो सड़क किनारे दुकानों के शेड के नीचे नीचे चल कर कुछ दूर जाती ,साड़ी के आंचल को सर से ले लेती और रैक्सीन का पर्स जोर से भींच कर तेज कदम से चौराहा पार करती ।
भीगने पर ज़ुखाम हो जायेगा इतना भर डर नहीं था। भीगे हुए कपड़े कई कई परत होकर भी पारदर्शी हो जाते, डर उसका था ।
सड़क पर लोगों की आंखें भी बारिशों में एक्स रे हो लेतीं हैं।छतरी की ओट होती तो और बात होती ।
आज तो बारिश इतनी तेज कि कोई रिक्शा भी नहीं दिख रहा ,आज कोई आटो वाला मिले तो वो बैठ ही जाती ,घर पहुंच कर पैसे दे देती
आकाश काला होकर डरा रहा था सड़क किनारे की नाली बीच तक पहुंच गयी थी ।
कब तक खड़ी रहेंगीं,हमारी छतरी ले जाइये कल लौटा देना !गार्ड भइया ने कहा ,पर कुछ देर में उनकी भी शिफ्ट बदलती उन्हें घर जाने में दिक्कत होगी यही सोच झिझक गई वो

सड़क पर भरे पानी में बूंदें घेरे बना रही थी उसने न जाने क्या सोचा पैर बढ़ा कर एक छल्ला छू दिया ,वो छल्ला उछल कर उसके पैर से लिपट गया। फिर उसने पर्स बगल में दबाया और पल्ला कमर पर खोंसा, साड़ी दोनो हाथों से उठाई और छप्प !
सड़क पानी के नीचे मुलायम नर्म मुस्कुराहट सी लगी वो उतरी और उतरी ,एक छप्प दो छप्प छप्प छप्प

सड़क पर बीचोबीच तेज बारिश में भीगती चलने लगी वो
वाहन अब तेजी से छींटें उड़ाते नहीं निकलते ,हार्न देते उसकी वहां मौज़ूदगी पर झुंझलाते पर उन्हें धीमा होना पड़ता ।
बारिश थोड़ी देर में ही उसकी सहेली बन गयी उसकी उंगलियों में पानी की उंगलियां फंसाये बरसात पोशम पा खेल रही थी ।
एक जगह एक बड़े से बरगद के पेड़ की शाखों ने बुलाया भी पर बारिश खिलखिलाती ,गुदगुदाती खींचती ले गयी ।

घर पहुंचते वो बिल्कुल भीग गई थी ,पल्ला अब भी खुंसा ही था। गीली साड़ी पैरों में लिपटी थी ।सिंदूर भीग कर गालों तक बह आया था ‌।
गीली चप्पलों सहित ,बालों से ,कपड़ो से टपकते पानी से बेपरवाह , बिना किसी हड़बड़ी के वो अपने कमरे में चली गयी।
बाहर सासू मां बड़बड़ा रहीं थीं ,बताओ छतरी नहीं तो हमसे कहा क्यों नहीं , शनिवार बाजार से ले आती ।

वो कमरे में भादों की बारिश की तरह गुनगुना रही थी…

वो किसे चाहिए? भाड़ में जाये छतरी …

डॉ . ज्योत्सना मिश्रा

ज्योत्सना मिश्रा

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3 thoughts on “छतरी”

  1. बहुत बढ़िया । ऐसा लगा मानो मैं वहीं सड़क पर बारिश में कहानी की नायिका के पास पहुँच गई हूँ।
    वाह! बहुत खूब ।

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