समकालीन कथाकारों में प्रज्ञा जी ने अपनी सशक्त और अलहदा पहचान बनाई है | उनके कथापत्रों में जहाँ एक ओर कमजोर दबे कुचले, शोषित वर्ग से लेकर मध्यम वर्ग और आज के हालातों से जूझते किरदार होते हैं तो दूसरी ओर वह मानवीय संवेदनाओं को जागृत कर अच्छे लोगों और अच्छाई पर भी विश्वास बनाये रखने की आशा रखती हैं | मानवीय संवेदनाओं के उठते गिरते ग्राफ में वो कुछ अच्छा, सुखद थाम लेती हैं |वास्तव में यही वो लम्हे हैं जिन्होंने तमाम विद्रूपताओं से भरे इस समय में आशा की डोर को थाम रखा है | प्रज्ञा जी की इन कहानियों की विशेषता है कि वो बिलकुल आम पात्रों को उठाती हैं और सहजता के साथ शिल्प के अलंकारिक आडंबरों से मुक्त होकर संवेदनाओं के स्तर पर उतर कर गहनता से कथा बुनती जाती हैं | समकाल पर कलम चालते हुए वो कोरी भावुकता में नहीं बहतीं बल्कि तटस्थ होकर आस-पास घटने वाली एक-एक घटना का सूक्ष्म अवलोकन करते हुए साक्षी भाव से कथारस के साथ उकेरती चलती हैं | पाठक पढ़ कर हतप्रभ होता चलता है, “हाँ ! ऐसा ही तो होता है | पर ऐसा ही होता है को लिखने के लिए जिस सूक्ष्म नजर से समाज की पड़ताल करनी पड़ती है | समाज के मनोभावों का ऐक्स रे करना होता है, वो अपने आप में एक पूरा शोध होता है | जिसे उकेरना इतना सहज नहीं है पर प्रज्ञा जी इसमें सिद्ध हस्त हैं |
स्त्री चरित्रों को उकेरते समय भी वो किसी विमर्श के दायरे में ना बांध कर समाज की कन्डीशनिंग की बात करती हैं | जिसके शिकार दोनों हैं | आपसी सहयोग और सम्मान ही सहअस्तित्व का आधार है, जिसकी उंगली पकड़ कर उनके पात्र एक सुंदर दुनिया की संभावना तलाशते हैं |
मालूशाही मेरा छलिया बुरांश -समकाल की नब्ज टटोलती सशक्त कहानियाँ
अभी हाल ही में प्रज्ञा जी का नया कहानी संग्रह “मालूशाही मेरा छलिया बुरांश” आया है | हर बार की तरह इस संग्रह की योजना भी उन्होंने बहुत सुचिन्तित तरीके से बनाई है | विषय में जहाँ समकाल की चिंताएँ हैं, तो प्रेम की फुहारें भी, एक अच्छे आदमी द्वारा अपने अंदर छिपे बुरे आदमी की शिनाख्त तो माटी से माटी होते हुए शरीर में नई आशा फूँक देने की कवायत भी | बहुत ही हौले से वो उस बाजार के दवाब और प्रलोभन की बात भी कह जाती हैं, जिसके पंजों की जकड़ में समझदार व्यक्ति भी फँस जाता है | आज जब हम उन्हीं विषयों को बार -बार अलग -अलग शिल्प में पढ़ते हैं, वहीं प्रज्ञा जी द्वारा लाए गए जीवन से जुड़े नए अनूठे विषय उन्हें कथाकारों की अलग पांत में खड़ा करते हैं | इस संग्रह में उन्होंने शिल्प के स्तर पर भी कुछ नए प्रयोग किये हैं जो आकर्षित करते हैं, पर उनसे कहानियों की भाषा की सरलता सहजता और प्रवाह की उनकी धारा अपने पूर्ववत वेग को नहीं बदलती |
पुस्तक की भूमिका “एक दुनिया जो हम चाहते हैं बने” में प्रज्ञा जी लिखती हैं, “मैंने इस संग्रह की कहानियों में अपने विवध वर्णी समय को अंकित करने का प्रयास किया है |समाज में जहाँ एक ओर मनुष्यता की विजय की कहानियाँ सामने आई हैं, वहीं कहीं ना कहीं ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्यता पूंजी और बाजार में कहीं सबसे सस्ती और अनुपयोगी हो गयी है | इसलिए मेरा प्रयास रहा है कि समय की कटुता के साथ मनुष्यता के भरोसे को जीवित रखने वाले कुछ किस्से आप के साथ साझा कर सकूँ |
प्रेम दुनिया की सबसे सुंदर शय है | दो लोग मन -प्राण से एकाकर हो जाएँ इस से सुंदर घटना कोई दूसरी नहीं हो सकती | पहाड़ों की सुरम्य वादियों में हवा की सुरीली घंटियों सी आज भी गूँजती है अब तक मालूशाही और राजुला की प्रेम कहानी, जिसने हर संघर्ष के बाद आखिरकार पा ही लिया उसे जिसे बार -बार छल से दूर किया जाता रहा |कहाँ राज परिवार का मालूशाही और कहाँ साधारण घरआने की राजुला | पर प्रेम ने कब मानी हैं दीवारें | वही प्रेम कहानी फिर उतरी उसी धरती पर अपनी पूरी सुगंध, पूरी तारतम्यता के साथ | सदाबहार बुरांश के फूलों के बीच फिर छल ने दस्तक दी पर मालूशाही फिर आया अपनी राजुला के पास | “जिन्हें एक सच्चे वचन ने बांध लिया | कयोकि निभाने के लिए एक वचन ही काफी है और ना निभाने के लिए सात सौ भी कम | छलिया फिर आया भेष बदल कर ..पर मन ने उसका छल माना कहाँ | लोककथा से आधुनिक प्रेम कथा को जोड़ती बुरांश के फूलों सी दहकती एक अलग तरह की प्रेम कहानी है वो कहानी पर जिसके ऊपर संग्रह का नाम रखा गया है यानि “मालूशाही मेरा छलिया बुरांश” |
“उसे तो पहाड़ की कहानियों को जिंदा रखना थ और कहानी के रास्ते हमारे प्यार को |”
कहानी “माटी का राग” एक ऐसी ही कहानी है जो जीवन को सकारात्मक नजरिये से देखने पर जोर देती है |
“चाक के पहिये पर दयाशंकर कुम्हार की मिट्टी में तर उँगलियाँ बड़ी कोमलता से नमूने गढ़ रही थीं।चाक की लय, उँगलियों की तान, मन के राग पर धीरे-धीरे आकार लेती कला
‘तुमसे हो न पाएगा ठाकुर जी महाराज… कहाँ धरती का सोना तैयार करने वाले तुम और कहाँ हम?’ दयाशंकर ने एक साँस में हुनर औरजात के समीकरण को खोलकर सामने रख दिया।
‘रिश्ता तो हम दोनों का ही माटी से ठहरा।’”
कहानी की ये पंक्तियाँ हैं सीधे पाठक के मन में उतरती हैं| किसान हो, कुम्हार हो या ये जीवन सब माटी पर निर्भर है| सारा जुगत है इस माटी को किसी सृजन में लगा देना | वो सृजन खेत खलिहानों में उगती फसल का हो सकता है, कला का हो सकता है या फिर स्वयं के जीवन को कोई सकारात्मक मोड़ देने का | राम अवतार की ये कहानी अनेक आयाम समेटे हुए है | चाहे वो धर्म के नाम पर जबरदस्ती वैमनस्यता हो, गाँवखेत छोड़कर कर शहरों की ओर भागते युवा हों |बुजुर्गों का अकेलापन हो|कहानी गाँव से शहर की ओर जाती है और फिर गाँव की ओर लौटती है |जैसा प्रज्ञा जी कहती हैं ..
“गाँव यानी हसन, सुख-दुख का सच्चा साथी। गाँव यानी वो जरा-सी जमीन जो हसन के खेत के संग लगी उसका आसरा थी। गाँव यानी गाँव के लोग, पुरानी दोस्तियाँ-सब कुछ”
कहानी शुरू होती है अस्पताल के एक दृश्य से जहाँ राम अवतार दंगों में घायल अपने मित्र हसन को देखने गया है | वो गाँव जहाँ हिन्दू -मुस्लिम भाई की तरह रहे कहाँ की हवा ना जाने क्यों इतनी विषाक्त हो गई कि दोनों एक दूसरे के घर उजाड़ने पर आमादा हो गये | छोटा सा कारण और विश्वास का एक मजबूत किला दरक गया |
अकेला निराश राम अवतार आहत है | अपने बेतरतीब घर में वो पुराने दिन याद करता है जब वो और उसकी पत्नी व तीन बच्चे एक खुशहाल जिंदगी जीते थे | पत्नी स्वर्ग सिधारी और बच्चे परदेश बस गए | अकेलेपन से जूझते पिता को बड़ा बेटा अपने साथ ले जाता है | पर शहर की आबोहवा उन्हें रास नहीं आती,गाँव उन्हें बुलाता है, वो लौटते हैं पर पहले वाले राम अवतार की तरह नहीं |
समय का चाक घूमता है और माटी तैयार होती है…कंपकपाती उँगलियाँ माटी को थामती हैं | माटी नए आकार लेती है |सृजन के, रिश्तों के और जीवन के और माटी का राग एक नई धुन पर बज उठता है | जीवन है तो दुख हैं,समस्याएँ हैं पर उन पर उन पर विलाप करते हुए जिंदगी नहीं काट देनी है .. उस माटी से नए आकार गढ़ने का प्रयास करना है |
कहानी गाँव के जीवन और वहाँ आ रहे बदलाव को भी रेखांकित करती है | भाषा हमेशा की तरह सहज सरल व प्रभावमयी है | कुछ आंचलिक शब्द व लॉक गीत प्रभावित करते हैं |
कहवां के कोहबर लाल गुलाल,
कहवां के कोहबर रतन जड़ाई
बाहर के कोहबर लाल गुलाल,
भीतर के कोहबर रतन जड़ाई’
एक सकारात्मक अंत के साथ ये कहानी अकेलेपन से जूझते हुए बुजुर्गों को एक सार्थक संदेश देती है |
संग्रह की बहुचर्चित पहली कहानी “बुरा आदमी” पढ़ते हुए मन -मक्षतिष्क में तीन बातों पर मंथन चलता रहा.. .
पहला- निदा फ़ाजली जी का शेर ..
हर आदमी में छिपे हैं दस बीस आदमी
जिसको भी देखना हो कई बार देखना |
दूसरा.. प्रभु श्री कृष्ण का गीता में कहना कि मन बेलगाम घोड़ों की तरह भागता है पर बुद्धि वो सारथी है जो उन पर लगाम लगा जीवन रथ को दिशा देती है |
तीसरा.. एक प्रसिद्द कहावत, “चिंता और चिता में केवल बिंदु मात्र का अंतर है”|
ये कहानी सोचने पर विवश करती है कि वो कौन सा बिंदु है जिस पर चिंता चिता बदल जाती है और एक आदमी किसी दूसरे आदमी में तब्दील होने लगता है या मन बेलगाम सा हो गलत दिशा में दौड़ने लगता है | और क्या ये अवश्यसंम्भावी है या इस तर्स्वीर का दूसरा पक्ष भी हो सकता है ?
ये कहानी भी एक ऐसे मध्यमवर्गीय व्यक्ति की कहानी है | जो दिल्ली शहर में नौकरी के लिए आया है | अकेला परिवार के बिना, नौकरी की जरूरतों के मुताबिक तीन प्रदेशों की सीमाओं के बीच भटकता निराश हताश सा बस नौकरी करने के लिए करे जा रहा है | उसका मानसिक द्वन्द दिल्ली में दूसरे प्रदेशों से आकर रहने वाले अनेकों मध्यमवर्गीय लोगों की कथा है जो एक अदद नौकरी को चलाये रखने के लिए मन और तन दोनों से जूझते रहते हैं |
कहानी के उत्तरार्द्ध में देर रात अपने घर की ओर जाने के जुगाड़ में लगा नायक एक ऐसी अँधेरी सड़क पर पहुँच जाता है जहाँ कोई नहीं है | उसके मोबाइल की बैटरी भी खत्म है | इस सुनसान वीराने स्थान में उसे फ्लाई ओवर के नीचे किसी के कराहने की आवाज़ आती है और वो उस दिशा में चल पड़ता है | वहां मिलती है उसे किशोर लड़की यशु जो ..
कहानी में क्या होता है ये तो आप कहानी पढ़ कर ही जानेंगे पर मुख्य बात है वो एक निर्णायक क्षण जहाँ एक अच्छा आदमी बुरे आदमी में बदल जाता है | यही वो क्षण है जहाँ वो अपने बेलगाम मन की लगाम बुद्धि के हाथों ले कर उस बुरे आदमी को शिकस्त दे सकता है |
आज जब हम बुरी नज़र और बुरी लोगों की कथाएं ज्यादा कहते सुनते हैं तो ये कहानी इस गहन विश्वास के साथ एक अलग दिशा में खड़ी नज़र आती है कि हर आदमी के अंदर एक बुरा आदमी छिपा है पर उसको काबू में रखने का विवेक भी उसी के पास है | विवेक के नियंत्रण से एक पल की फिसलन उसे बुरा या अच्छा बना देती है |
हमारे ही अंदर छिपे बुरे आदमी पर अच्छे आदमी की जीत के सकारात्मक अंत के साथ समाज को दिशा देती बेहतरीन कहानी है “बुरा आदमी” जो जगल में नाखूनों कए उग आना और चिड़िया का चह चहाना जैसे खूबसूरत बिंबों का प्रयोग करके कहानी के अंत की कलात्मक खूबसूरती को बढा देती हैं |
एक गंभीर दृष्टिकोण के साथ -साथ ये कहानी यशु जैसे बच्चों की बात भी उठाती है | किशोर उम्र के इन बच्चों के साथ मार-पीट समस्या का समाधान नहीं हो सकती | जरूरी ही उन्हें बात प्यार से समझाई जाए अन्यथा घातक परिणाम भी हो सकते हैं |
“फिडेलिटी डॉट कॉम” निजता में तकनीकी के घालमेल की सुंदर कहानी है |
कहते हैं शक की दवा को हकीम लुकमान के पास भी नहीं थी | यूँ तो ये भी कहा जाता है कि रिश्ते वही सच्चे और दूर तक साथ चलने वाले होते हैं जहाँ आपस में विश्वास हो और रिश्ते की जमीन पर शक का कीड़ा दूर -दूर तक ना रेंग रहा हो, पर रिश्तों में कभी न कभी शक आ ही जाता है,खासकर पति -पत्नी के रिश्ते में | लेकिन क्या ऐसा हो सकता है कि कोई जबरदस्ती शक आपके दिमाग में घुसा दे? ये काम करने वाला कोई जान -पहचान वाला नहीं है, बल्कि ऐसा हो जिससे आपका दूर -दूर तक नाता ही ना हो, और आप की शक मिजाजी में उसका फायदा हो | इंटरनेट की दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं हैं | ऐसी ही एक साईट है फिडेलिटी डॉट कॉम और यही है प्रज्ञा जी की कहानी का अलहदा विषय |
ये कहानी एक ऐसी लड़की विनीता के बारे में हैं, जो अपने कड़क मामाजी के अनुशासन में पली है | घर के अतरिक्त कहीं जाना, नौकरी करना उसे रास ही नहीं आता | विवाह के बाद उसके जीवन में एक बड़ा परिवर्तन होता है, जब उसे अपने पति सुबोध के साथ कोच्चि में रहना पड़ता | अनजान प्रदेश, अजनबी भाषा ऊपर से सुबोध के मार्केटिंग में होने के कारण बार -बार लगने वाले टूर | अकेलापन उसे घेरने लगता है, भाषा के अंतर के कारण लोगों से संवाद मुस्कुराहट से ऊपर जा नहीं पाता, और टीवी अब सुहाता नहीं | ऐसे में सुबोध उसे टैबलेट पर फेसबुक और इन्टरनेट की दुनिया से जोड़ देता है | उसके हाथ में तो जैसे खजाना लग जाता है …रिश्तों के विस्तृत संसार के बीच अब अकेलापन जैसे गुज़रे ज़माने की बात लगने लगती है | इंटरनेट की दुनिया में इस साईट से उस साईट को खंगालते हुए एक पॉप अप विज्ञापन पर उसकी निगाह टिकती है, ” क्या आपको अपने साथी पर पूरा भरोसा है ? क्या करते हैं आप के पति, जब काम पर बाहर जाते हैं ? क्या आप जानना चाहती हैं ? ना चाहते हुए भी वो उस पर क्लिक कर देती है | फिडेलिटी डॉट कॉम वेबसाईट का एक नया संसार उसके सामने खुलता है | जहाँ फरेबी पति -पत्नियों के अनेकों किस्से हैं, घबरा देने वाले आँकड़े हैं और खुद को आश्वस्त करने के लिए अपने जीवनसाथी की जासूसी करने के तरीके भी |
एक छोटी सी क्विज़ के बाद दिमाग में शक का एक कीड़ा रेंग जाता है | जो चीजें अभी तक सामान्य थी असमान्य लगने लगतीं हैं | छोटे-छोटे ऊलजलूल प्रश्नों के हाँ में आने वाले उत्तरों से मन की जमीन पर पड़े शक की नीव के ऊपर अट्टालिकाएं खड़ी होने लगतीं है और विज्ञापन की चपेट में आ कर वो, वो करने को हामी बोल देती है जो उसका दिल नहीं चाहता | यानि की फिडेलिटी डॉट कॉम पर क्लिक करके अपनी पति की जासूसी करने का उपकरण खरीदने को तैयार हो जाती है और एक बेल्ट के लिए ओके कर देती है | ये वो जासूसी उपकरण होते है जो ऐसे कपड़ों पर लागाये जाते हैं जो उस व्यक्ति के हमेशा पास रहे | जिससे वो कहाँ जाता है, क्या करता है इसकी पूरी भनक उसके जीवन साथी को मिलती रहे |
मेरा दिमाग उस लिंक की कठपुतली बना उसके निर्देशों पर नाच रहा था |मैंने कई चीजों के रेट नोट किये |मन के कंजूस कोने ने सस्ती चीजों का पूरा मुआयना किया |यूँ महंगी चीजों पर भी बार -बार निगाह गयी |सस्ता रोए बार -बार वाली कहावत भूली नहीं थी मुझे | इसी बीच माँ का फोन आ गया | अपनी जिंदगी के अकेलेपन को भुलाकर वो मेरी जिंदगी के अकेलेपन के लिए बहुत चिंतित थीं |”
हालाँकि बाद में खुद ही उसे इस बात का अफ़सोस होने लगता है कि उसने ये क्यों किया | कहानी में उसके मन का अंतर्द्वंद बहुत खूबसूरती से दिखाया गया है | जैसे -जैसे कहानी आगे बढती है , पाठक आगे क्या होगा जानने के लिए दिल थाम कर पढता जाता है | कहानी सकारात्मक और हल्के से चुटीले अंत के साथ समाप्त होती है परन्तु ये बहुत सारे प्रश्न पाठक के मन में उठा देती है कि इन्टरनेट किस तरह से हमारे निजी जीवन व् रिश्तों में शामिल हो गया है और एक जहर घोलने में कामयाब भी हो रहा है | ऐसी तमाम साइट्स पर हमारी निजता को दांव पर लगाने वाला हमारा अपना ही जीवन साथी हो सकता है | लोगों से जोड़ने वाला हमें अपनों से दूर कर देने का तिलिस्म भी रच रहा है, जिसमें जाने अनजाने हम सब फँस रहे हैं |
एक नए रोचक व् जरूरी कथ्य, सधे हुए शिल्प व् प्रस्तुतीकरण की कहानी है फ़िडेलिटी डॉट कॉम |
“शोध कथा” कहानी शोध छात्रों के शोषण का मुद्दा उठाती है | हास्य रस के साथ शुरू हुई ये कहानी धीरे -धीरे गंभीर होती जाती है और अंत तक पहुंचते -पहुंचते पी एच डी की डिग्री हासिल करने के मखमली कालीन को हटा कर अंदर छिपी भ्रष्टाचार की सारी गंदगी दिखा देती है | कहानी की शुरुआत एक ऐसे प्राध्यापक से होती है जिसके आधीन पहली बार कोई छात्र शोध करने आया है | उसे खुशी है कि अब उसे भी तथाकथित बौद्धिक जमात वाला समझा जाएगा | “किसी से सीधे मुँह बात ना कर अपनी वैचारिक दुनिया में खोए रहना और किसी प्रश्न का सीधा सा उत्तर नया देकर उसे इस तरह से कहना की सामने वाले को भले ही कुछ समझ आए या ना आए वो आपकी बौद्धिकता से चकरा जरूर जाए” उसके नए रूप के प्रस्थान बिन्दु बने | भाषा का सुंदर तंज देखिए ..
“नौकरी करते हुए जो साहस इतने वर्षों से मैं अर्जित नहीं कर पाया था, वो साहस अचानक से मेरे भीतर वैसे ही उठ खड़ा हुआ जैसे बछड़ा जन्मते ही अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है |”
शोध के विषय का शोधार्थी और शिक्षक दोनों को ज्ञान ना होना, पैसों की वजbह से शोध को लटकाए रहना शुरुआती दिक्कतें थीं ..जो अंत तक आते -आते सारे सिस्टम की पोल खोल गयी |
ग्रेडिंग सिस्टम के द्वारा उच्च शिक्षा को विश्वस्तर का बनाने के नाम पर शिक्षा के व्यवसायीकरण की तार्किक पर करूण गाथा है कहानी “ताबूत की पहली कील” | आम छात्रों और सस्ती और सबको उपलबद्ध हो सकने वाली शिक्षा के स्थान पर ये हाई प्रोफ़ाइल शिक्षा केवल अभिजात्य छात्रों तक ही सीमित रह जाने की बात को मेनेजमेंट सुनने को तैयार ही नहीं | विरोध की ये आवाजें कहीं पदावनति कर तो कहीं जल में रहकर मगर से बैर नहीं किया जा सकता के नाम पर दबा दी जाती | एक उदाहरण देखें ..
“वाइस चांसलर साहब! किसी मुगालते में ना रहिए हम जानते हैं इन फरमानों से भविष्य में किस तरह शिक्षक सर्विस प्रोवाइडर हो जाएंगे| छात्र कस्टमर और उच्च शिक्षा एक मुक्त बाजार |मेरा दावा है कि इस बाजार की महंगी शिक्षा खरीद पाना हर एक के बस की बात नहीं होगी |”
किस तरह से आज कॉलेज से लेकर बाजार तक असहमति की आवाजों को विकास के खिलाफ बता कर उन्हें सुनने तक से इनकार किया जाता है, यह कहानी हाल ही में उग आई इस असहिष्णुता पर भी अंगुली रखती है | सामाजिक स्तर के मुद्दों को व्यक्ति के स्तर पर सीमित कर “उससे काम ना हो पाने का आरोप लगा कर, व्यक्ति की नहीं विरोध की भी कमर तोड़ी जा रही है |
रिसर्च पेपर्स, इंटेरनेश्नल कमेटीज, हाई लेवल सेमीनार्स आदि शब्दों के जाल में ए ग्रेड के नाम पर बाहर से चमकते और भीतर से खोखले कायांतरण जो आँखों में धूल झोंक सकते हैं पर उस बुनियाद को हिला देते हैं, जो विश्व विद्धयलयों को शिक्षा का मंदिर मानती रही है | ये ए ग्रेड और उसे पाने वाली सारी कोशिश “ताबूत में ठुकी पहली कील” है | अंत तक आते -आते कहनी मार्मिक हो जाती है और पाठक के भीतर चलने लगती है | इस कहानी में जिस तरह से शिक्षा व्यवस्था के व्यावसायिक करण का नकाब उतारा गया है वो प्रज्ञा जी की कलम को कई स्तर ऊपर ले जाता है |
“कहाँ है आपातकाल अनुभा?”आराम से उठिए, काम पर जाइए खाना खाइए, टी.वी देखिए,इश्क-मोहब्बत कीजिए, सैर सपाटा खरीदारी कीजिए, कहाँ है आपातकाल ? पर जब आप बोलते हैं, सोचते हैं, सवाल करते हैं, तब यकीन जाइए दुनिया वैसी नहीं रहती|”
ये पंक्तियाँ हैं कहानी “स्याह घेरे” की | मनुष्य विरोधी प्रवृत्तियाँ ही वो स्याह घेरे हैं, जो दिन पर दिन बढ़ते जा रहे हैं और किसी ब्लैक होल की तरह लील रहे हैं सौहार्द, भाईचारे और इंसानियत को | ऐसा नहीं है कि कोई ऐसा समय रहा हो जब कट्टरता, स्वार्थपरता, संकीर्णता ना रही हो पर अब मनुष्य विरोधी प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं | आपकी हर बात को एक छन्नी से छान कर स्वीकार या अस्वीकार किया जाता है कि आप का धर्म विचारधारा क्या है | बात महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण ये हो गया है कि आप किस पक्ष में खड़े हैं | इतने प्रबल विरोध के आगे शब्दों की ताकत क्षीर्ण पड़ जाती है | शब्दों को घोंटने के प्रयास में लगे ये स्याह घेरे हर जगह पीछा करते रहते हैं |
ये कहानी है एक बेबाक पत्रकार अनुभा की जो ज्योति अपार्टमेंट्स में किरायेदार के रूप में आई है | कलम पर किस तरह दवाब बढ़ रहा है | सच कोई सुनना नहीं चाहता, सब अपने मन का और दूसरे के विरोध का सुनना चाहते हैं |सच बोलने लिखने वालों की राह में कितनी परेशानियाँ हैं, किस तरह उनका हौसला तोड़ा जाता है | बिना किसी कानून, तफतीश के सब मुंसिफ़ बने बैठे हैं और आसानी से किसी को मुजरिम करार दे देते हैं | भीड़ तंत्र की ये कहानी मन में किरचों की तरह गड़ती है और बहुत कुछ सोचने पर विवश करती है |
स्त्रियों पर लिखने वाली अनुभा जब एक धर्म की स्त्रियों की जकड़ बंदी पर लिखती है तो कॉलोनी के सारे लोग खुश होकर उसका सम्मान करते हैं | विरोध के स्वरों के बीच उसे प्रोटेक्शन देने की बात करते हैं | पर अगले ही लेख में अनुभा जब उनके धर्म की स्त्रियों की जकड़बंदी की बात करती है तो आचनक वो संस्कृति विरोधी घोषित कर दी जाती है| उसे डराया धमकाया जाता है, कलम तोड़ दी जाती है, कार के शीशे तोड़ दिए जाते है और कॉलोनी से निकाले जाने की बात होने लगती ही | दूसरे देश जाने को कहा जाता है और तो और उसकी हिम्मत तोड़ने के लिए स्त्री इज्जत पर लांछन का वही पुराना फॉर्मूला अपनाया जाता है| कुछ समय पहले कॉलोनी में जिसका सम्मान हुआ था वही अब चरित्रहीन और देशद्रोही साबित की जा रही है |
जो कुछ आज हो रहा है उन स्याह घेरों की बात करते हुए कहानी की मशाल प्रज्ञा जी विनय को सौंप देती हैं | जो ज्योति अपर्टमेंट की एक्सीक्यूटिव कमेटी के हेड हैं, कभी कॉलेज के दिनों में ऐक्टिविस्ट रहे हैं, और अनुभा को अपनी बात कहने के हक के पक्षधर हैं | हिम्मत उनकी भी तोड़ी जाती है, पर ..| कहानी हमसे आपसे, आम पाठक से विनय की तरह अपेक्षा भी करती है सच की उस कमजोर पड़ जाने वाली आवाज का साथ देने की | भले ही वो एक स्वर हो क्योंकि सच कड़वा होता है पर वही बदलाव का वाहक बनता है |
“सच कड़वा होता है पर वही बदलाव का वाहक बनता है” एक बार फिर से यह कहने का कारण है एक अन्य कहानी “चमत्कारी कुंड” एक अलग शैली में लिखी गयी ये कहानी सब कुछ अच्छा दिखने के खोल में सब कुछ बुरा होने के मुद्दे को उठाती है | काल्पनिक स्वर्ग की मायावी दुनिया के ठीक नीचे एक नर्क भी छिपा है |ये कहानी बस उन जालों को साफ कर सत्य को दिखाने की चेष्टा करती है |
जब से शब्दों पर पहरे लगे हैं | सच बोलने वालि कलमें गद्दार और दूसरे देश चले जाओ के नारों से पाट दी गयीं हैं | कलम ने कहन का एक अलग रास्ता निकला है | जानवरों के माध्यम से, प्रतीकों से बिंबों से वो बात कही जाए जो वो कहना चाहती है | इधर ऐसी कई सुंदर कहानियाँ पढ़ने को मिली हैं | ये कहानी उसी शृंखला की की एक अलहदा और सशक्त कड़ी है |
कहनी है जय नगर के राजा विजय प्रताप यशोवर्धन की | जिनके राज्य में सब कुछ अच्छा -अच्छा, सुंदर -सुंदर है | इसी राज्य में एक चमत्कारी कुंड है सारा चमत्कार इसी कुंड की वजह से है | पर आत्ममुग्ध राजा को बिस्तर पर लेट कर कान के नीचे कुछ आवाजे सुनाई देती हैं | हर आवाज की धरपकड़ होती है | प्रयोगशाला में प्रयोगों से उसे सुरीले गीतों में बदला जाता है | पर वार्षिकोत्सव में राजा को उपहार देने के क्रम में चमत्कारीकुंड में अलग ही चमत्कार हो जाता है |
“भय से हकलाता कारागार प्रमुख कुछ कह पाता राजा ने आदेश दिया, अब इन सादी शृंखलाओं के स्थान पर सुंदर रजत शृंखलाओं की व्यवस्था हो जिन पर मोहक चित्र उकेरे जाए | “
बिल्कुल आज की परिस्थितियों को गजब के बिंबों में ढालकर प्रस्तुत करती इस कहानी के लिए प्रज्ञा जी बधाई की पात्र हैं |
“चाल और मात के बीच” कहानी बाजार के बढ़ते प्रलोभनों के बीच आम आदमी को फंसा लिए जाने की बात करती है | अरविन्द जी जो ऑफिस में टेक्निकल गुरुजी माने जाते हैं, सबको तकनीनि गुणवत्ता की जानकारी देते हैं | अपने शौक के कारण गूगल पर भर नई तकनीकी से युक्त न्यू लॉन्च चीजों को इतना पढ़ते हैं कि याद ही हो गयी हैं | इसीलिए घर हो या दफ्तर, कोई नयी चीज खरीदते समय लोग उनकी राय जरूर लेते हैं | पर जब यही बाजार जब अपना मोहक जाल उन पर फेंकता है तो .. |
अंत में यही कहूँगी कि हमेशा नए विषय लाने और अपनी कहानियों में आस-पास के जीवन का खाका खींच देने में प्रज्ञा जी सिद्धहस्त हैं | उनकी लंबी-लंबी कहानियाँ पढने के बाद भी लगता है की काश थोड़ा और पढ़ें | विविध रंगी रंग से सजे कहानियों के इस गुलदस्ते में प्रज्ञा जी ने गंभीर और मानवीय संवेदनाओं को उकेरती और शोध परक, प्रेम और बाजार के दवाब वाली आम जीवन से जुड़ी हर तरह की कहानियों को शामिल कर एक समृद्ध संग्रह पाठकों को दिया है | इसके लिए वो बधाई की पात्र हैं | आशा है उनके इस संग्रह को भी पाठकों का भरूर प्यार और सम्मान मिलेगा |
शुभकामनाओं सहित
वंदना बाजपेयी
मालूशाही मेरा छलिया बुरांश -कहानी संग्रह
प्रकाशक -लोकभारती
पृष्ठ -160
मूल्य -199 ऐमज़ान लिंक –मालूशाही मेरा छलिया बुरांश
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