कुछ पढ़ा, कुछ गुना :शीर्षक के अंतर्गत अटूट बंधन में उन लेखों कहानियों पर विस्तार से बात रखी जाएगी जो कहीं न कहीं पढ़ें हैं l
आज के अंक लंदन से प्रकाशित पुरवाई पत्रिका का आ. तेजेंद्र शर्मा जी का संपादकीय, “किराये पर परिवार” पर टिप्पणी l संपादकीय आप यहाँ से पढ़ सकते हैं l
संपादकीय के अनुसार, अब जापान में किराये के रिश्तेदार मिलने लगे हैं। डेली वेज वाले कलाकार भी हैं। जो दिन में परिवार के सदस्य की एक्टिंग करते हैं और शाम को अपनी दिहाड़ी के पैसे अपनी जेब में डाल के वापिस घर को निकल लेते हैं। यह कलाकार चर्च में साथ जाने के लिये, किसी पार्टी में परिवार बनने के लिये, स्कूल में विद्यार्थी के अभिभावक बनने के लिये यानी कि किसी भी किरदार को निभाने को तैयार होते हैं बस दाम सही मिल जाने चाहिये। कुछ हिंदी फिल्मों में भी हमने ऐसे रिश्ते देखे हैं पर अब इसका व्यापारिक स्वरूप सामने आ गया है l फिल्मों में ये रिश्ते असली रिश्तों में बदल जाते हैं l
लंदन से प्रकाशित पुरवाई पत्रिका का आ. तेजेंद्र शर्मा जी का संपादकीय, “किराये पर परिवार”
यह एक ऐसा संपादकीय जिसको पढ़ने के बाद एकदम संज्ञा शून्य हो गई हूँ, कुछ शब्द निलकते ही नहीं l कुछ कहने की स्थिति में आते ही पहला शब्द निकलता है घोर भौतिक्तावाद या अंधी दौड़ l लेकिन ठहरकर सोचने पर लगता है कि बच्चे बुरे ना भी हों तो भी ग्लोबलाइज़ेशन के इस दौर में वो माता- पिता के साथ रह ही पाए यह हमेशा संभव नहीं है l माता- पिता भी अपना स्नेहिल रिश्तों से बसा बसाया शहर छोड़कर बच्चों के पास हमेशा के लिए चले जाए ऐसा वो चाहते नहीं l यूँ मैं कभी खून के रिश्तों की ही पक्षधर नहीं हूँ l जो रिश्ते भावनाओं से बनते हैं, वो कहीं ज्यादा गहरे और दीर्घ जीवी होते हैं l जहाँ तक की वृद्धवस्था की बात है तो वृद्धावस्था का अकेलापन ऐसे भी गंभीर समस्या बन कर उभरता है और इसके समाधान तलाशने ही होंगे l फिर भी “पैसे दो, परिवार लो” वाली किराये के परिवार की अवधारणा से सहमत नहीं हो पा रहीं हूँ l इसका भौतिक कारण ये है कि इसका लाभ केवल पैसे वाले ही उठा सकते हैं l दूसरा कारण ये है कि इसमें दोनों को पता होता है कि भावनात्मक जुड़ाव एक सीमा तक ही रखना है l
असली रिश्ते यूँ सोच-सोच कर नाप तोल कर कहाँ बनते हैं l बनते हैं तो बनते हैं, नहीं बनते तो नहीं बनते l एक तरह से परिवार या जिनसे हम परिवार जैसा आत्मीय रिश्ता महसूस करते हैं वो हमारी भावनाओं के पावर हाउस होते हैं l ऐसे में झूठ के साये में सच खुद से नहीं छुपता है l अलबत्ता पैसे के दम पर सेवा और टाइम पास कराने वाला कोई मिल जाता है l इससे स्वीडन में “सेवा बैंक” टाइप की अवधारणा ज्यादा सही है l जहां व्यक्ति स्वस्थ अवस्था में किसी की सेवा करता है और उसे जरूरत पड़ने पर कंपनी कोई सेवक भेज देती है l राँची में मुझे महिलाओं के ऐसे समूह के बारे में पता चला था जो अकेले पेशेंट के पास अस्पताल में घंटे- दो घंटे के लिए बैठ जाती हैं जिनका अकेला तीमारदार किसी जरूरी काम से जाए l यहाँ विशुद्ध रूप से सेवा की भावना प्रमुख है l
मुझे कविता वर्मा का उपन्यास “अब तो बेलि फैल गई” याद आ रहा है, जिसमें दुबई में दूसरा परिवार बसा चुके पिता का पुत्र जब भारत में माँ से बार -बार अपने पिता के बारे में पूछता है तो एक व्यक्ति उसका पिता बन कर फोन पर बात करने के पेशकश करता है l इन उलझते रिश्तों को हकीकत में कैसे निभाया जाएगा, कहा नहीं जा सकता l बढ़ते मेट्रो कल्चर और भौतिक्तावाद की संस्कृति में जो भावनाहीन जीते-जागते इंसानी रोबोट बनाने को तत्पर है l
लेकिन दुर्भाग्य से हम उस दिशा की ओर मुड़ चुके हैं l आज के भौतिक्तावादी युग में जिनसे आप आत्मीय रूप से जुड़े हों, स्नेह बांध हों अक्सर उनकी जिंदगी की महत्वपूर्ण जानकारियों के बारे में फोन या मेसेज तो छोड़िए इंस्टा या फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल से पता चलता है l भावनाहीन व्यक्तिवादी दुनिया में हम खतरनाक रूप से अकेलेपन की ओर बढ़ चले हैं l उस पर हमारे देश में भी टूटते बिखरते परिवार भविष्य में क्या- क्या आकार लेंगे या ले सकते हैं , ये समपादकीय उनकी दस्तक है … जिसे गंभीरता से सुना जाना चाहिए l
वंदना बाजपेयी
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