अनकही

अनकही

क्या आपने कभी सोचा है ….घर में सब ठीक है के पीछे एक स्त्री कितनी बातें , ताने दर्द लील जाती है किसी मीठी गोली की तरह | कितनी बातें रह जाती हैं अनकही |

कविता -अनकही 

सुबह -सुबह की भाग-दौड़ के बीच
मम्मी मेरे मोज़े कहाँ हैं ?
मेरी फ़ाइल जाने कहाँ रख देती हो ,
बहु सुबह गुनगुन पानी में नीबू शहद जल्दी दे दिया करो ,
नहीं होता पेट साफ
और सारा दिन
बनी रहती है हाज़त
के बीच रोकते हुए आँसूं
तय कर लिया था उसने
आज कह दूंगी वो सब
जो बरसों से
दबा है मन में
इस दौड़ भाग के बीच कुछ उसकी भी अहमियत है इस घर में
जैसे ही खोलने चाहे होंठ
ससुर ने मुँह बनाया
अब रहने दो
बची है है चार दिन की जिंदगी
एक समान होते हैं
बूढ़े और बच्चे
थोडा जल्दी उठ जाया करो बस … सब ठीक रहेगा
पति ने कर दिया ईशारा
न -ना … आज नहीं
बॉस से आया हूँ डांट खाकर
आज ही निपटानी हैं ये फाईलें
बच्चे भी लगाने लगे गुहार
नहीं मम्मी
मेरा मैथ टेस्ट
प्रोजेक्ट सम्मीशन
आज नहीं फिर कभी
टपकने को आतुर शब्दों को उसने फिर कर लिया अंदर
लार के साथ
रह गयी फिर  अनकही
ये सोच कर की
गटक ही लो
इससे  दुरुस्त रहता है इससे परिवार का हाजमा
आखिर सब अपने ही तो है …

नीलम गुप्ता

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filed under: Women, poetry, hindi poetry, kavita


3 thoughts on “अनकही”

  1. नारी जीवन की भागम भाग जिसमें अपना दर्द भी बयान नहि कर पाती है नारी … मन के गहरे अहसास लिखे हैं …

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