राजीव तनेजा जी एक ऐसे व्यंगकार जो आस पास की घटनाओं से ताना -बाना उठाकर व्यंग -कथा को बुनते हैं | उनकी हर व्यंग कथा हौले से एक तीखा प्रहार करती है | वो जितनी अच्छी व्यंग कथा लिखते हैं उतनी ही कहानी भी लिखते हैं | हम सब ने अपने जीवन में कभी न कभी आत्मसंवाद अवश्य किया होगा | इसी के माध्यम से हम सही निर्णय पर भी पहुँचते हैं | प्रस्तुत कथा “हाँ…नपुंसक हूँ मैं”में भी आत्मसंवाद के जरिये वह उस कमजोर व्यक्ति के पक्ष में खड़े होते है जो भले ही किसी अपराध को रोक पाने में सक्षम ना हो पर किसी भी परिस्थिति में स्वयं अपराध नहीं करता |आइये पढ़ते हैं उनकी कहानी …
“हाँ…नपुंसक हूँ मैं”
बचाओ…बचाओ…की आवाज़ सुन अचानक मैं नींद से हड़बड़ा कर उठ बैठा। देखा तो आस-पास कहींकोई नहीं था। माथे पर उभर आई पसीने की बूँदें चुहचुहा कर टपकने के मूड में थी।घड़ी की तरफ नज़र दौड़ाई तो रात के लगभग सवा दो बज रहे थे।पास पड़े जग से पानी का गिलास भर मैं पीने को ही था कि फिर वही रुदन…वही क्रंदन मेरे अंतर्मनमेंपुन:गूंज उठा।कई दिनों से बीच रात इस तरह की आवाजें मुझे सोने नहीं दे रही थी।अन्दर ही अन्दर मुझेअपराध भाव खाए जा रहा था कि उस दिन..हाँ..उस दिन अगर मैंने थोड़ी हिम्मत दिखाई होती तो शायद आज मैं यूँ परेशान ना होता।जो हुआ…जैसा हुआ…बहुतअफ़सोसहै मुझे लेकिन मैं अकेला…निहत्था उन हवस के भेड़ियों से उसे बचाता भी तो कैसे?
“क्यों!…शोर तो मचा ही सकते थे ना कम से कम?”मेरे अन्दर का
ज़मीर बोल पड़ा।
“कोशिश भी कहाँ की थी तुमने?ज़बान तालू से चिपक के रह गई थी ना?बोल ही नहीं फूट रहे थे तुम्हारी ज़ुबान से।एक ही झटके मेंअपना पाँव छुड़ाक रचल दिए थे।क्यों!…यही सोचा था ना कि..कोई मरे या जिए…क्या फर्क पड़ताहै?” अंतर्मन का खुंदक भरा स्वर।
“हाँ!..नहीं पड़ता है कोई फर्क मुझे…कौन सा मेरी सगे वाली थी जो मैं फ़िक्र करता?”तैश में आ मुझेबोलनापड़ा।
“तुम में इंसानियत नाम की भी कोई चीज़ है कि नहीं?वैसे!..अगर तुम्हारी सगे वाली होती तो तुम क्या करते?बचाते क्या उसे?” अंतर्मन पूछ बैठा।
“श्श…शायद नहीं।” अकबकाते हुए मैंने जवाब दिया।
“क्यों? क्या तुम्हारा फ़र्ज़ नहीं बनता था किसी मुसीबत में पड़े हुए की जान बचाना?
“हुंह!…तुमने कहा और हो गया?मुझे क्या ज़रूरत पड़ी थीकिसी के फटे में टांग अड़ानेकी?क्या मैंने कहा था उसेकि यूँ..देर रात…फैशन कर के बाहर सड़क पे आवारा घूमो?”मैंने तड़प कर जवाब दिया।
“अब निबटो इन सड़क छाप लफूंडरों से खुद ही..मैं तो चला अपने रस्ते।कौन पड़े पराए पचड़ेमें?” मेरे बड़बड़ाना जारी था।
“हुंह!…कौन पड़े पराए पचड़े में…ये सोच तुम तो पतली गली से खिसक लिए थे और वो बेचारी, बस दयनीय…कातर नज़रों से आँखो में आँसू लिए तुम्हें मदद को पुकारती रही।” अंतर्मन की आवाज़ में करुणा थी।
“तो?” मेरा अक्खड़ सा जवाब।
“तो से क्या मतलब?कुछ फर्ज़ नहीं बनता था तुम्हारा?”अंतरात्मा ने धिक्कारा।
“बिना बात के मैं पंगा क्यों मोल लूँ?”बिना किसी लाग लपेट के मैंनेजवाब दिया।
“अगर कोई बात होती तो क्या पंगा लेते?” अंतर्मन ने फिर सवाल दाग दिया।
“श्श…शायद नहीं।“
“क्यों?” प्रश्नचिन्ह की मुद्रा अपना अंतर्मन ने फिर सवाल किया।
“यही घुट्टी में घोल-घोल पिलाया गया है हमें बचपन से किअपने मतलब से मतलब रखो।दूसरे के फटे में खामख्वाह टांग ना अड़ाओ।तो तुम्हीं बताओ..कैसे मैं अड़ा देता?” अपनी बात को जायज़ ठहराने की कोशिश कीमैंने।
“ओह!…
“और वैसे भी किस-किस को और क्यों बचाता फिरूँ मैं?हर जगह तो यही हाल है।अब उस दिन की ही लो, क्या मैंने कहा था शर्मा जी से कि बैंक से मोटी रकम निकलवाओ और फिर पलाथी मार वहीं सड़क के मुहाने बैठ गिनती गिनने लगो?”
“हम्म!…
“अब यूँ शो-ऑफ करेंगे तो भुगतना तो उन्हें ही पड़े गाना?” मैंनेसफाई दी।
“हम्म!…
“पता भी है कि ज़माना कितना खराब है लेकिन फिर भी…पड़ गए थे ना गुण्डे पीछे?हो गई थी ना तसल्ली?जब पहले ही कुछ नहीं सोचा तो फिर बाद में बचाओ-बचाओ करकाहे मदद को चिल्लाते थे?मालुम नहीं था क्या कि कोई नहीं आएगा बचाने को। सबको अपनी जान प्यारी है।”
“ओह!…
“ऊपर से पागलपन देखो…लगे हाथ अपना आई फोन इलेवन निकाल 100 नम्बर घुमाने लगे। डॉक्टरने कहा था कि हर जगह अपनी शेखी बधारो?फोन का फोन गया और दुनिया भर के सवाल-जवाब अलगसे।“
“मतलब?”
“यही कि कितने का लिया था?बिल वाला है कि प्रीपेड? इंश्योरेंस है कि नहीं? वारेंटी है या नहीं और अगर हैतो कितने महीने की बची है? किश्तें सारी भर दी या कुछ अभी भी बाकीहैं?कोई प्राब्लम तो नहीं हैना? और अगर है तो अभी के अभी साफ़ साफ़ बोल दो।“
“अजी!…प्रॉब्लम किस बात की? अभी कुल जमा दो महीने पहले ही लिया है नंबर एक में पूरे पचहतर हज़ार काऔरकिश्तें?…किश्तें तो मेरे बाप-दादा ने भी आज तक कभी नहीं बनवाई किसी भी चीज़ की।“
“और कोई ख़ास बात?”
“हाँ!…है क्यों नहीं?इसकी कैमरा क्वालिटी तो बस पूछो मत…
“बस..बस पहले आराम से लुट पिट लो,बाद में तसल्ली से सारी खूबियाँ बताते रहना।“ लुटेरे बड़े इत्मीनान और कॉन्फिडेंस से बोले थे।
“ओह!…
“जब तक बात समझ आती तब तक वोसब वहाँ से फोन छीन के रफूचक्कर हो चुके थे।”
“ओह!…
“बाद में ‘पुलिस…पुलिस’ चिल्लाने से क्या फ़ायदा जब चिड़िया चुग गयी खेत?”
“हम्म!…कभी टाईम पे आई भी है पुलिस जो उस दिन आ जाती?”
“और नहीं तो क्या।जिसे पुकार रहे थे, उसी की शह पर तो होता है ये सब।“
“हम्म!…सैंया भए कोतवाल तो अबडर काहे का?”
“बिलकुल…फिक्स हिस्सा होता है इनका हर एकचोरी-चकारी..हर एक राहजनी में।हर जेब तराशी में..हर अवैध धन्धे में।”
“हाँ!..इन्हें पता तो सब रहता है कि फलानी-फलानी जगह पर फलाने-फलाने बंदेने फलानी-फलानी वारदात को अंजाम दिया है।”
“हम्म!…चाहें तो दो मिनट में ही चोर को माल समेत थाने में चाय-नाश्ते पे बुलवा लें।ये चाहें तो शहर में हर तरफ अमन और शांति का माहौल हो जाए।अपराधियों की जुर्म करने के नाम से ही रूह तक काँप उठे।” मेरा बड़बड़ाना जारी था।
“छोड़ोये बेकार में इधर-उधर की बातें…सीधे-सीधे कह क्यों नहीं देते किदम नहीं है तुममें।चुक चुके हो तुम। हौंसलानहीं है तुम में लड़ने का…विरोध करने का।नपुंसक हो तो तुम।“
“क्क…क्या…क्या बकवासकर रहे हो तुम?”
“हाँ!…सही सुना तुमने…नपुंसक हो तुम। तुम जैसों की पूरी की पूरी जमात ही नपुंसक है।मर्द नहीं..किन्नर बसता है तुम में।”अंतर्मन बिना रुके ताव में बोले चला जा रहा था।
“हुंह!…नपुंसक हो तुम? तुम बोलो और मैं मान लूँ?मालुम भी है तुम्हें कुछ कि क्या हुआ था उस दिन? तुमतो मस्त हो भजन-कीर्तन में जुटे थे अन्दर ही अन्दर और वहाँ बाहर…बाहरमेरी ऐसी की तैसी हुई पड़ी थी।” बौखला करमैंचिल्लाने को हुआ।
“चल!…चल आगे निकल के फूट ले चुपचाप वर्ना यही के यहीं चीर डालेंगे स्सालेतुझे।“
“यहीकह केउन्होंने तुम्हें नहीं मुझे धमकाया था…हाँ मुझे। पता है दिसंबर कि उस सर्द रात में भी मैं पसीने-पसीने हो उठा था।“ मेरे चेहरे पर घबराहट साफ़ तैर रही थी।
“ओह!…
“तुम्हींबताओक्या ग़लतकिया मैंने जो घबराकर वापिस मुड़गया?”
“पता नहीं क्या हुआ होगा उस बेचारी के साथ।” अंतर्मन के स्वर में चिंता थी।
“हम्म!…उस दिन के बाद मैं भी कौन सा सही से जी पाया हूँ? हर रात उसका ये बचाओ-बचाओ का स्यापा मुझे सोने नहीं दे रहा है।ना चाहते हुए भी बार बार उसी का ख्याल आने लगता है किपता नहीं क्या हुआ होगा उसके साथ? ज़िंदाभी होगी या…?”आगे बोला ना गया मुझसे।
“या मर खप गयी होगी?” मेरे मन में उथल पुथल जारी थी।
“छोड़ोये खोखली हमदर्दी भरी बातें।कुछ नहीं धरा है इनमें।”ताना मारता हुआ अंतर्मन फिर बोल पड़ा।
“य्य्य…ये खोखली…बेकार की बातें हैं?”मैं बौखलाने को हुआ।
“हाँ!…बिलकुल…येबेकार की बातें हैं।सौ बातों की एक बात कि..मर्द नहीं हो तुम।हो ही नहीं सकते क्योंकि उस दिन जब वो चार मिल कर बीच बाज़ार उस निहत्थे को बिना बात पीट रहे थे, तब समूची नपुंसक भीड़ के साथ तुम भी तो खड़े-खड़े तमाशा ही देख रहे थे ना?”
“मैं खड़ा कहाँ था? म्म..मैं तो वीडियो…
“हाँ!…वीडियो…वीडियो ही तो बनाते हो तुम लोग। मिल क्या जाता है आख़िरतुम जैसे लोगों को ऐसे वीडियो वायरल कर के? बस…दो-चार…दस दिनों की पोपुलैरिटी? अरे!…अगर बचाते तो हमेशा के लिए हीरो बन जाते हर किसी की नज़र में। मर्द बन जाते लेकिन नहीं…तुम लोग मर्द हो ही कहाँ? तुम लोग तो…
“तो?..मैं अकेला क्या कर लेता? भिड़ जाता क्या अकेला उन गुंडे मवालियों से?”
“माना कि वो चार थे लेकिन तुम सब मिलकर तो सौ थे ना? साँपसूंघ गया था तुम सबको?”
“व्व…वो…दरअसल…
“और उस दिन…हाँ!…उस दिन जब वो पुलिस वाला तुम सब नामर्दों के सामने उस बेचारे गरीब रेहड़ी वाले को सिर्फ इसलिए बुरी तरह धुन्न रहा था कि उसने अपना हफ्ता टाईम से नहीं दिया था, तब भी तो तुम चुप ही खड़े थे ना?” अंतर्मन खिल्ली उड़ाता हुआ बोला।
“तो?…क्या करता मैं याफिर तुम्हीं बताओ क्या कर सकता था मैंखामख्वाहउन पुलिस वाले से पंगा मोल ले के?”
“खामख्वाह? वो खामख्वाह का पंगा था? वीडियो बना के तो वायरल कर सकते थे।“
“व्व…वीडियो?…प्प…पुलिस वालों का?”
“हाँ!…वीडियो…पुलिस वालों का वीडियो।“
“म्म…मगर…
“जब तुम्हारी इतनी ही फटती है पुलिस वालोंसे तो सीधे-सीधे मान क्यों नहीं लेते कि मर्द नहीं हो तुम? नपुंसकता बसी हुई है तुम में…तुम्हारी रग रग में…तुम्हारे रोम-रोम में। जब तुम डंके की चोट पे सच नहीं बोल सकते तो कोई फ़ायदा नहीं अबतुमसे बात कर के।ओके बाय,मैं जा रहा हूँ।” कह कर अंतर्मन गायबहो गया।
“हाँ-हाँ तुम्हारे हिसाब से मर्द तो वो सरकारी बाबू है ना जो बेचारे वर्मा जी की बुढ़ापा पैंन्शन पिछले छह महीने से घूस ना देने की एवज में डंके की चोट पर रोके बैठा है।” मेरा बड़बड़ाना जारी था।
“मर्द तो वो सरकारी डॉक्टरहै ना जो ड्यूटी के समय ही डंके की चोट पर अपने विज़िटिंग कार्ड हमारे हाथों में थमाता है कि…यहाँ छोड़ोऔर मेरे क्लीनिक में आ के अपना ढंग से इलाज करवाओ और हम दिमागी तौर पर अक्षम..अपंग लोग सुबह-शाम उसके बँगले के बाहर लाईन लगाए नज़र आते हैं ।” मैं खुद से जैसेबातें करता हुआ बोला।
“हाँ!…मर्द तो वो बिजली और जलबोर्ड का मीटर रीडर है नाजो दिन-दहाड़े मुझ जैसेनपुंसक को चंद नोटों की खातिर बिल चोरी के तमाम गुर सिखाने को तैयार बैठा है।” असंख्य विचार मेरे मन में एक साथ उमड़ घुमड़ रहे थे।
“हाँ!..मर्द तो वो ढाबे वाला है ना जो परसों उस बाल मज़दूर को दो रोटी ज़्यादा खाने पर बुरी तरह मार रहा था?हाँ!..असली मर्द तो वो हैंना जो मर्दाना जिस्म…मर्दाना ताकत रखने के बावजूद किसी अबला नारी की अस्मत लुटते देख नज़रें फेर लेते हैं ?”
“बस!…हो गया भाषण पूराया अभी कुछ बाकी है?”अंतर्मन अचानकफिर से प्रकट हो मेरा माखौल उड़ाता हुआ बोला।
“इन्हें तुममर्द कहते हो? बड़ी छोटी सोच है तुम्हारी। भय्यी वाह…क्याकहने?”
“अरे!…असली जवाँ मर्द तो नंदीग्राम में हैं, गोधरामें हैं।पूरे गुजरात और कश्मीर मेंहैं और…और उन दिल्लीके भजनपुरा, जाफराबाद और मुस्तफ़ाबाद वालोंके ताज़े-ताज़े बने मर्दों कैसे तुम भूल गए? कैसे भूल गए बताओ उन हत्यारे मर्दों को जिन्होंने चौरासी के दंगे में बेगुनाह निहत्थे सिक्खों को उन पर तेल, पैट्रोल और टायर डाल के ज़िंदा जला दिया था?बोलो…बोलते क्यों नहीं? आवेश में अंतर्मन हिस्टीरियाई अंदाज़ में चिल्लाता हुआ बोला।
“और उन असली मर्दों को कैसे भूल गए जिन्होंने उन्माद में आ बाबरी विध्वंस को अंजाम दिया था? मर्द तो वो बेचारे भी थे जिन्होंने दिन दहाड़ेहमारी संसद में घुस कर हमारे लोकतांत्रिक ढाँचे को ही नष्ट करने की सोची थी।” मेरे मन में अंतर्द्वंद जारी था।
“हाँ!…वो कंबख्तमर्द ही कहाँ थे जिन्होंने हमारे इन तथाकथित महा ईमानदार नेताओं को बचाने की खातिर अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे?” मेरा अंतर्मन जैसे खुद से ही बातें करने लगा था।
“हाँ!…औरत होते हुए भी मर्द ही तो थी हमारी पूर्व प्रधानमंत्री जिन्होनें अपनी गद्दी जाती देख समूचे देश को ही आपातकाल की भट्ठी में झोंक खुद का भविष्य सुरक्षित कर डाला था।” मैंने बात आगे बढ़ाई।
“और उसको कैसे भूल गए जो कोरोना की जद में आने के बावजूद सारी रात पार्टी करतीरही। औरउसे कैसे भूल गए…वो भी तो असली मर्द ही था जिसने एक पंथ दो-दो काज करते हुए तंदूर में अपने प्यार को भून ‘तंदूर कांड’ को जन्म दे, लगे हाथ ‘अमूल मक्खन’ वालों का विज्ञापन भी मुफ्त में कर डाला था?”अंतर्मन मेरी हाँ में हाँ मिलाता हुआ बोला।
“मर्द तो वो बाहूबली का बेटा…वो भाई था जिसे अपनी बहन की खुशी से ज़्यादा अपने परिवार…अपने खानदान की इज़्ज़त प्यारी थी।”
“हाँ!…इसी को ध्यान में रखते हुए उसने अपनी बहन के प्यार का अपहरण कर उसे मार डाला था।” मेरे साथ-साथ अंतर्मन की आवाज़ भी तल्ख़ हो तीखी हो चली थी।
“मर्द तो वो खाप पंचायतें हैं जिनसे जवाँ होते दिलों का प्यार नहीं देखा जाता।”
“और उसे कैसे भूल गए?मर्द तो वो मंत्री का बेटा भी था जिसने बॉर बंद होने की बात सुन गुस्से में बॉरबालाको ही टपका डाला था।”
“असली जवां मर्द तो वो मंत्री था जिसने अपनी प्रेमिका’मधुमिता’ को मौत के घाट उतारा था।”
“हाँ!…वो सिक्योरिटी वाले मर्द ही तो थे जिन्होंने हमारी प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को गोलियों से छलनी कर मार डाला था।”
“इस हिसाब से तो शायद वो ‘लिट्टे’ वाले भी पक्का मर्द ही रहे होंगे जिन्होंने ‘राजीव गाँधी’ को बम विस्फोट में उड़ा डाला था।”
“और वो ‘एस.टी.एफ’ वाले नामर्द स्साले..जिन्होंने वीरप्पन को मार गिराया था?”मैं व्यंग्यबाण चलाता हुआबोल उठा।
“मर्द तो वो प्रधान मंत्री थे जिनके सूटकेस की वजह से कई दिनों तक मीडिया में सरगर्मी रही थी।वो मीडिया वाले भी तो मर्द ही थे जो दिन-दिन भर कुँए में गिरे प्रिंस की खबरें दिखाते रहे।या फिर वो मीडिया वाले भी तो मर्द ही होते हैं नाजो ख़बरना होने पर भी बेवजह की सनसनी क्रिएट कर उसकी आँच में अपने भुट्टे भूनते रहते हैं।“
“हाँ!…असली जवाँ मर्द तो वो मीडिया वाले हैं जिन्हें इस बात की ज़्यादा चिंता रहती है कि ‘बिग बी’ ने किस-किस मंदिर में…किस किस देवता के आगे…कितनी कितनी बार..किस किस स्टाइल में मत्था टेकाबजाय इसके कि आसाम में या पंजाब में रेल दुर्घटना में कितने मरे और कितने घायल हुए?” अंतर्मन ने मेरी हाँ में हाँ मिलाई।
“नामर्द तो स्साले वो पत्रकार हैं नाजो अपनी जान जोखिम में डाल नित नए स्टिंग आप्रेशनों को अंजाम दे रहे हैं? क्यों?..सही कहा ना मैंने?” मैंनेप्रश्न किया।
“तुम क्या सोचते हो कि मर्द बिरादरी सिर्फ भारत में ही बसती है?”मेरी बात अनसुनी कर अंतर्मनबोलता चला गया।
“अरे!…बुद्धू..पूरी दुनिया भरी पड़ी है मर्दों से।वो मर्द ही तो थे जिन्होंने ‘9-11’ की घटना को अंजाम दे हज़ारों बेगुनाहों को ज़िंदा दफ़ना डाला था।”
“हाँ!…असली जवाँ मर्द तो वो भी है जिसने ‘सद्दाम’ का बेवजह तख्तापलट उसे फाँसी पे चढ़ादिया।” मैं समर्थन करता हुआ बोला।
“और एक नयी बात सुनो। क्या तुम्हें पता है कि इंसानों के आलावा देशभी मर्द-नामर्द दोनों किस्म के हुआ करते हैं।”
“क्या मतलब? मैं कुछ समझा नहीं।“ मैंने अपनी अनभिज्ञता ज़ाहिर की।
“अब ये ‘अमेरिका’ को ही लो।असली जवाँ मर्द देश है,किसी से नहीं डरता।”
“वोकैसे?”
“देखा नहीं? कैसे उसने तेल-ताकत और पैसे की खातिरमित्र देशों को बरगला इराक पे बिना बात के कब्ज़ा जमा लिया।इसे कहते हैंमर्दों में मर्द..असली मर्द क्योंकि मर्द को दर्द नहीं होता।”
“ओह!..तो इसीलिए तुम मुझे मर्द नहीं कहते हो क्योंकि मुझे दर्द नहीं होता?”
“हाँ!…मुझे दर्द होता है जब कोई मर्द किसी निर्बल अबला नारी की इज़्ज़त लूटता है।हाँ!…मुझे दर्द होता है जब कोई ‘मुशर्रफ’ सारे कानूनों को ताक में रख पाकिस्तान का बादशाह और सेनापति दोनों बन बैठता है।हाँ!…मुझे दर्द होता है जब कोई मर्द मुल्क ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ का नारा दे हमारी पीठ में ही छुरा भौंकता है।हाँ!..मुझे दर्द होता है जब कोई मर्द मुल्क धोखे से ‘कॉरगिल’ पे कब्ज़ा जमाता है।हाँ!…सच में मुझे दर्द होता है जब देखता हूँ कि तथाकथित बड़ेस्कूल-कॉलेजों के मर्द प्रिंसिपल तथा अध्यापक यौन शोषन में लिप्त नज़र आते हैं।हाँ!…मुझे दर्द होता है जब नकली स्टिंग आप्रेशन करवा के कोई मर्द पत्रकार किसी अध्यापिका की इज़्ज़त सरेआम नीलाम करवा डालता है।”
“यही सबअगर मर्दानगी की निशानियाँ हैं तो लॉनत है ऐसी मर्दानगी पर…ऐसे मर्दों पर।इससे तो अच्छा मैं नामर्द ही सही, किसी के साथ ग़लततो नहीं करता…बुरा तो नहीं करता। बेशकमैं डरपोक सही लेकिन फिर भी इन तथाकथित बहादुरों से लाख गुना अच्छा हूँ।नहीं बनना है…हाँ मुझे नहीं बनना है ऐसा मर्द जो दूसरों के दर्द को ना समझ सके, दुःख को ना समझ सके।ऐसे ही सही हूँ मैं…नामर्द ही सही…किन्नर ही सही…नपुंसक ही सही।
***राजीव तनेजा***
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