नके साथ घूमना, बात करना….इसी में आनंद आता है। बस यहीं से मार्ग भटक जाने की घंटी सुनाई पड़ने लगती है। बहुत से मार्ग भटक भी जाते हैं, नशे की गिरफ्त में पहुँच जाते हैं। विपरीत लिंग के पारस्परिक आकर्षण में बंध कर अपनी मर्यादाएं और संस्कार भूल कर दैहिक संबंधों की ओर मुड़ जाते हैं। आजकल नगरों-महानगरों में लिव इन की प्रवृति लोकप्रिय होती जा रही है क्योंकि उसमें बंधन नहीं है, जिम्मेदारी नहीं है। जब तक अच्छा लगा साथ रहे, नहीं अच्छा लग रहा तो साथ खत्म। फिर कोई दूसरा साथ….. और ऐसी इच्छाओं, आकर्षणों का कोई अंत नहीं है।
तब यहीं से माता-पिता की विशेष जिम्मेदारी का आरम्भ होता है, विशेष रूप से माँ का। आप वो समय नहीं रहा की आपने डांट-डपट कर,धमका कर और आवश्यकता समझी तो थोड़ी पिटाई करके काम चला लिया। ऐसा करने पर आए दिन समाचारपत्रों और दूरदर्शन में कितने ही आत्महत्याओं के समाचार पढ़ने-सुनने को मिलते हैं। आज जिस तकनिकी युग में हम रह रहे हैं वहां एक क्लिक से ही सारा संसार आपके सामने आ खड़ा होता है, क्लिक से ही अधिकतर काम संपन्न हो जाते हैं। तो ऐसी स्थिति में हम पूरी तरह पुराने समय के साथ नहीं चल सकते। चलेंगे तो अपने बड़े होते बच्चों के साथ चलने में पीछे रह जाएंगे, उनके साथ कदम से कदम मिला कर चलने में पिछड़ जाएंगे।
पहले समाज में पिता कमा कर लाते थे और माँ घर देखती थी। संयुक्त परिवारों का चलन ज्यादा था। ऐसे में बच्चों को माँ के साथ परिवार के अन्य सदस्यों दादा-दादी, नाना-नानी,ताऊ-ताई, चाचा-चाची, बुआ, मौसी, मामा आदि सभी सम्बंधियों और घर के बच्चों का साथ भी मिलता था। पर आज संयुक्त परिवारों का चलन घटता जा रहा है, एकल परिवार बढ़ रहे हैं। कैरियर कांशस और महत्वाकांक्षी होने के कारण पिता के साथ-साथ माँ भी काम करने के लिए बाहर निकल रही है। अपने बच्चों को कम समय दे पाने के अपराधबोध को कम करने के लिए दामी उपहार, गैजेट्स दिलवाते हैं जो बाद में उन्हीं के लिए परेशानी का कारण बनते हैं।
ऐसे में माँ की भूमिका ही सबसे महत्वपूर्ण होती है। माँ ही अपनी मर्यादाओं- संस्कारों का परिचय करवाते हुए उनके व्यक्तित्व को निखारती है, खेल-खेल में, काम करते-करवाते हुए, बात करते हुए कब उसे संस्कारित-शिक्षित करती चली जाती है यह पता ही नहीं चलता। यह करने के लिए हम अपने बच्चों के मित्र बनें। उनके साथ गाने सुनें, फ़िल्म देखें, योग-व्यायाम करें, घूमने जाएँ, गप्पे मारें, उनके साथ अपनी दिन भर की बातें साझा करें और उनकी सुनें, उनकी समस्याएं सुन कर उनका निराकरण करें, उनके साथ-साथ उनके मित्रों के भी मित्र बनें…..फिर देखें आपके बच्चे आपके इतना निकट होंगे की वे निसंकोच अपनी हर बात हमसे साझा करेंगे और इसके लिए वे इधर-उधर नहीं भटकेंगे। कभी-कभी बच्चों के भटकाव की शुरुआत यहीं से होती है जब उन्हें यह लगता हैं कि उनके माता-पिता के पास उनकी बातें सुनने का समय नहीं नहीं है या वे कहां हमारी बात समझेंगे और तब मित्रों की तलाश उन्हें अच्छे-बुरे का आकलन करने का अवसर नहीं देती। हम मित्र बन कर उनके हृदय में पहुंचे।
ऐसी और भी बातें हैं जो करके हम जीवन में उन्हें आगे बढ़ाने में सहायक बन सकते हैं……हम हर समय उन्हें सिखाने की कोशिश न करें उनसे सीखें भी। हर समय अपने समय की दुहाई देते हुए टोका-टाकी करते हुए अपने को अप्रिय न बनाएं। समय के साथ चलते हुए उनके हमजोली बन कर अपने सपनों के साथ उनके सपनों को भी जीना सीखें, विवाद की जगह आत्मीय संवाद सदा बनाएं रखें। अपने समय की अपनी कुछ बातें शेयर करते हुए उन्हें बताएं की आज अपनी समस्याओं के बारे में अपने माता-पिता से बात करना कितना आसान है।
अपने किशोर बच्चों के साथ आप भी अपनी किशोर वय को जियें और इस सबसे बढ़ कर……उन पर विश्वास करें, शक नहीं। शक विद्रोह को जन्म देता है।
इन सब बातों के साथ अपने बच्चों के साथ जियें जीवन के खूबसूरत पल……फिर देखिये उनके साथ सामंजस्य बैठाना, सीखना-सिखाना और उन्हें संभालना कितना सुगम होगा। पर पहले उनके लिए इस राह पर चलने के लिए हम पहला कदम बढ़ाएं तो सही।
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डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई
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bharti ji, bahut achchi tarh se samjhaya aapne, bachcho ke sath ek umra ke bad mata pita ki tarh nahi to friends ki tarh rishata banana chahiye.
bahut sahi information
bahut hi badiya post or ye sahi baat hai ki baccho ke bde hone pr parents ko friend ki tarah un ko treat krna chaiye.