द कश्मीर फाइल्स-फिल्म समीक्षा

द कश्मीर फाइल्स-फिल्म समीक्षा

  लगभग दो साल से लोग घरों में कैद रहें और सिनेमा हाल बंद प्राय रहें, फिर एक हिन्दी मूवी रिलीज होती है “द कश्मीर फाइल्स”। इसने रिलीज के साथ ही पहले ही शो से टिकट खिड़की पर आग लगा दी। कम बजट की इस फिल्म पर वितरकों को जरा भी विश्वास नहीं था तभी तो शुक्रवार को पूरे देश में सिर्फ 500 स्क्रीन पर लाया गया। अन्य बड़ी मूवीज की तरह न ही इसका कोई खास प्रचार हुआ और न शुरुआत में कोई चर्चा। कुछ लोगो ने महज मौखिक रूप से सोशल मीडिया पर इसकी चर्चा की, पर करोड़ों खर्च कर भी जो सफलता नहीं हासिल होती है इस फिल्म ने सिर्फ मौखिक और जबरदस्त कंटेन्ट की वजह से झंडे गाड़ दिए। एक मामूली बजट और लो स्टारकास्ट मूवी का बॉक्स ऑफिस, निश्चित ही ट्रेंड सर्किल को हैरान करने वाला माना जाएगा। रिलीज के चौथे दिन 4 गुना से ज्यादा शोज बढ़ने का उदाहरण इससे पहले कभी नहीं देखा। ‘द कश्मीर फाइल्स’ एक केस स्टडी हो सकती है, क्योंकि आज के समय 3 दिनों की कमाई पर निर्माता फ़ोकस करते हैं, यानी ज्यादा से ज्यादा स्क्रीन पर (4000+) स्क्रीन पर फ़िल्म रिलीज किया जाए। धुआंधार प्रचार से दर्शकों को खींचते हैं, फिर सोमवार से शोज कम हो जाते हैं। इस फ़िल्म में ठीक इसका उल्टा हुआ, यानी शुक्रवार से 4 गुना शोज सोमवार को हो गए।   नब्बे की दशक की शुरुआत में हुई भीषण नर संहार की खबर को महज एक पलायन के रूप में खबरों में स्थान मिली थी। कश्मीर के आधे-अधूरे उस वक़्त की प्रसारित की गई सच – झूठ की सच्चाई को निर्माता विवेक अग्निहोत्री ने पूरी बेबाकी से उधेड़ कर रख दिया है इस फिल्म के जरिए। सच हमेशा कड़वा ही होता है। ये मूवी वाकई एक दस्तावेज है जो कश्मीरी पंडितो के दुखद नरसंहार (सिर्फ पलायन नहीं) की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करती है। ये फिल्म कई परतों में एक साथ चलती है। आज जब अनुच्छेद 370 हट चुका है की चर्चा के साथ साथ 1990 की घटनाओं का बेहतरीन वर्णन है। मुझे तो सबसे बढ़िया फिल्म का वो हिस्सा लगा जिसमें कैसे कश्मीर सदियों से अखंड भारत का हिस्सा रहा है का जिक्र है।   एक प्रशासनिक अफसर, एक पत्रकार, एक डॉक्टर और एक आम जन – को बिम्ब की तरह प्रस्तुत किया गया है दोस्तों के रूप में, जिन्होंने प्रतिनिधित्व किया उस वक़्त के इन चारों की भूमिका और असहायता को दर्शाने हेतु। एक आज का brainwashed युवा भी है और है JNU भी। बहुत गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास है, कई राज खुलते हैं तो कई फ़ेक न्यूज़ और चलते आ रहे प्रोपैगैंडा की धज्जियाँ उड़ती है। बहुत जरूरी है इस तरह की फिल्मों का भी बनना जो परिपक्व और गंभीर दर्शक मांगते हैं। ये एक Eye opener और बेबाक मूवी है जिसकी सभी घटनाओं को सत्य बताया गया है। तत्कालीन सरकारों की उदासीनता दिल को ठेस पहुँचाती है। टीवी पर अफगानिस्तान और यूक्रेन से बेघर होते लोगो को देख आँसू बहाने वालों को शायद मालूम ही नहीं कि अपने ही देश में लाखों लोग बेहद जिल्लत और तकलीफों के साथ शरणार्थी बनने को मजबूर किये गए थें, जिस पर यदा-कदा ही चर्चा हुई। लेखिका रीता गुप्ता  कई लोग सवाल उठा रहें हैं कि 32 वर्षों के बाद इस वीभत्स घटना पर से पर्दा उठाना अनावश्यक है। तो वहीं कुछ लोग इस की गांभीर्य कथ्य में मनोरंजन के अभाव के कारण विचलित हो रहे हैं। फिर ऐसे लोगो की भी कमी नहीं है जो इस मूवी को राजनीति से जोड़ रहें हैं। कुछ लोग इसे डार्क व अवसादपूर्ण बता रहें। उन लोगो को भारी निराशा हुई होगी जो इसे एकपक्षीय मान दंगा और दुर्भावना की आशंका कर रहे थे। किसी समस्या का निदान उसे छिपाने, नज़रंदाज़ करने या उस पर चुप्पी साधने यानि शुतुरमर्ग बन जाने से नहीं होता। पहले हम स्वीकार करें कि समस्या है, तभी उसका हल भी निकलेगा। बिगाड़ के डर से ईमान की बात ना करके अब यह समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है। इस फ़िल्म में भी कई कमियां होंगी मगर इस फ़िल्म की सबसे बड़ी सफलता इस बात में है कि इसने कश्मीरी हिंदुओं के विस्थापन पर जो सालों से रुकी बहस, चर्चा थी उसे पूरे विश्व में आरंभ कर दिया है।       दुनिया भर में इस तरह की हिंसा पर काफी फ़िल्में बनी हैं। रवांडा में हुए नरसंहार पर ‘100 Days (2001)’ से लेकर ’94 Terror (2018)’ तक एक दर्जन फ़िल्में बनीं। हिटलर द्वारा यहूदियों के नरसंहार पर तो ‘The Pianist (2002)’ और ‘Schindler’s List’ (1993) जैसी दर्जनों फ़िल्में बन चुकी हैं। कंबोडिया के वामपंथी खमेर साम्राज्य पर The Killing Fields (1984) तो ऑटोमोन साम्राज्य द्वारा अर्मेनिया में कत्लेआम पर Ararat (2002) और ‘The Cut (2014)’ जैसी फ़िल्में दुनिया को मिलीं। holocaust Holocaust (1978) एक अमेरिकन सीरीज है जो जर्मनी के द्वारा यहूदियों की नर संहार की कहानी है।   बहरहाल “द कश्मीर फाइल्स” फिल्म की सफलता इस बात का द्योतक है कि बॉलीवुड फिल्मों के शौकीन सिर्फ नाच-गाना और कॉमेडी से इतर मुद्दों पर आधारित गंभीर कथानक भी पसंद करते हैं। सिनेमा एक सशक्त माध्यम है जनमानस तक पहुँचने का और ये फिल्म इसमें पूरी तरह सफल होती दिख रही है। इस फिल्म की सफलता भविष्य में भी गंभीर मुद्दों पर फिल्मांकन की राह प्रशस्त करती है। रीता गुप्ता Rita204b@gmail.com ये लेख प्रभात खबर की पत्रिका सुरभि में भी प्रकाशित है |   यह भी पढ़ें … राजी -“आखिर युद्ध क्यों होते है “सवाल उठाती बेहतरीन फिल्म फिल्म ड्रीम गर्ल के बहाने -एक तिलिस्म है पूजा फ्रोजन -एक बेहतरीन एनिमेटेड फिल्म कारवाँ -हँसी के माध्यम से जीवन के सन्देश देती सार्थक फिल्म आपको “द कश्मीर फाइल्स-फिल्म समीक्ष” लेख कैसा लगा ? अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराए | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबू पेज को लाइक करें |  

हमसाया

हमसाया

अंधेरी रात, सुनसान सड़क और एक अकेली लड़की .. ये पंक्तियाँ पढ़ते ही जब मन में एक भय तारी हो जाता है तो क्या बीतती होगी उस लड़की पर जो वास्तव में इन परिस्थितियों से गुजर रही हो ? क्या होता होगा जब ऐसे में कोई हमसाया बन उसका पीछा कर रहा हो | धड़कते दिल से मन -मन भर भारी हो चुके पैरों को आगे घसीटते हुए ना जाने कितने अखबारों की खौफनाक पंक्तियाँ याद आती होंगी |ऐसी ही मनोदशा से गुजरती एक लड़की की कहानी हमसाया       कुछ ही दिन हुए थे उस नए शहर में मुझे नौकरी ज्वाइन किये। हर दिन लगभग पांच-छः बजे मैं अपने ठिकाने यानि वर्किंग गर्ल्स हॉस्टल पहुँच जाती थी। उस दिन कुछ जरुरी काम निपटाते मुझे देर हो गयी। माँ की सीख याद आई कि रात के वक़्त रिज़र्व ऑटो में अकेले न जाना, सो शेयर्ड ऑटो ले मैं हॉस्टल की तरफ चल पड़ी। वह मुझे सड़क पर उतार आगे बढ़ गया, रात घिर आई थी, कोई नौ -साढ़े नौ होने को था। पक्की सड़क से हमारा हॉस्टल कोई आधा किलोमीटर अंदर गली में था।    अचानक गली के सूनेपन का दैत्य अपने पंजे गड़ाने लगा मानस पर। इक्के दुक्के लैंप पोस्ट नज़र आ रहें थें पर उनकी रौशनी मानो बीरबल की खिचड़ी ही पका रहीं थी। सामने पान वाले की गुमटी पर अलबत्ता कुछ रौशनी जरुर थी पर वहां कुछ लड़कों की मौजूदगी सिहरा रही थी जो जोर जोर से हंसते हुए माहौल को डरावना ही बना रहे थें। मैं सड़क पर गुमटी के विपरीत दिशा से नज़रें झुका जल्दी जल्दी पार होने लगी, “काश मैं अदृश्य हो जाऊं, कोई मुझे न देख पाए”,     कुछ ऐसे ही ख्याल मुझे आ रहें थें कि उनके समवेत ठहाकों ने मेरे होश उड़ा दिए। अचानक मैं मुड़ी तो देखा कि एक साया बिलकुल मेरे पीछे ही है। लम्बें -चौड़े डील डौल वाले उस शख्स को अपने इतने पास देख मेरे होश फाक्ता हो गएँ। घबरा कर मैंने पर्स को सीने से चिपका लिया और दौड़ने लगी। अब वह भी लम्बें डग भरता मेरे समांतर चलने लगा। अनिष्ट की आशंका से मन पानी-पानी होने लगा। “छोरियों को क्या जरुरत बाहर जा कर दूसरे शहर में नौकरी करने की”, दादी की चेतावनी अब याद आ रही थी। “दादी, सारी लडकियां आज कल पढ़-लिख कर पहले कुछ काम करतीं हैं तभी शादी करती हैं…”, इस दंभ की हवा निकल रही थी।  तभी एक कार बिलकुल मेरे पास आ कर धीमी हो गयी, जिसमें तेज म्यूजिक बज रहा था. दो लड़के शीशा नीचे कर कुछ अश्लील आमंत्रण से मेरे कान में पिघला शीशा डाल ही रहें थें कि उस हमसाये ने टार्च की रौशनी उनके चेहरे पर टिका दिया। शीशा ऊपर कर कार आगे बढ़ गयी। वह अब भी मेरे पीछे था, उसके टार्च की रौशनी मुझे राह दिखा रही थी पर उसके इरादे को सोच मैं पत्ते की तरह कांप रही थी।  “क्या देख रहा वह पीछे से रौशनी मार मुझ पर, शायद कार वाले इसके साथी होंगे और लौट कर आ ही रहे होगें ?”,  मैं अनिष्ट का अनुमान लगा ही रही थी कि तभी माँ का फ़ोन आ गया। “माँ, मैं बस पहुँचने वाली हूँ हॉस्टल, मुझे अब रौशनी दिखने लगी है….”, एक तरह से खुद को ही ढाढ़स बढाती मैं माँ से बातें करती कैंपस में प्रवेश कर गयी। तेजी से हाँफते मैं पहली मंजिल पर अपने रूम की तरफ दौड़ी। लगभग अर्ध बेहोशी हालत में बिस्तर पर गिर पड़ी। मेरी रूम मेट ने मुझे पानी पिलाया और एक साँस में मैं उस हमसाये की बात बता गयी जो मेरा पीछा करते गेट तक आ गया था. अब चौंकने की बारी मेरी थी,    “लगभग तीन महीने पहले इसी वर्किंग हॉस्टल के बगल घर में रजनी रहती थी। एक रात वह लौटी नहीं, अगले दिन सुबह गली की नुक्कड़ पर उसका क्षत-विक्षत लाश पाई गयी थी। ये उसके ही भाई हैं जो तब से हर रात गली में आने वाली हर अकेली लड़की को उसके ठिकाने तक पहुंचाते हैं”, सुनीला बोल रही थी और मैं रो रही थी. उठ कर खिड़की से देखा मेरा वह भला हमसाया दूर गली के अंधियारे में पीठ किये गुम हुए जा रहा था शायद किसी और लड़की को उसके ठिकाने तक सुरक्षित पहुँचाने. रीता गुप्ता   यह भी पढ़ें .. ढिगली:( कहानी) आशा पाण्डेय ओझा कहानी -कडवाहट पागल औरत (कहानी ) आपको कहानी हमसाया कैसी लगी ? अपने विचारों से हमें अवगत कराए | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबूक पेज को लाइक करें |

आजादी से निखरती बेटियाँ  

  कुछ दिन पहले एक मौल में शौपिंग कर रही थी कि पांच वर्ष से नौ दस वर्ष की तीन बहनों को देखा जो अपने पिता के पीछे पीछे चल रहीं थी. रैक पर सजे सामानों को छूती और ललचाई निगाहों से पिता की ओर देखती और झट से उसे छोड़ दूसरे चीजों को निहारने लगतीं. इतनी कम उम्र में हिजाब संभालती इन बच्चियों को देख साफ़ पता चल रहा था कि इन्हें यहाँ बहुत कुछ लेने की इच्छा है पर खरीदा वही जायेगा जो पिता चाहेंगें. दिखने में धनाड्य पिता धीर-गंभीर बना अपनी धुन में सामान उठा ट्राली में रख रहा था. वहीँ बच्चियों की माँ पीछे घसीटती हुई गोद के बच्चे को संभालती चल रही थी, जो कुछ भी छूने के पहले अपने पति का मुख देखती थी. अगल-बगल कई और परिवार भी घूम रहें थें, जहाँ बेटियाँ अपनी माँ को सुझाव दे रही थी या पिता पूछ रहें थें कि कुछ और लेनी है. उन बच्चियों को हसरत भरी निगाहों से स्मार्ट कपड़ों में घूमती उन दूसरी आत्मविश्वासी लड़कियों को निहारते देख, मेरे मन में आ रहा था कि जाने वे क्या सोच रही होंगी. उनकी कातरता बड़ी देर तक मन को कचोटते रही. इसी तरह देखती हूँ कि घरों में भाई अक्सर ज्यादा अच्छे होतें हैं पढने में कि वे डॉक्टर, अभियंता या कुछ और बढ़िया सी पढ़ाई कर बड़ी सी नौकरी करते हैं और उसी घर की लडकियां बेहद साधारण सी होती हैं पढ़ने में और अन्तोगत्वा साधारण पढ़ाई कर उनकी शादी हो जाती है. ऐसा कैसे होता कि लडकियां ही कमजोर निकलती हैं उनके भाई नहीं? कारण है भेदभाव जो आज भी अलिखित रूप से हमारे समाज में मौजूद है. बेटियों को ऊँचा सोचने के लिए आसमान ही नहीं मिलता है, बोलने को हिम्मत ही नहीं होती है, पाने को वो मौका ही नहीं मिलता है जो उनके पंख पसार उड़ने में सहायक बने. एक आम सी धारणा है कि बेटियों को दूसरे घर जाना है सो दबा के रखनी चाहिए. उनके मन की हर बात मान उन्हें बहकाना नहीं चाहिए क्यूंकि कल को जब वे ससुराल जाएँगी तो उन्हें तकलीफ होगा. इतनी टोका-टोकी और पाबंदियां बचपन से ही लगा दी जाती है कि बच्चियों का आत्मविश्वास कभी पनप ही नहीं पाता है. आज के युग में भी उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे वही काम करें वैसे ही करें जो उनकी माँ, दादी या बुआ कर चुकी हैं. बच्चियों को हर क्षण मानों एहसास दिलाया जाता है कि तुम लड़की हो और तुम इन अधिकारों की हकदार नहीं हो. तुम अकेले कहीं जा नहीं सकती हो, तुम अपनी पसंद के कपडे नहीं पहन सकती, तुम को अपने पिता-भाई की हर बात को माननी ही होगी. स्पोर्ट्स और पसंद के विषय चुनना तो दूर की बात है. ऐसा नहीं है कि समाज में बदलाव नहीं आया है. आया है और बेहद जोरदार तेजी से आया है. उच्च वर्ग और निम्न वर्ग तो सदैव पाबंदियों और वर्जनाओं से दूर रहा है. सारा प्रपंच तो मद्ध्य्म वर्ग के सर पर है. मद्ध्यम वर्ग में भी शहरी लोगो की सोच में बहुत बदलाव आ चुका है जो अपनी बेटियों को भी ज्यादा-कम आजादी दे रहें हैं. पूरी आजादी तो शायद अभी देश में किसी तबके और जगह की लड़कियों को नहीं मिली होगी. ‘आजादी’ देने का मतलब छोटे कपड़े पहनने, शराब पीना या देर रात बाहर घूमने से कतई नहीं होता है, ये तो बेटे या बेटी किसी के लिए भी अवारागार्दियों की छूट कहलाएगी. आजादी से मतलब है बेटी को ऐसे अधिकारों से लैस करना कि वह घर-बाहर कहीं भी खुल कर अपनी बात रख सके. उसका ऐसा बौद्धिक विकास हो सके कि वह अपने जीवन के निर्णयों के लिए पिता-भाई या पति पर आश्रित नहीं रहे. शिक्षा सिर्फ शादी के मकसद से न हो, सिर्फ धार्मिक पुस्तकों  तक ही सीमित न हो बल्कि बेटियों को इतना योग्य बनाना चाहिए ताकि वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो सके. बच्चियों के स्वाभाविक गुण व् रुझान की पहचान कर उसके विकास में सहयोग करना हर पालक का धर्म है. पालन ऐसा हो कि एक बेटी ‘अपने लिए भी जिया जाता है’, बचपन से सीख सके. वरना यहाँ मानों ‘ससुराल’ और सास’ के लिए ही किसी बेटी का लालन-पालन किया जाता है. अगर यही सोच सानिया मिर्जा, सायना नेहवाल, पी वी सिन्धु या गीता फोगाट के माता-पिता जी का होता तो देश कितनी प्रतिभाओं से के परिचय से भी वंचित रह जाता. बेटे-बेटियों के लालन-पालन का अन्तर अब टूटता दिख रहा है. उन्हें परवरिश के दौरान ही इतनी छूट दी जा रही है कि वह भी अपने भाई की तरह अपनी इच्छाओं को व्यक्त करने लगी है. ‘पराये घर जाना है’ या ‘ससुराल जा कर अपनी मन की करना’ बीते ज़माने के डायलाग होते जा रहें हैं. शादी की उम्र भी अब खींचती दिख रही है, पहले जैसे किसी लड़के के कमाने लायक होने के बाद ही शादी होती थी. आज लोग अपनी बेटियों के लिए भी यही सोच रखने लगें हैं. इस का असर समाज में दिखने लगा है, चंदा कोचर, इंदु जैन, इंदिरा नूई, किरण मजुमदार शॉ आज लड़कियों की रोल मॉडल बन चुकी हैं. परवरिश की सोच के बदलावों से बेटियों की प्रतिभाएं भी सामने आने लगी है. मानव संसाधन देश का सबसे बहुमूल्य संसाधन हैं. उनका विकास ही देश को विकसित बनता है. यदि आधी आबादी पिछड़ी हुई है तो देश का विकास भी असंभव है. जरुरत है प्रतिभाओं का विकास, उनको सही दिशा देना. फिर चाहे वह लड़का हो या लड़की, प्रतिभा को खोज उन्हें सामने लाना ही चाहिए. आजादी से निखरती ये बेटियाँ घर-परिवार-समाज के साथ साथ स्व और देश को भी विकसित कर रहीं हैं. बस जरुरत है कि हर कोई ‘आजादी और स्वछंदता’ के अंतर के भान का ज्ञान रखे. रीता गुप्ता RANCHI, Jharkhand-834008. email id koylavihar@gmail.com