डॉ. रंजना जायसवाल की कहानी डिनर सेट

डिनर सेट

  डॉ. रंजना जायसवाल जी की कहानी डिनर सेट आम परिवार की आम घटनाओं में आने वाले भविष्य का संकेत देती है | वैसे भी बड़ी जगहों पर तो ज्यादातर लोग अभिनय कर लेते हैं पर कई बार छोटी-चोटी चीजें हमारी सोच की पोल खोल देती हैं | जैसे नायिका निर्मला का ये कहना की, ““अरे ध्यान से उपहार खोलो,पैकिंग पेपर कितना सुंदर है।गड्ढे के नीचे दबाकर रख दूँगी सब सीधे हो जाएंगे।किसी को लेने-देने में काम आ जाएंगे।” आम मध्यम वर्गीय गृहणी की एक-एक रुपये बचाने कि जुगत को खोल देता है | अब ये   डिनर सेट .. किस ओर इशारा कर रहा है | और निर्मला किस खूबसूरती से उसे निर्मूल करने की परिवार को बांधे रखने वाली स्त्री कि तरह प्रयास कर रही है ?  आइए पढे  डॉ. रंजना जायसवालजी की कहानी    डिनर सेट   मेहमान सब चले गए थे,घर समेटते-समेटते हाथ दुखने लगे थे। पारुल को इस घर में आये चार ही दिन तो हुए थे,नई-नवेली दुल्हन से कुछ काम कहते बनता भी नहीं था।तभी सक्सेना जी ने आवाज लगाई।  “निर्मला! काम होता रहेगा,लगे हाथ शादी में आये उपहारों को भी देख लो।कल हमें भी तो देना होगा।” ये काम निर्मला को सबसे ज्यादा खराब लगता था।सक्सेना जी को बातों का पोस्टमार्टम करने में बड़ी मजा आता था।अरे भाई किसी से उपहार लेने के लिए थोड़ी आमंत्रित करते हैं।आदमी की अपनी श्रद्धा और सोच जैसा चाहे वैसा दे।कोई रिश्तेदार या जान-पहचान वाला सस्ता उपहार दे दे तो सक्सेना जी हत्थे से उखड़ जाते। “ऐसे कैसे दे दिया कम से कम हमारी हैसियत तो देखनी चाहिए थी।लोग एक बार भी सोचते नहीं कि किसके घर दे रहे हैं।” और अगर कोई अच्छा उपहार दे दे तो…? “इसमें कौन सी बड़ी बात है भगवान ने दिया है तो दे रहे हैं।” निर्मला कहती, “हमें भी तो उन्हें देना पड़ेगा सिर्फ लेना ही तो संभव नहीं है।” “हमारा उनसे क्या मुकाबला वह चाहे तो इससे भी अच्छा दे सकते थे खैर…” सक्सेना जी ने अपने बेटे आयुष और बहू पारुल को आवाज लगाई। “आयुष!मम्मी का लाल वाला पर्स अलमारी से निकाल लाओ और वहीं बगल में गिफ्ट्स भी रखे हैं। पारुल बेटा ये डायरी और पेन पकड़ो और लिखती जाओ।” “जी पापा!” “आप भी न हर बात की जल्दी रहती है आपको…घर में इतने सारे काम पड़े हैं।अरे हो जाता ऐसी भी क्या जल्दी है।” निर्मला ने बड़बड़ाते हुए कहा, रंग-बिरंगों कागजों में लिपटे उपहार कितने खूबसूरत लग रहे थे।ये उपहार भी कितनी गजब की चीज़ हैं, कुछ के लिए भावनाओं के उदगार को दिखाने का माध्यम बनते हैं तो कुछ के लिए सिर्फ औपचारिकता…पुष्प गुच्छ उसे कभी समझ नहीं आते थे।कभी-कभी लगता सामान देने का मन नहीं, लिफाफा बजट से ऊपर जा रहा तो इसे ही देकर टरका दो। खुशियों की तरह इनकी जिंदगी भी आखिर कितनी होती है। “अरे ध्यान से उपहार खोलो,पैकिंग पेपर कितना सुंदर है।गड्ढे के नीचे दबाकर रख दूँगी सब सीधे हो जाएंगे।किसी को लेने-देने में काम आ जाएंगे।” निर्मला ने हाँक लगाई, “क्या मम्मी तुम भी न यहाँ लाखों रुपये शादी में ख़र्च हो गए और तुम वही दस-बीस रुपये बचाने की बात करती हो।” नई-नवेली पारुल के सामने आयुष का यूँ झिड़कना निर्मला को रास नहीं आया पर क्या कहती…हम गृहणियाँ इन छोटी-छोटी बचतों से ही खुश हो जाती हैं। उनकी इस खुशी का अंदाजा पुरुष नहीं लगा सकते। लाखों के गहने खरीदने में उन्हें उतनी खुशी नहीं होती जितनी उसके साथ मिलने वाली मखमली डिबिया, जूट बैग या फिर कैलेंडर के मिलने पर होती है। चार सौ रुपये की सब्जी के साथ दस रुपये की धनिया मुफ्त पाने के लिए वे दो किलोमीटर दूर सब्जी बेचने वाले के पास जाने में भी वे गुरेज नहीं करती। दाँत साफ करने से शुरू होकर ,कुकर के रबड़ साफ करने तक  वे एक ही टूथब्रश का इस्तेमाल करती हैं।उनकी यह यात्रा यहाँ पर भी समाप्त नहीं होती,ब्रश के एक भी बाल न बचने की स्थिति में वो पेटीकोट और पायजामें में नाड़ा डालने में उसका सदुपयोग करती हैं। ये आजकल के बच्चे क्या जानेंगे कि एक औरत किस-किस तरह से जुगाड़कर गृहस्थी को चलाती है। नींबू की आखिरी बूंद तक निचोड़ने के बाद भी उसकी आत्मा तृप्त नहीं होती और वो नींबू के मरे हुए शरीर को भी तवे और कढ़ाही साफ करने में प्रयोग में लाती हैं। निर्मला चुप थी नई-नवेली बहू के सामने कहती भी तो क्या…? तभी निर्मला की नजर पारूल पर पड़ी,वो न जाने कब रसोईघर से चाकू ले आई थी और सर झुकाए अपने मेंहदी लगे हुए हाथों से सावधानी से धीरे-धीरे सेलोटेप को काट रही रही थी।बगल में ही उपहारों में चढ़े रंगीन कागज तह लगे हुए रखे हुए थे।पारुल की निगाह निर्मला से टकरा गई,निर्मला की आँखों मे चमक आ गई।दिल में एक भरोसा जाग गया,उसकी गृहस्थी सही हाथों में जा रही है।उसे अब इस घर की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। पारुल पढ़ी-लिखी लड़की है वो अच्छे से उसकी गृहस्थी सम्भाल लेगी। “ये जो इतना रायता फैला रखा पहले इसे समेटो। ऐसा है पहले ये सारे उपहार खोलकर नाम लिखवा दो,फिर लिफाफे देखना।” निर्मला ने आयुष से कहा ,किसी में बेडशीट, किसी में गुलदस्ता,किसी में पेंटिंग तो किसी में घड़ी थी।  “जरा संभालकर!शायद कुछ काँच का है।कहीं टूट न जाये।” निर्मला के अनुभवी कानों ने आवाज से ही अंदाजा लगा लिया। “माँ!देखो कितना सुंदर डिनर सेट है।” आयुष ने हुलस कर कहा,निर्मला ने डिनर सेट की प्लेट पर प्यार से हाथ फेरा। “निर्मला जरा इधर तो दिखाओ,किसने दिया है भाई बड़ा सुंदर है।” “मथुरा वाली दीदी ने दिया है, कितना सुंदर है न?” “हम्म!पर इसमे तो सिर्फ चार प्लेट और चार कटोरियाँ है। ये कौन सा फैशन है।आजकल की कंपनियों के चोंचले समझ ही नहीं आते।” “समझना क्या है ठीक तो है।माँ-बाप और बच्चे ।” “और हम?” सक्सेना जी ने दबे स्वर में कहा,सक्सेना जी का चेहरा उतर गया था,निर्मला कुछ-कुछ समझ रही थी।आखिर तीस साल  साथ बिताए थे ।निर्मला ने हमेशा की तरफ बात को संभाला, “वो भी तो वही कह रहा है, माँ-बाप और बच्चे।” सक्सेना जी ने दबे स्वर में बड़बड़ाते हुए कहा कौन से माँ-बाप और कौन से बच्चे… … Read more