दोस्ती
कोई भी रिश्ता हो अगर वहां दोस्ती का भाव हो तो वो रिश्ता अच्छा होता है | पति -पत्नी के रिश्तों में अक्सर अपेक्षाओं का बोझ होता है | क्या ही अच्छा हो कि दोनों एक दूसरे के सबसे अच्छे दोस्त हों | ऐसी ही प्यारी सी कहानी ले कर आयीं हैं रश्मि वर्मा जी जहाँ रिश्ता शादी की पहली रात ही अटक गया …लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि कहानी -दोस्ती आकांक्षा अपने आप में सिमटी हुई सजी हुई दुल्हन बनी सेज पर पिया के इंतज़ार में घड़ियां गिन रही थी। अचानक दरवाज़ा खुला, आकांक्षा की धड़कनें और बढ़ गईं। पर यह क्या? अनिकेत अंदर आए। दूल्हे के भारी-भरकम कपड़े बदले और नाइटसूट पहन कर बोले, “आप भी थक गई होंगी। प्लीज़, कपड़े बदलकर सो जाएं. मुझे भी सुबह ऑफ़िस जाना है।” आकांक्षा का सिर फूलों और जूड़े से पहले ही भारी हो रहा था, आंखें बंद-बंद हो रही थीं। सुनकर झटका लगा, पर कहीं राहत की सांस भी ली। अपने सूटकेस से ख़ूबसूरत नाइटी निकालकर पहनी और वो भी बिस्तर पर एक तरफ़ लुढ़क गई। अजीब थी सुहागसेज। दो अनजान जिस्म जिन्हें एक करने में दोनों के परिवारवालों ने इतनी ज़हमत उठाई थी, बिना एक हुए ही रात गुज़ार रहे थे। फूलों को भी अपमान महसूस हुआ, वरना उनकी ख़ुशबू अच्छे-अच्छों को मदहोश कर दे। अगले दिन नींद खुली तो देखा कि अनिकेतऑफ़िस के लिए जा चुके थे। आकांक्षा ने एक भरपूर अंगड़ाई लेकर घर का जायज़ा लिया। दो कमरों का फ़्लैट, बालकनी समेत, अनिकेत को ऑफ़िस से मिला था। अनिकेत एयरलाइन में काम करता है। कमर्शियल विभाग में। आकांक्षा भी एक छोटी सी एयरलाइन में परिचालन विभाग में काम करती थी। दोनों के पिता आपस में दोस्त थे और उनका यह फ़ैसला था कि अनिकेत और आकांक्षा एक दूसरे के लिए परफ़ेक्ट मैच रहेंगे। आकांक्षा को पिता के फ़ैसले से कोई आपत्ति नहीं थी। पर अनिकेत ने पिता के दबाव में आकर विवाह का बंधन स्वीकार किया था। आकांक्षा ने ऑफ़िस से एक हफ़्ते की छुट्टी ली थी। सबसे पहले किचन में जाकर एक कड़क चाय बनाई, फिर चाय की चुस्कियों के साथ घर को संवारने का प्लान बनाया। शाम को अनिकेत के लौटने पर घर का कोना-कोना दमक रहा था। जैसे अनिकेत ने घर में क़दम रखा, एक सुरुचि से सजे घर को देखकर लगा क्या यह वही घर है जो रोज़ अस्तव्यस्त होता था। खाने की ख़ुशबू भी उसकी भूख को बढ़ा रही थी। आकांक्षा चहकते हुए बोली, “आपका दिन कैसा रहा?”“ठीक।” एक संक्षिप्त सा उत्तर देकर अनिकेत डाइनिंग टेबल पर पहुंचे। जल्दी से खाना खाया और सीधे बिस्तर पर। औरत ज़्यादा नहीं पर दो बोल दो तारीफ़ के चाहती ही है, पर आकांक्षा को वे भी नहीं मिले। पांच दिन तक यही दिनचर्या चलती रही। छठे दिन आकांक्षा ने सोने से पहले अनिकेत का रास्ता रोक लिया। “आप प्लीज़ पांच मिनट बात करेंगे?” “मुझे सोना है,”अनिकेत ने चिर-परिचित अंदाज़ में बोला। “प्लीज़, कल से मुझे भी ऑफ़िस जाना है। आज तो पांच मिनट निकाल लीजिए।” “बोलो, क्या कहना चाहती हो,”अनिकेत अनमने भाव से बोले। “आप मुझसे नाराज़ हैं या शादी से?” “क्या मतलब?” “आप जानते हैं मैं क्या जानना चाहती हूं।” “प्लीज़ डैडी से बात करो, जिनका फ़ैसला था।” “पर शादी तो आपने की है?” आकांक्षा को भी ग़ुस्सा आ गया। “जानता हूं। और कुछ?”अनिकेत चिढ़कर बोला। आकांक्षा समझ गई कि अब बात सुलझने की जगह बिगड़ने वाली है। “क्या यह शादी आपकी मर्ज़ी से नहीं हुई है?” “नहीं। और कुछ?” “अच्छा, ठीक है। पर एक विनती है आपसे।“ “क्या?” “क्या हम कुछ दिन दोस्तों की तरह रह सकते हैं?” “मतलब?”अनिकेत को आश्चर्य हुआ। “यही कि एक महीने बाद मेरा इंटरव्यू है। मुझे मेरा लाइसेंस मिल जाएगा, और फिर मैं आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका चली जाऊंगी। तीन साल के लिए। उस दौरान आपको जो उचित लगे, वो फ़ैसला ले लीजिएगा। यक़ीन मानिए आपको कोई परेशानी नहीं होगी।” अनिकेत तो इसमें कोई आपत्ति नहीं लगी। हां, अब दोनों साथ-साथ नाश्ता करने लगे। शाम को घूमने भी जाने लगे। होटल, रेस्तरां, यहां तक कि सिनेमा भी। आकांक्षा कॉलेज गर्ल की तरह ही कपड़े पहनती थी, न कि नई-नवेली दुल्हन की तरह। उन्हें साथ देखकर कोई युगल प्रेमी समझ सकता था, पर पति-पत्नी तो बिल्कुल नहीं। कैफ़े कॉफ़ी डे हो या काके दा होटल, दोस्तों के लिए हर जगह बातों का अड्डा होती हैं। और आकांक्षा के पास तो बातों का ख़ज़ाना था। धीरे-धीरे अनिकेत को भी उसकी बातों में रस आने लगा। उसने भी अपने दिल की बातें खोलनी शुरू कर दीं। एक दिन रात को ऑफ़िस से अनिकेत लेट आया और उसे ज़ोरों से भूख लगी थी। घर में देखा तो आकांक्षा पढ़ाई कर रही थी। खाने का कोई अता-पता नहीं था। “आज खाने का क्या हुआ?” “सॉरी। आज पढ़ते-पढ़ते सब भूल गई।“ “वो तो ठीक है। पर अब क्या?” “एक काम कर सकते हैं।” आकांक्षा को आइडिया आया। “मैंने सुना है मूलचंद फ़्लाईओवर के नीचे आधी रात तक परांठे और चाय मिलती है। क्यों न आज हम वही ट्राई करें?” “क्या?”अनिकेत का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया। “हां, हां। मेरे ऑफ़िस के काफ़ी लोग जाते रहते हैं। आज हम भी चलते हैं।“ “ठीक है। कपड़े बदलो। चलते हैं।” “अरे, कपड़े क्या बदलने हैं? ट्रैक सूट में ही चलती हूं। बाइक पर बढ़िया रहेगा। हमें वहां कौन जानता है?” अनिकेत ने फ़टाफ़ट बाइक दौड़ाई। मूलचंद पर परांठे-चाय अनिकेत के लिए भी बिलकुल अलग अनुभव था। आख़िर वो दिन भी आ ही गया जब आकांक्षा का इंटरव्यू था। सुबह-सुबह घर का काम निबटाकर आकांक्षा फ़टाफ़ट डीजीसीए के लिए रवाना हो गई।वहां उसके और भी साथी पहले से ही मौजूद थे। नियत समय पर इंटरव्यू हुआ। आकांक्षा के जवाबों ने एफ़आईडी को भी ख़ुश कर दिया। उन्होंने कहा, “जाइए, अपने दोस्तों को भी बताइए कि आप सब पास हो गए हैं।” आकांक्षा दौड़ते हुए बाहर आई और फ़िल्मीअंदाज़ में टाई उतारकर बोली, “हे गाइज़! वी ऑलक्लियर्ड।” बस जश्न का माहौल बन गया। ख़ुशी-ख़ुशी सब बाहर आए। आकांक्षा सोच रही थी कि बस ले या ऑटो। तभी उसका ध्यान गया कि पेड़ के नीचे अनिकेत उसका इंतज़ार कर रहे हैं। आकांक्षा दौड़ती हुई … Read more