वसीयत
बिन ब्याही बेटियाँ, तलकशुदा, परित्यक्ता या विधवा महिलायें सदियों से उस घर पर बोझ समझी गईं जिस के आँगन की मिट्टी में खेल कर बड़ी हुई, जिन्होंने अपनी कच्ची उम्र अपने छोटे भाई बहनों को पालने में बिता दी , और विवाह से पहले के हर दिन माँ के साथ घर की देखभाल में खपने खटने में | उन्हीं का जीवन जब पति की छाया से दूर हुआ तो मायके बाहें नहीं पसारी, भाई-भौजाइयों ने मुँह बिचकाया, और अपने ही घर में वो बन गई बोझ | एक दुख के साथ उनके नसीब में लिख दिया गया हाड़ -तोड़ काम और बदले में ढेर सारे ताने और दो जून की रोटी .. घर की चारदीवारी के अंदर सदियों तक लिखी जाती रही स्त्री शोषण की सबसे दारुण कहानी | उनके घावों पर मरहम बन कर आया वो कानून जो लड़की को भी पिता की संपत्ति में हक देता है | पर क्या सब लड़कियाँ वसीयत पर अपना जानती है ? क्या सब जीवन भर को भाई का प्रेम छोड़ने को तैयार हैं ? क्या सब अकेले रहने की हिम्मत कर पाती हैं ? बहुत से सवाल हैं लड़कियों के सामने पर सवालों में उलझने से कहीं ज्यादा जरूरी है जवाबों की ओर कदम बढ़ाना | आइए पढ़ते हैं कलम की धनी सुपरिचित लेखिका आशा पाण्डेय जी की एक ऐसी ही अनब्याही लड़की की बेहतरीन कहानी वसीयत यहीं, इसी जगह पर पहले एक चाल हुआ करती थी | उसमें चार खोली हमारी थी | उधर , आनंद अपार्टमेंट के सामने वाले उस फ्लैट में तो हम बाद में गए थे | पहले यहाँ से दिखता था वो फ्लैट | अब तो देखो, बीच में ये इतने फ़्लैट हो गए ! यहाँ मुंबई का तो पूछो मत , हर महीने एक नया फ़्लैट उग आता है | तो उस साल म्हाडा की स्कीम इस इलाके के लिए भी आई थी | मेरे भाई ने भी फार्म भर दिया | उसका नसीब देखो , लग गया उसका नम्बर ! उस समय उसके पास पूरे पैसे भी नहीं थे | इधर-उधर से मांग के भी कम पड़ रहे थे | मेरी भाभी ने भाई को सुझाया कि माँ के गहने बेच दो , आखिर गहने इन्हीं दिनों के लिए तो होते हैं | भाई ने गहने बेच दिये | अच्छे पैसे मिले थे माँ के गहनों से … पुराने जमाने के एकदम शुद्ध सोने के मोटे-मोटे चार कड़े थे , गले की मोटी – सी चेन थी , दादी की दी हुई सोने की मोटी करधनी भी थी | अंगूठियाँ ,बुँदे तो कई-कई जोड़ थे माँ के पास | कुछ उसे शादी में मिले थे , कुछ मेरी दादी ने दिया था | माँ जब तक रहीं अपने गहनों को संभाल कर रखीं , तभी तो भाई के काम आये वो गहने | उधर हमारा फ़्लैट चौथे माले पर था | उस माले पर चार फ़्लैट और थे | सारे वन बी .एच. के. | एक हाल , एक बेडरूम , एक किचन , | रसोई मिलाकर बस तीन कमरे , रहने वाले हम पांच जन – मैं ,मेरा भाई , मेरी भाभी और उसके दो बच्चे –एक बेटा , एक बेटी | मैं सुबह उठकर घर में झाड़ू-पोछा करती , बरतन मांजती , दुकान से दूध और ब्रेड ले आती , सब्जी-भाजी काट लेती , आटा गूँथ कर रख लेती | तब तक मेरी भाभी भी उठ जाती | मेरी भाभी को घर में भीड़-भाड अच्छी नहीं लगती थी, इसलिए उनके उठने के बाद मैं हाल से लगकर ऊपर जाने वाली सीढ़ियों पर बैठ जाती थी | लोग लिफ्ट से ऊपर –नीचे आते- जाते थे न , इसलिए सीढ़ियाँ खाली ही रहती थीं और मुझे बैठने का स्थान मिल जाता था | नाश्ता और खाना भाभी ही बनाती थीं | मुझे देख कर उन्हें घिन आ जाती थी … वो मेरे दांत थोड़े बड़े और भद्दे थे न , इसलिए | जब तक खाना बनता था , मुझे रसोई में जाने की इजाज़त नहीं थी | जब भाभी सबका टिफिन भरकर तैयार कर देती थीं और खुद भी अपना टिफिन लेकर डयूटी पर निकल जाती थीं , तब मैं रसोई में जाती थी | नाश्ता- खाना जो कुछ भी रहता था , खा लेती थी और फिर से किचन की सफाई करती , बरतन मांजती , कपड़े धोती और दोपहर में बैठकर टी . बी . देखती | मेरी भतीजी मीता जब बड़ी हुई तो उसकी शादी हो गई | पर कैसे – कैसे तो लोग हैं इस दुनिया में | बेचारी को ठीक से रक्खे ही नहीं, आ गई लौटकर | कुछ दिन बाद उसका तलाक हो गया | उसे देख-देख कर मेरा मन भीतर ही भीतर बहुत रोता था | अब मेरी भतीजी भी घर में रहने लगी | अब दोपहर में हम दोनों साथ-साथ बैठकर टी . बी . देखते | वह दीवान पर बैठ जाती , मैं नीचे फर्श पर | वह मुझसे घिनाती नहीं थी | भाभी की छुट्टी वाले दिन मैं काम करके पूरी दोपहर सीढियों पर ही बैठी रहती थी | अन्य दिनों में तो कोई दिक्कत नहीं होती थी पर बरसात में पानी की बौछार सीढ़ियों तक आ जाती थी | मेरे घर के सामने वाले फ़्लैट में शिंदे परिवार रहने आया | शिंदे भाभी और मेरी भाभी कभी-कभी बात-चीत करती थीं | लिफ्ट से ऊपर-नीचे आते-जाते समय जब उन्हें मैं सीढ़ियों पर बैठी दिख जाती थी तब वो मेरा भी हाल-चाल पूछ लेती थी | मेरे होंठ बहुत अधिक न फ़ैल जाएँ इस बात का ध्यान रखते हुए मैं धीरे से मुस्करा देती थी | मुस्कराने के अलावा मैंने उन्हें कभी कोई जवाब दिया ही नहीं | धीरे-धीरे उन्होंने मुझसे कुछ पूछना छोड़ दिया पर सामने पड़ने पर मुस्करा जरुर देतीं थीं | मेरी भाभी कहती थीं कि मेरे दांत गंदे हैं तो मैं सोचती थी कि जैसे भाभी को मेरे दांतों की घिन है वैसे दूसरों को भी होगी | बस , इसलिए मैंने सब से बोलना , मुस्कराना छोड़ दिया था | एक दिन जब मेरी भाभी की छुट्टी थी , उन्होंने पकौड़े बनाये | एक प्लेट में पकौड़े भरकर उन्होंने … Read more