और हार गई जिन्दगी


                                                                          







और हार गई जिन्दगी


 बरसात का उतरता मौसम,कभी उमस,कभी ठण्ड का अहसास करवाता है। रात में देर से आँख लगी थी तो ऐसे में सुबह नींद थोड़ा ज्यादा ही सताती है। तेज घंटी की आवाज उनींदी आँखे खुलने से और कान का साथ देने से इंकार कर रहे थें पर लगातार बजती घंटी की आवाज उठकर दरवाजा खोलने पर मजबूर कर दी। दरवाजा खोल ठीक से देख भी न पाई थी की आवाज आई ” आंटीजी मम्मी आज काम करने नहीं आयेगी।” क्यों क्या हुआ फोटो जो तुम्हारी मम्मी काम करने नहीं आयेगी,नींद के झोंको में डोलती मैं पूछी। “मम्मी रात मर गई,अभी भी हॉस्पिटल में ही तो है भैया मेरा बोला की जाओ आंटी को बोल आओ नहीं तो मम्मी का इंतजार करेगी,तो मैं आ गई।” उसकी बात को सुनने,समझने और उसके बाद स्वीकार करने में मेरा शरीर,मन सभी जागृत हो गये। वो बच्ची सच्चाई को भावविहीन बयां कर रही थी और मैं अवाक्,निश्चल खड़ी  थी। काफी देर बाद मैं वस्तुस्थिति से तालमेल बैठा पाई। “फोटो क्या हुआ था,कैसे तुम्हारी मम्मी मर गई,कब हुआ ये सब ,तुम्हारी मम्मी कल शाम तो काम करके गई है मेरे घर से।”  हालाँकि बोलते हुए भी मैं बखूबी जानती हूँ कि रातभर का क्या,जिंदगी गंवाने में वक़्त ही कितना लगता है। मैं ज्यादा बोल नहीं पा रही थी ,दुःख के कारन जिव्हा बैचनी में तालू से सटा जा रहा था। “जानती हैं आंटीजी माई रात जीजा के साथ दारू पी  रही थी,बहुत पी ली थी किसी का नहीं सुन रही थी ,जीजा से किसी बात का झगड़ा हो गया था,जीजा भी खूब गुस्सा हो गया था। माई भी खूब चिल्ला रही थी,जीजा कुल्हारी उठा माई को काट दिया। भैया माई को ठेला पे लाद के हॉस्पिटल लाया पर माई १-२ घंटे में ही मर गई।”मैं दुःख से कातर हुई जा रही थी पर वो छोटी बच्ची शायद समझ भी नहीं पा रही थी कि क्या हो गया है। उसके साथ भगवान कितना बड़ा अन्याय कर दिये हैं। कदाचित सड़क पे पलती जिंदगी  यूँही बेभाव पल जाती है। जिंदगी हो या और कुछ,संवरने में ज्यादा वक़्त लगता है बिगड़ने के लिए कुछ ही वक़्त काफी है। 


                       उस बच्ची फोटो के जाने के बाद  दरवाजा बंद कर वही दीवान पे बैठ गई। दुःख-बैचनी के कारन नींद आँखों से उड़ गई थी। उसकी जगह पिछली सारी  बातें जेहन को उकेरने  लगा। ३साल भी तो अभी पुरे नहीं हुए हैं। यहाँ क्वार्टर में शिफ्ट करने पर दाई की खोज कर रही थी। नई जगह है मेरे लिए पूछने पे पता चला की कॉलोनी के सामने सड़क के उस पार दाइयों की भरी-पूरी बड़ी सी बस्ती है।  यहाँ बैठके बुलवाने की जगह सुबह उठके टहलते हुए मैं ही चली गई थी बस्ती में। बस्ती का पहला घर कालिया का ही था। हाँ जिसकी बात मैं कर रही हूँ उसका नाम कालिया ही था। माँ-बाप ने आबनूसी रंग देखकर ही काली नाम रखा जो कालक्रम में पुकार में कालिया हो गया। ऊँचा -लम्बा,भरा-पूरा शरीर,ऊँचा कपाल,छोटी सी नाक। हँसने पे पीले लम्बे दांत निकल जाते थें। एक दन्त में थाती के तौर पर चांदी जड़ा था। मैं जिसवक़्त वहां पहुंची वो पूरा चिल्लाके किसी को गाली दे रही थी। मुझे सामने देखते मुँह बंद कर ली। तुम्हारे बस्ती में कोई दाई मिलेगी क्या?मैं  कॉलोनी के बड़े क्वार्टर . में शिफ्ट की हूँ। सुनते ही चेहरे पे स्मित आ गई। “हाँ दीदी क्यों नहीं,बहुत सारी है पर हम भी काम करते हैं,आप क्यों आई हैं ड्राइवर से बुलवा लिया होता। हम १० बजे तक आ  जायेंगे काम करने।” मैं लौट आई पर पेशोपेश में पड़ गई। डर लग रहा था इतनी कर्कश और इतनी खूंखार,भगवान जाने कैसा काम करेगी। १० बजे से इंतजार कराके ११ बजे वो आई और फिर कल शाम तक आते रही। मतलब 
अपनी मौत आने के पहले तक वो मेरे साथ अपना दायित्व और साथ निभाते रही है। इन कुछेक सालों में ही मैं उसे पूरी तरह पहचान गई थी। वो मेरे इतने करीब आ गई थी कि कोई काम करनेवाली भी आ सकती है विश्वास नहीं आ रहा है। गले में कुछ अटक सा गया है उसके हमेशा के लिये चले जाना सोचकर। 
                           काले रंग के भीतर एक जागरूक और सफ़ेद चरित्र था उसका। समय पे आना,मन लगाके साफ काम करना। न चोरी-चमारी ना ही किसी तरह का लालच। मैं उसे निरख़्ती थी तो वो भी मेरी अन्यमस्कता धीरे-धीरे पहचानती गई,फिर मेरे मेरे करीब आते गई थी और कितने सारे काम खुद ब खुद करने लगी थी। मैं उसके गुणों पर मुग्ध रहती थी। कितना उठाके उसे दे दूँ समझ नहीं आता था। मन मिलते गया और काफी हदतक वो दोस्त जैसी होते गई। जबतक उससे घण्टों गप्प ना कर लूँ  ,मन ही नहीं लगता था।
                       ,फिर धीरे-धीरे ये गप्प मन लगाने और कामकाज से ऊपर उठ सामाजिक सरोकार तक पहुँच गया।मुझे तो घर-गृहस्थी से इतर कुछ करने नहीं दिया गया तो मैं कलिया के पीठ पर खड़ी उससे कुछ-कुछ करवाते जा रही थी।  खली समय में उसे अक्षरज्ञान करवाती थी ,गिनती-पहाड़ा रटवाती थी कि कुछ मूलभूत ज्ञान उसे हो जाये। दिमाग की भी कलिया  काफी तेज थी।  कुछ महीनो में ही कितनी आत्मसात कर ली ,कितना कुछ सीख गई थी। शब्द-शब्द मिलाके किताब,अख़बार पढ़ना सीख गई थी। सोचके खुद पे हंसती थी कि कोई घर के कामो के लिये दाई  रखती है,मैं उससे गप्प मारने,कुछ सीखाने,कुछ सीखने की भी अपेक्षा रखने लगी थी। किसी कारणवश एकदिन भी नहीं आई  तो मन दूसरी तरफ लगाना पड़ता था। बहुत कुछ बताती थी कलिया अपनी बस्ती की,रीति-रिवाजों कि, संस्कारों  की। गरीबी और अभावों के भीतर भी एक जूझती जिंदगी होती है जो चलती रहती है और परवान भी चढ़ती है। 
                    कलिया को दारू से सख्त चिढ थी जबकि इनलोगों में तो औरतें भी जोशोखरोश से दारू पीती  है। “जानती हैं दीदी मेरे ७ बच्चे हैं,५ बेटा और २ बेटी। मेरे पति को पीने  से फुर्सत ही नहीं है। जो कभी-कभी कमाता है दारू पी कर उड़ा देता है,फिर मेरे कमाई पर भी हाथ साफ करना चाहता है। हमलोगों में मर्द नहीं भी कमा के निश्चिन्त रहता है कि हमारी औरतें घर और बच्चा सम्भाल लेंगी। मैं  दीदी खूब लड़ती हूँ,बस्ती की सभी औरतों को बोली हूँ कि विरोध करो ,कमाके लाओ तो रोटी खाओ,दारू पीओ। लेकिन औरतें मार से डर जाती है।” मैं  भी साहस का पाठ पढ़ाती कि तुम सभी एक होके रहो,अपना दुःख साझा करो,किसी को उसका पति पीटता है किसी भी वक़्त,तुम सभी मिलके उसे पीटो,अधमुआ करके बस्ती के बाहर खदेड़ दो,तीमारदारी मत करो। यदि सच में इनलोगों के मर्द रोज़-रोज़ दारू पीना बंद कर पैसा घर लाएं तो दोनों की कमाई इतनी अच्छी राशि के रूप में नज़र आएगी कि ये लोग काफी आराम और शानोशौकत से रह सकेंगे। 
                      कलिया की हिम्मत,बुद्धि,कुशाग्रता पे मुग्ध होती मैं उसे आगे की प्लानिंग सिखलाती। कलिया को साफसुथरा रहना,घर बच्चों को सम्भालना ,औरत के स्वास्थ से जुडी जानकारी ,फैमिली प्लानिंग बगैरह सिखलाती और बोलती जाओ अपने बस्ती में सभी को सिखलाओ। कलिया स्फूर्ति,जागरूकता के साथ बाकायदे सभी का क्लास लेती। “देखो दीदी ५ मर्द को मैं भी तो पैदा की हूँ,१ पति है,२ दामाद है जो बगल में ही झोपडी डाल लिया है। सोचिये अभी से नहीं चेतूँगी तो ये ८ मर्द बैठके दारू पियेगा,मेरी बहु-बेटी कमाएगी भी और मार भी खायेगी। पति को तो इतना धिक्कार के रखी  हूँ कि मज़ाल है जो मुझे मार ले।”
                           वक़्त गुजरते जा रहा था। कलिया से एक तादात्म्य स्थापित हो गया लगता था। उसको माध्यम बना मैं गौरवान्वित महसूस करती थी। ४-५ महीनो के लिए कुछ कार्यवश मुझे ससुराल जाना पड़ा,कलिया के ऊपर ही घर की सभी जिम्मेवारियाँ सौप के। इतने सुथरे ढंग से वो सभी काम करने लगी कि मैं भी स्थिर हो के सभी काम निपटा के ही लौटी। आने पे लगा कि कलिया कुछ मुरझाई,उदास,खोई-खोई सी है पर अपनी व्यस्तता में उसपर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाई। कुछ दिनों के बाद काम करने आई तो मैं चौंक गई …..कलिया के पैर लड़खड़ा रहे थें,बोली लटपटा  रही थी। अपनी आँखों पे मुझे खुद विश्वास नहीं हो रहा था। आँधियाँ सी चलने लगी दिमाग में की ऐसा क्या हुआ होगा आखिर कि कलिया बेलन के बदले बोतल उठा ली। फिर कलिया हमसे कटने लगी,मुँह चुराने लगी। अपने बदले बहु को काम करने भेजने लगी। बहु से ही मैं बहुत कुछ जान पाई थी। जो कलिया मेरे आत्मबल के आधार पर अपने पति और समाज के सामने तन के खड़ी हो गई थी,मेरे न रहने पर वो अपने बेटों और दो  दामाद  के सामने हार गई। मर्द के समाज में औरत सिद्ध हो कमजोर पड़ गई,फिर कमजोरी गले लगाके बिखर गई। एक जीती हुई बाज़ी क्रमशः वो हारने लगी। जीत हार  में जब पूर्णतः हो गई,वो दुनिया छोड़ गई। इतनी हिम्मती होके क्यों तुम कलिया कायर हो गई। अभावों की खाई पाटके  भरीपुरी जिंदगी तुम खुद बनाई फिर क्यूँ मुँह फेर ली। 
               शायद उसके रूप में मैं हार चुकी हूँ। मेरा आत्मबल भी कही गिरवी रह गया। मेरी ख़ुशी,उत्साह से लबरेज  दिनचर्या ख़त्म हो चुकी है। 
अपर्णा साह 
परिचय – 
मैं अपर्णा साह हूँ। राँची में रहती हूँ। सिवान(बिहार) की रहनेवाली हूँ। सफल घरेलु महिला और माँ हूँ। 30 मई जन्मदिन है। दो बेटे ही हैं,पति  कोलइंडिया में इंजीनियर हैं। बचपन से पढ़ने-लिखने का माहौल मिला  है। बीच में बच्चों के कारन कुछ ठहराव हुआ पर अकेलापन फिर से कलम पकड़ा गई। 

 दिल से स्पंदित शब्द ,भावनाओं का ज्वार ,सुख-दुःख की स्याही …..बस ये ही है मेरी पहचान .कुछ न कह पाने की झिझक,हद से न निकल पाने की कुंठा ,जाने कितना कुछ अनकहा,अनसुना, अनचीन्हा रह जाता है.तो हाथों में कलम आ जाती है। चूँकि मनोविज्ञान से पढ़ी हूँ सो इस विषय पे कलम ज्यादा चलती है। 


(सभी चित्र गूगल से साभार )

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